प्रकृति ने नारी को दुलारपूर्वक सँजोया है

March 1991

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प्रकृति ने नर नारी को अधिक प्यार और सम्मान दिया है, साथ ही उसे इस योग्य भी बनाया है कि अपने बहुमुखी उत्तरदायित्वों का वहन भली प्रकार कर सके। कद और भार में नारी नर की तुलना में कुछ हल्की भले ही पड़ती हो, पर यह उसके लिए सुविधा की बात है। शरीरगत भार कम वहन करना पड़े तो वह हल्कापन उन्हें अधिक स्फूर्तिवान या क्रियाकुशल बनने में काम आता है। उनकी कोमलता, भाव संवेदना तथा सुन्दरता अपने परिकर को एक कोमल तथा मजबूत शृंखला में बाँधें रहती है और परिवार प्रसन्न तथा विकासवान बनते हैं। प्रजनन क्षमता तो प्रकृति का अनुदान है। जिसके आधार पर वे भली-बुरी पीढ़ियों का निर्माण कर सकें। छाती में दूध भर कर प्रकृति ने उसे शिशुओं को जीवित रहने का भी अनुदान प्रदान किया है।

पुरुष है जिसने सहचरी को दासी बनाया है। उसके मानवी अधिकारों का अपहरण किया है और दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया है। पग-पग पर उपेक्षित-तिरष्कृत होते रहने के कारण वे प्रतिभाएँ एवं क्षमताएँ कुँठित होती चली जा रही हैं, जिनके द्वारा वे अपना उत्थान कर सकती थीं। परिवार तथा समाज को कहने योग्य अनुदान दे सकती थीं। नारी का पिछड़ापन मानवी प्रगति में सबसे अधिक बाधक है।

जिन देशों में नारी को सम्मान की दृष्टि से देखा और उन्हें अपनी प्रतिभा निखारने और क्षमता बढ़ाने का सुअवसर प्रदान किये हैं, वह सामाजिक, आर्थिक दृष्टि से समुन्नत बने हैं। चीन की समाचार एजेन्सी ‘सिनहुआ’ के अनुसार उस देश में न्यायाधीश जैसे उच्च स्तरीय एवं सम्मानित पदों पर एक लाख से भी अधिक महिलाएँ कार्यरत हैं। शिक्षित महिलाएँ व्यावसायिक एवं औद्योगिक इकाइयों को तो सँभालती ही हैं, शिक्षा, चिकित्सा, शिल्प जैसे महत्वपूर्ण विभाग भी प्रायः उन्हीं के जिम्मे हैं। अन्य विचारशील देशों ने भी नारी शक्ति को विकसित किया है और उसे चौके-चूल्हे, कोल्हू में पेलने की अपेक्षा अधिक उपयोगी बनाया है। विकसित देशों में शिक्षा, चिकित्सा, शिल्प, कला, बाल-विकास, कृषि पालन जैसे विभागों को उनके ऊपर छोड़ा और उसका सफल सत्परिणाम देखा गया है। जापान, कोरिया, इन्डोनेशिया आदि देशों ने विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं को अपनी अभूतपूर्व क्षमता का परिचय देने का अवसर प्रदान किया है और आर्थिक दृष्टि से सुसम्पन्न बने हैं। ईरान, ईराक एवं अफगानिस्तान जैसे छोटे राष्ट्रों की नारियाँ संकट के क्षणों में पुरुष सैनिकों के कंधे से कंधा मिलाकर युद्ध मोर्चे पर अपनी साहसिक प्रतिभा का प्रमाण प्रस्तुत कर चुकी हैं।

