अपने चिन्तन को परिष्कृत कर (Kahani)

March 1991

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फिनलैण्ड के विश्व प्रसिद्ध संगीतकार सिबिलियस से एक नौजवान संगीतकार मिलने आया और बताने लगा की आलोचक मेरी कितनी ही बार इतनी कड़ी आलोचना करते हैं कि मैं कई बार बेहद निराश हो जाता हूँ।

“कुछ भी करने धरने की आवश्यकता नहीं है मित्र” सिबिलियस ने कहा “बस उन नासमझों की बातों पर ध्यान न दो। यदि तुम्हारा उद्देश्य पवित्र है और नीयत साफ है, तो किसी निन्दक और आलोचक से मत डरो और यह भी जान लो कि किसी भी निन्दक या आलोचक के सम्मान में कोई मूर्ति या स्मारक आज तक दुनिया में नहीं बनाई गई है।”

यह सच है कि मानवी चिन्तन-चेतना में समाये इस प्रकार के दुर्गुण ही आज के संकट और मनुष्य के अस्तित्व के लिए प्रश्न-चिन्ह बन कर अड़े हुए हैं। जब तक वह अपने चिन्तन को परिष्कृत कर स्वयं को दुर्गुण मुक्त नहीं कर लेता तब तक न तो वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी है और न वर्तमान दुर्गति से बच सकता है। इसी का अनुमोदन करते हुए डब्ल्यू. एच. थ्रोप अपने ग्रन्थ “एनीमल नेचर एंड ह्यूमन नेचर” में प्रसिद्ध जन्तु शास्त्री डॉ. कोनार्ड लोरेन्ज की पुस्तक “ऑन एग्रेसन” पर समीक्षा प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि मनुष्य का जो मूलतः हिंसक एवं क्रोधी स्वभाव का मानते हैं, वह वस्तुतः भूल करते है। यह मनुष्य के विकार हैं, न की मूल प्रवृत्ति इन्हें दूर कर वह, वह सब कुछ बन सकता है, जिसे महान, विलक्षण, अद्भुत, अलौकिक कहा गया है।


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