प्रेम की देवी की गोद में अवतार

March 1991

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“दुग्धोवा कहाँ है?” सुबह नाश्ता करते समय छोटी बेटी को न देखकर पिता ने सामान्य भाव से पूछा।

“दुग्धोवा! अरी दुग्धोवा! कहाँ है तू?-’ माँ ने वही से पुकारा। कहीं से कोई उत्तर न पाकर स्वयं उठी। इधर-उधर कही न देख उनके माथे की लकीरें गहरी हुई। कहीं आज फिर तो नहीं...। अपने भारी भरकम शरीर को सम्भालते हुए वे उसी कमरे की ओर लौटीं और दूर से ही बोली “लगता है आज फिर उसी जादूगरनी के यहाँ चली गई और चढ़ाओ उसे सिर पर।”

कहाँ गई? वह ऐसे चौंक कर उठे जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो।

“वह तो कब की पहुँच गई होगी।” उनके बड़े बेटे ने शिथिल स्वर में कहा।

“हे भगवान!” गृहस्वामी ने दोनों हाथों से अपना सिर थाम लिया।

अब क्या होगा। पत्नी की आंखें स्थिर हो गई। वे पति के कन्धे पर हाथ रखकर खड़ी हो गई।

अभी कल ही उनकी लड़की उस जादूगरनी के यहाँ गई थी। कितने रुष्ट हुए थे, उपासना घर के प्रधान पुजारी। किन्तु कल की बात और थी। ‘किप्पूर’ का दिन साल में रोज-रोज तो आता नहीं। आज जब लोगों को यह खबर मिलेगी तब समाज की सारी परम्पराएँ एक साथ उनके छोटे से परिवार पर टूट पड़ेंगी। माँगियो के प्रधान देवता क्रोध पता नहीं कौन सी विपत्ति ढहाए।

ग्यारह साल की गोल मुख सुनहरे बाल,भूरी भोली आँखों वाली गोलमटोल गुड़िया जैसी चंचल बालिका दुग्धोवा। अभी उसे इतनी समझ कहाँ है। कल भी वह चली गई थी इसी तरह चली गई थी। बिना किसी से कुछ कहे सुने।

“बेचारी बुढ़िया बीमार है। उससे उठा बैठा नहीं जाता है, उसे कोई पानी देने वाला भी नहीं।” कल सीधे उपासना घर में बाहर से दौड़ी-दौड़ी दुग्धोवा आयी। प्रमुख पर्व की वजह से भीड़ भी ज्यादा थी। लेकिन वह सभी के बीच से गुजरते प्रधान पुजारी का लबादा थामकर कहने लगी “मैंने उसके लिए ‘आहुर मज्द’ से प्रार्थना की है। आप भी उसके लिए प्रार्थना करें।”

‘तू किस की बात कर रही है?’ प्रधान माँगी ने स्नेहपूर्वक उसका गाल थपथपा कर पूछा।

“वह जो अपनी बस्ती के बाहर थूहरो के घेरे में सफेद बालों वाली बुढ़िया रहती है” दुग्धोवा बाल सुलभ सरलता से बोली। “वही जिसने जानवरों की भीड़ जुटा रखी है, पोपले मुख वाली बुढ़िया” “दुराशषो!” प्रधान पुजारी चौंक कर दो कदम पीछे हट गए “तूने मुझे भी छूकर अपवित्र कर दिया।”

“यह बच्ची है। मैं क्षमा चाहता हूँ इसकी ओर से” उसके पिता सहमते हुए पुजारी के सामने आए। पुत्री को खींच कर पीछे कर दिया था उन्होंने।

“अच्छी बात है।” माँगियो के प्रधान के मुख पर रोष की रेखाएँ अभी भी थीं। किप्पुर तो अपराध क्षमा दान का पर्व है। इस दिन यदि मनुष्य के अपराध मनुष्य नहीं क्षमा करेगा तो ‘आहुरमज्द’ से स्वयं के अपराध की क्षमा पाने की आशा कैसे रखें। इस दिन क्षमा दान पुजारी की विवशता थी।

बेचारी जादूगरनी कौन करता उसके लिए क्षमा याचना? एट्रोपाटेन की समूची बस्ती में उसके बारे में तरह-तरह की अफवाहें फैली थीं। उसने शेर -चीते, रीछ, सर्प पता नहीं क्या क्या पाल रखे हैं। सुना तो यह भी जाता है कि शैतान भी उसके काबू में है। उसे अपनी झोपड़ी के साथ कब का जला दिया गया होता, किन्तु किसी का साहस उधर जाने का नहीं है। आखिर वह जादूगरनी जो ठहरी पता नहीं क्या कर दे? लेकिन सच्चाई यही है कि बस्ती के इतने निकट रहने पर भी कोई उसके सम्बन्ध में ठीक नहीं जानता। ऐसे भयावह स्थान पर दुग्धोवा कैसे चली गई। पर कल तो किप्पुर था, आज...।

“दुग्धोवा को नगर से बाहर अकेले निकाल देना होगा।” प्रधान पुजारी ने उस दिन सायं प्रार्थना के बाद सभी की उपस्थिति में अपना निर्णय सुना दिया। माँगियो के प्रधान विवश थे, परम्पराओं के सामने। फूल सी कोमल बालिका को दूर जंगल में अकेले छोड़ आने का दण्ड। ऐसी भी क्या विवशता? किन्तु मूढ़ताओं के घेरे में विवेक को स्थान कहाँ? जब विवेक नहीं तब संवेदना का रक्षण कौन करे? कौन उत्तर दे,सभी मौन थे। कुरीतियों के सामने किस की मजाल जो बोल जाय।

