मनुष्य वस्तुतः सच्चे अर्थों में कौन है? क्या विशिष्ट आकार-प्रकार का कलेवर या ढाँचा प्राप्त कर लेना ही इसकी निशानी है अथवा इसके कुछ अन्य मानदण्ड हैं? इन सब बातों पर गहराई से विचार करने पर यही ज्ञात होता है कि केवल बाह्य ढकोसले के आधार पर किसी को मनुष्य कह देना मनुष्यता के साथ अन्याय करना है। ऐसे मिलते-जुलते कलेवर तो वनमानुष, चिंपैन्जी जैसे अन्य वन्य जन्तुओं के भी होते हैं, फिर तो इस परिभाषा के आधार पर मनुष्य की श्रेणी में वे भी आ सकते हैं। इससे ऐसा लगता है कि परिभाषा अथवा चिंतन में कहीं कोई कमी अवश्य है। मनीषियों का कहना है कि मनुष्य अथवा मनुष्यता की परिभाषा उसके नैतिक मूल्यमानों पर, आन्तरिक उत्कृष्टता पर आधारित होनी चाहिए, जो सही भी है।
इसी का समर्थन करते हुए एरिक फ्राम अपनी पुस्तक “साइकोलॉजी एण्ड ह्युमन सोसायटी” में लिखते हैं कि मनुष्य के व्यवहार का आधार आचार है और आचार की अभिव्यक्ति व्यवहार। अन्तरंग को संवारे बिना उत्तम व्यवहार की कल्पना करना और सही अर्थों में मानवता का परिचय दे पाना हथेली में सरसों जमाने की तरह है। वे आगे लिखते हैं कि आज हम कहने को तो अन्तरिक्ष युग में प्रवेश कर चुके हैं और बाहरी दृष्टि से यह मनुष्य की एक बहुत बड़ी विजय का द्योतक भी है, पर जब हम उसके अन्तराल में झाँकते हैं, तो ऐसा लगता है कि वो एक बार फिर से पाषाण युग की ओर ही अग्रसर हो रहा है। वे चेतावनी देते हुए कहते हैं कि यदि हमारा ध्यान अन्तः के परिष्कार की ओर न होकर मात्र वाह्य उपलब्धियों की ओर ही केन्द्रित रहा, तो फिर हम आदि मानवों की श्रेणी से भी नीचे पशुओं की श्रेणी में आ जायेंगे, जिसका एक ही काम होगा, पारस्परिक विद्रोह और विध्वंस।
आर. ड्यूक्स अपनी रचना “सो ह्यूमन एज एनीमल” में मानवी पतन का एक मात्र कारण जीवनोद्देश्य को भूल जाना बताते हैं। वे कहते हैं कि ऐसा तब से आरम्भ हुआ, जब से हमने विज्ञान के प्रत्यक्षवाद को ही सब कुछ मानने की भूल की। जिस बात को विज्ञान द्वारा सिद्ध किया जा सका, उसे हमने सहजता से स्वीकार लिया, और जहाँ वह असमर्थ रहा, वहाँ हम उस तत्व के अस्तित्व से ही इन्कार करने लगे। प्रत्यक्षवाद ने जहाँ अन्धमान्यताओं एवं कुप्रथाओं को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, वही सृष्टि संचालन के पीछे किसी समर्थ सत्ता के हाथ होने पर ही प्रश्न-चिन्ह लगा दिया। बस यही से चार्वाक, मिल, बेन्थम, नीत्से चरनिस्मेस्की जैसे अनीश्वरवादी भोगवादियों ने सिर उठाना शुरू किया और “ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्” का नारा देना शुरू किया। कहा-चाहे जैसे भी बन पड़े भले ही वह अनाचार-अत्याचार के माध्यम से ही क्यों न हो, ऐश-मौज करो। इस सिद्धान्त ने समाज व्यवस्था ही भंग कर दी और एक अराजकतावादी समाज को जन्म दिया। ड्यूक्स का कहना है कि अराजकता को समाप्त करने के लिए हमें ईश्वर और मनुष्य के बीच पुनः वही संबंध स्थापित करना पड़ेगा, जो प्राचीनकाल में था और जिसे कभी संसार की सर्वोपरि सत्ता के रूप में स्वीकार किया गया था। जब तक इतना कुछ नहीं बन पड़ेगा तब तक समाज में नैतिकता की आशा करना मनुष्य के लिए दुराशा मात्र होगी।