नेतृत्व के क्षेत्र में भी वे पीछे नहीं रही हैं। प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक के सर्वोच्च एवं उत्तरदायित्वपूर्ण पदों को उनने गौरवान्वित किया है। इन्दिरा गाँधी से लेकर मार्गरेट थैचर, श्रीमती भण्डार नायके, गोल्डा मायर, फिलीपिन्स की कोराजोन एक्वीनो, इण्डोनेशिया की श्रीमती केमारो, जापान की टकोका डोई आदि प्रतिभाशाली महिलाओं की एक लम्बी शृंखला है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि भारत जैसे विशाल देश में जहाँ कभी नारियों का वर्चस्व था, सदियों से उसकी प्रतिभा को कुँठित बना दिया गया। स्वतंत्रता एवं समानता का अधिकार मिलने के पश्चात् भी देश में अभी तक मात्र 12 लाख के लगभग महिलाएँ ही उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकी हैं। अधिसंख्य महिलाएँ अशिक्षित दशा में रहते हुए घर की चारदीवारी में बंद कैदियों जैसे जीवन जीने को विवश हैं। इतने पर भी उनकी अन्तरात्मा अभी मरी नहीं है। वह अपने विकास के लिए, क्षमता-प्रतिभा प्रदर्शित करने के लिए आकुल-व्याकुल हैं। आवश्यकता मात्र अवसर प्रदान करने एवं उन्हें शिक्षित बनाने की है। इस दुर्गति से उबरने पर ही समग्र प्रगति संभव है।

नारी अपनी सुकोमल भाव संवेदनाओं के लिए विख्यात है। सुप्रसिद्ध मानव विज्ञानी डॉ. ली. साल्क ने अपने अनुसंधान निष्कर्ष में बताया है कि मातृ हृदय की धड़कन के साथ-साथ भाव संवेदनाएँ भी तरंगित होती उभरती रहती हैं। यही कारण है कि जाने-अनजाने प्रत्येक माता अपने शिशु को हृदय का अधिक सामीप्य देना चाहती है और उसे अपने सीने से चिपकाये रखती हैं। हृदय की ध्वनि तरंगों को सुनकर शिशु एक अनिर्वर्चनीय आनन्द में डूबा रहता है। डॉ. साल्क ने इस संबंध में कुछ प्रयोग भी किये जिसके आश्चर्यजनक सत्परिणाम सामने आये। उनने मातृ हृदय की धड़कन की ध्वनि को टेप कर जब रोते हुए नवजात शिशुओं को सुनाया, तो उनका रोना तत्काल बन्द हो गया। मुखमंडल पर शान्ति एवं प्रसन्नता के भाव उभर आये। उनने निष्कर्ष निकाला की माताओं के धड़कते हृदय के साथ उनकी और मृदुल भावनाएँ भी जुड़ी रहती हैं, जिनसे पूर्व परिचित होने के कारण बच्चे सहज ही उनकी ओर आकर्षित हो जाते हैं।

ऐसा ही मन्तव्य प्रख्यात मानवशास्त्री डॉ. डिस्पाड मॉरिश का भी है। उन्होंने अपने ग्रन्थ - “द इन्टिमेट बिहेवियर एण्ड द नेकेड एथ” में लिखा है कि हृदय की शाश्वत ध्वनि को शिशु गर्भावस्था से ही सुनता रहता है जन्म के बाद वह बाह्य संसार की विचित्र ध्वनियों से परेशान हो उठता है और रोने लगता है, परन्तु जैसे ही माता का सामीप्य पाता है, चुप हो जाता है। यह जन्मदात्री माँ के सम्वेदनशील हृदय की ही प्रतिक्रिया है जिसकी सुखद तरंगों की अनुभूति करते ही वह रोना भूल जाता है। उनके अनुसार इस संदर्भ में जो महिलाएँ सतर्कता बरतती हैं, उनकी संतानें अपेक्षाकृत अधिक प्रगतिशील एवं बलिष्ठ पाई जाती हैं।