चित्र-विचित्र परम्पराएँ थीं उनकी बस्ती में उन्हीं असंख्यों में एक यह भी थी कि जो महिला खुल कर बोले, पुरुषों के सामने अपनी प्रतिभा को विकसित करना चाहे उसे डायन करार कर दो, जादूगरनी कह दो। फिर तो उसकी एक ही सजा है, सामाजिक बहिष्कार जो उसका साथ देना चाहे, उसकी भी यही गति। पुजारी के निर्णय का प्रतिवाद-अपने-आप में सबसे बड़ा अपराध है। सभी सन्न थे। दुग्धोवा के माता-पिता? उनकी कौन कहे उपस्थित सभी जनों की आँखें भरी थीं। परंपराओं की जकड़न में मानवता कसमसा रही थी।

तभी एक गड़रिया दौड़ता-हाँफता भीड़ में घुसा चला आया। नंगे पैर, फटे मैले कपड़े, तिनकों और धूलि से भरे सिर तथा दाढ़ी के केश। शरीर और वस्त्र दोनों से भेड़ों से निकलने वाली गन्ध आ रही थी। किन्तु उसका ध्यान न तो अपनी ओर था और न उस भेड़ की ओर जो वहाँ जमा थी। सीधा प्रधान पुजारी के पास जाकर उसके चोगे का छोर चूमते हुए बोला “सबाटान पहाड़ का तपस्वी पर जिन कुरुस उतर आया है। वह इधर ही आ रहा है। जैसे ही मैंने देखा आपको सूचित करने भागा आ रहा हूँ।”

“सबाटान के तपस्वी आ रहे हैं बस्ती की ओर!” वहाँ जमा लोगों में कानाफूसी होने लगी। बड़ी उत्साहवर्धक खबर थी। इतने बड़े तपस्वी की चर्चा होने लगी। दुग्धोवा का निर्णय शाम तक के लिए स्थगित होगा।

“ये तपस्वी कहाँ जा रहे हैं?” नगर से बाहर पर्याप्त दूर जाकर स्वागत करने गए बस्ती वासियों को इस बात का आश्चर्य नहीं हुआ कि सालों से मौन इस तपस्वी के स्वागत समारोह की ओर उसने स्वयं ने आँख उठाकर भी नहीं देखा। वे सब तो तब चौंके, जब तपस्वी बुढ़िया जादूगरनी के थूहरों वाले घेरे की ओर मुड़ा।

थूहरों के घेरे के बाहर सभी के पाँव ठिठक गए। एक अज्ञात भय से रोमाँच हो आया-पता नहीं क्या है भीतर? सिर्फ दो एक लोगों ने तपस्वी के साथ अन्दर जाने का साहस किया। प्रधान पुजारी भी उनमें से एक था। ये साथ जाने वाले अन्दर जाकर हतप्रभ रह गए यहाँ तो कोई ऐसी-वैसी बात नहीं। दो बकरे, एक कुत्ता, तीन गधे बस, ऐसे ही एक दो छोटे-छोटे पशु और। अन्दर की जमीन में साधारण साग-भाजी की क्यारियाँ थीं। कहीं भी तो नहीं था कुछ जादू-टोने जैसा उसने तो न जाने क्या-क्या देखने की आशा लगा रखी थी,पर यहाँ तो कुछ भी नहीं। लेकिन वह तो पिछले पचास सालों से न जाने क्या-क्या सुनता आया है? तब तो वह पुजारी भी नहीं था। तो क्या वे सब बातें झूठी थीं। यहाँ तो दो चार बर्तन, एक घड़ा और एक चूल्हा भर दिखा। मूढ़मान्यताओं का आधार कहाँ?

तपस्वी बालिका दुग्धोवा के चरणों पर झुक गया। बेचारी दुग्धोवा सहम कर उठ खड़ी हुई। सभी चकित थे। वह बहुत सालों बाद आज बोल रहा था “मुझे अकस्मात ‘आहुरमज्द’ की वाणी सुनाई पड़ी। उस वाणी ने मुझे आदेश दिया कि मैं प्रेम की देवी दुग्धोवा का दर्शन करूं। उस महिमामय मूर्ति का दर्शन जिसकी गोद में खेलने के लिए स्वयं आहुर मज्द लालायित हो उठे हैं। वे स्वयं अपने एक अंश से शीघ्र आने वाले हैं। नव धर्म की संस्थापना के लिए जो नए युग का धर्म होगा।”

तपस्वी एक पल के लिए पीछे खड़ी भीड़ की ओर मुड़े बिना, किसी व्यक्ति विशेष की ओर देखे बिना बोलने लगा “मूर्खों! समय विशेष की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाए गए नियम-नीति होते हैं। तुम जैसों का विवेकहीन अनुसरण इन्हें परम्परा के रूप में बदलता है। जब ये परम्पराएँ प्रगति के बढ़ते कदमों पर कुल्हाड़े बरसाने लगती हैं, तब ये कुरीति बन जाती हैं। इन कुरीतियों को सर्प हार की तरह लपेटे फिरना-मोह है यही मूढ़ मान्यता है”।

सभी चुप थे “अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है अभी सम्भल जाओ स्वागत करो नए अवतार का। नए युग की नई नीतियाँ रचो, स्वीकारो नयी संहिता, बनाओ नए संविधान, जो तुम्हें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जा सके। तुम ज्योति पुत्र कहा सको।” इतना कह कर तपस्वी वापस लौट गए जंगल में।

यही बालिका दुग्धोवा-महात्मा जरस्थुस्त्र की माँ बनी। प्रेम की देवी की गोद में आए इस अवतार ने पारसी धर्म के रूप में यही संदेश दिया कि “मानव प्रेम अमर है जो परम्परा इसके आड़े आए, तत्काल उसे अस्वीकार कर दो।”


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