इसी को दूसरे शब्दों में जी. ई. पुघ अपनी कृति “दि बायोलॉजिकल ओरीजीन ऑफ ह्यूमन वेल्यूज” में लिखते हैं कि मनुष्य की पहचान उसकी भावनात्मक संगठना के कारण है। मात्र बुद्धि अथवा आकार वह मनुष्य कहलाने का अधिकार नहीं है। यदि ऐसा ही होता, तो प्रयोग परीक्षणों के दौरान बन्दरों एवं चिंपैन्जी को भी बुद्धिमान पाया गया है। इस आधार पर वे भी मनुष्य की पंक्ति में आ खड़े होते, पर वस्तुतः मनुष्य उदात्त भावनाओं का समुच्चय है। इसे यदि उससे पृथक कर दिया जाय, तो मनुष्य मात्र एक बुद्धिमान जन्तु भर बन कर रह जायेगा। इसी का समर्थन करते हुए “दि ह्यूमन साइक” में जॉन एकलिस कहते हैं कि मनुष्य अपने अन्तस् में उत्कृष्टता के बीज संजोये हुए है। यदि इसे निरन्तर पोषण देकर विकसित किया जा सके, तो कोई कारण नहीं है कि मानव महामानव न बन सके, पर विडम्बना यह है कि मानव देवत्व पर असुरत्व हावी हो जाने के कारण देवत्व के अंकुर विकसित वृक्ष बनने के पूर्व ही मुरझा जाते हैं। उन्होंने “ए क्लास वर्क आरेंज” एवं “जाँज” जैसी भयानक व डरावनी फिल्मों के निर्माता श्री क्यूब्रिक के इस कथन पर आपत्ति प्रकट की है कि मनुष्य मूलतः पाश्विक, हिंस्र व सनकी है। श्री एकलिस का कहना है कि वस्तुतः मनुष्य ऐसा है नहीं। यह तो उसके विकास काल के अवशेषी संस्कार है, जिन्हें प्रयासपूर्वक हटा कर वह अपने प्रखर और वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर सकता है।
नृतत्वविज्ञानी ई. ओ. विल्सन अपनी पुस्तक “ऑन ह्यूमन नेचर” में यह स्वीकारते हैं कि मानवी जीवन गरिमामय तभी माना जा सकता है, जब वो “अपना और अपनों” के संकीर्ण स्वार्थपरता के सिद्धान्त से ऊपर उठकर विश्व बन्धुत्व का परिचय दे। वे लिखते हैं कि इतनी विशेषता तो मनुष्येत्तर प्राणियों में भी पायी जाती है, फिर मनुष्य तो उनमें बहुत बुद्धिमान और विकसित है। उसने भी उसी लीक पर चलने का परिचय दिया, तो इसे उसकी संकीर्णता ही कहनी चाहिए।
मानव में सामाजिकता के विकास का आरंभ सिर्फ इस कारण हो सका था उसने इसकी आवश्यकता और उपयोगिता समझी थी, पर आज एकबार फिर से वह इससे विमुख होता जा रहा है, जिससे उसका भविष्य अन्धकारमय दिखाई पड़ता है। इसी आशय का मन्तव्य प्रकट करते हुए शेरिंगटन अपनी प्रसिद्ध रचना “मैन एण्ड हिज नेचर” में लिखते हैं कि दूसरों के प्रति सद्भावना और सम्मान ही ‘स्व’ के विस्तार का आधार है और इसी आधार पर उसके उज्ज्वल भविष्य की आशा की जा सकती है। इससे कम में विकास तो क्या अस्तित्व को सुरक्षित रख पाना भी उसके लिए असंभव होगा। इसी बात को श्री एल. आर. लक्ष्मीनारायण ने अपने शोध प्रबन्ध “श्री अरविन्दो एण्ड दि टू कल्चर्स” में दूसरे ढंग से कहा है। वे मनुष्य की वर्तमान चिन्तन पद्धति को ही आज के संकट के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं कि चिन्तन की संकीर्णता जहाँ व्यक्ति के दायरे को स्वयं तक, सम्प्रदाय अथवा जाति तक सीमित कर देती है, वही उसकी अधोमुखता हिंसा, क्रोध एवं प्रतिशोध जैसी प्रवृत्तियों को जन्म देती है। इस संकट से उबरने का वे एक ही विकल्प सुझाते हैं- चिन्तन का परिष्कार और उदात्तीकरण।