नारी का कद में छोटा होना कोई अकाट्य नियम नहीं है। इसका व्यतिरेक भी होता रहता है, संसार में कितनी ही महिलाएँ लम्बी, भारी तथा पुरुषों की तुलना में अधिक बलिष्ठ और बुद्धिमान पाई जाती हैं। जहाँ अवसर मिला है, वहाँ उनके विकास ने चमत्कार उत्पन्न किया है। खेल-कूदों में, परीक्षा के उत्तीर्ण अंकों में, प्रतिस्पर्धाओं में अब वे अपेक्षाकृत अधिक अग्रणी रहने लगी हैं। सोवियत चिकित्साविज्ञानी डॉ. कोडाकायन के अनुसार महिलाएँ पुरुषों की अपेक्षा अधिक परिश्रमशील भी होती हैं। यही कारण है कि वे रक्त चाप, मधुमेह मस्तिष्कीय रोगों आदि से बहुत कम पीड़ित पाई जाती हैं। बीमार पड़ने पर वे अपेक्षाकृत जल्दी स्वस्थ हो जाती हैं। उनकी जीवनी शक्ति एवं रोग प्रतिरोधी क्षमता के आगे नर कमजोर ही सिद्ध होता है।

फ्राँस के प्रसिद्ध प्राणिशास्त्र डॉ. ज्यों रेस्ताँ का कहना है कि संसार में स्रष्टा की सर्वोत्तम कृति नारी है। पुरुष अपनी वरिष्ठता, बलिष्ठता एवं बुद्धिमत्ता पर व्यर्थ ही गर्व करता है। वस्तुतः वह जो कुछ भी आज तक बन पाया है, मातृ हृदय की देन है। इस तथ्य से अनभिज्ञ रहने के कारण वह नारी को मात्र भोग्या एवं दासी स्तर का समझ बैठा और उसे विविध प्रलोभनों एवं बंधनों से जकड़ कर अनुवर्ती बनने के लिए विवश करने की भूल कर बैठा है। यह तो नारी की ही विशेषता एवं उदारता रही है कि इतने अत्याचार सहने के उपरान्त भी वह उसे सन्तानवत् दुलार देती रही है। इतने पर भी यदि नर की विवेकशीलता न जागी तो वह दिन भी अब दूर नहीं जब नारी उसे एक अनावश्यक विस्तार साधन समझ कर उसका परित्याग भी कर सकती है और संतान का निर्माण बिना पुरुष के संयोग से भी करती रह सकती है। उनके अनुसार वस्तुतः हमारे निर्माण में मातृत्व ही एक मात्र कारण है। पितृत्व को हम निरर्थक ही मूल तत्व मान बैठे हैं, क्योंकि विकास क्रम में पितृ प्रधान जीवाणु तो अपना अस्तित्व ही खो बैठता है और अंत में जिन तत्वों से हमारा निमार्ण होता है, वे मातृ प्रदत्त तत्व होते हैं। उनने इस तरह के प्रयोग परीक्षण भी किये हैं और सफल रहे हैं।

आत्मिकी की दृष्टि से नर-नारी दोनों में एक ही आत्मचेतना कार्यरत रहती है। कोमलता, मृदुता, उदारता, सहकारिता, स्नेह-सद्भाव आदि सद्गुण दोनों में ही होने चाहिए क्योंकि यह चेतना के सहज स्वभाव में सम्मिलित है। नारी उन मौलिक विशेषताओं को उभरने देती है, जबकि अपने मिथ्याभिमान के कारण पुरुष उन्हें विकसित नहीं होने देता। यही कारण है कि सद्गुणों की दृष्टि से नारी सदैव वरिष्ठ मानी और मातृशक्ति के रूप में सम्मानित की जाती है। नर-नारी दोनों में गहरी मित्रता और आस्था हो तो दोनों पक्ष एक दूसरे के लिए पूरक, आनन्दमय और प्रगति में सहायक होते हैं। पारस्परिक सहयोग-सहकार से दोनों में से एक भी घाटे में नहीं रहता।


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