भारतीय धर्म का एक ही उद्गम स्त्रोत गायत्री

March 1991

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गायत्री उपासना सहज स्वरूप है व्याहृतियों वाली त्रिपदा गायत्री का जप। “ॐ भूर्भुवः स्वः” -यह शीर्ष भाग है, जिसका तात्पर्य यह है कि आकाश, पाताल और धरातल के रूप में जाने-जाने वाले तीनों लोकों में उस दिव्य सत्ता को समाविष्ट अनुभव करना। जिस प्रकार न्यायधीश की, पुलिस अधीक्षक की उपस्थिति में अपराध करने का कोई साहस नहीं करता, उसी प्रकार सर्वदा सर्वव्यापी, न्यायकारी सत्ता की उपस्थिति अपने सब और सदा सर्वदा अनुभव करना और किसी भी स्तर की अनीति का आचरण न होने देना। “ॐ” अर्थात् परमात्मा। उसे विराट् विश्व ब्रह्माण्ड के रूप में व्यापक भी समझा जा सकता है। यदि उसे आत्मसत्ता में समाविष्ट भर देखना हो, तो स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर में परमात्मसत्ता की उपस्थिति अनुभव करनी पड़ती है और देखना पड़ता है कि इन तीनों ही क्षेत्रों में कहीं ऐसी मलिनता न जुटने पाये, जिसमें प्रवेश करते हुए परमात्मसत्ता को संकोच हो। साथ ही इन्हें इतना स्वस्थ, निर्मल एवं दिव्यताओं से सुसम्पन्न रखा जाय कि जिस प्रकार खिले गुलाब पर भौंरे अनायास ही आ जाते हैं, उसी प्रकार तीनों शरीरों में परमात्मा की उपस्थिति दीख पड़े और उनकी सहज सदाशयता की सुगंधि से समीपवर्ती समूचा वातावरण सुगंधित हो उठे।

गायत्री मंत्र का अर्थ सरल और सर्वविदित है-सवितुः-तेजस्वी। वरेण्यं-वरण करना-अपनाना। भर्गो-अनौचित्य को तेजस्विता के आधार पर दूर हटा फेंकना। देवस्य-देवत्व की पक्षधर विभूतियों को, धीमहि अर्थात् धारण करना। अन्त में ईश्वर से प्रार्थना की गई कि इन विशेषताओं से सम्पन्न परमेश्वर हम सबकी बुद्धियों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करे, सद्बुद्धि का अनुदान प्रदान करे। कहना न होगा कि ऐसी सद्बुद्धि प्राप्त व्यक्ति, जिसकी सद्भावना जीवन्त हो, वह अपने दृष्टिकोण में स्वर्ग जैसी भरी-पूरी मनःस्थिति एवं भरी-पूरी परिस्थितियों का रसास्वादन करता है। वह जहाँ भी रहता है, वहाँ अपनी विशिष्टताओं के बलबूते स्वर्गीय वातावरण बना लेता है।

स्वर्ग प्राप्ति के अतिरिक्त दैवी अनुकम्पा का दूसरा लाभ है -मोक्ष। मोक्ष अर्थात्- मुक्ति। कषाय कल्मषों से मुक्ति, दोष-दुर्गुणों से मुक्ति, भव-बंधनों से मुक्ति। यही भव-बन्धन है, जो स्वतंत्र अस्तित्व लेकर जन्मे मनुष्यों को लिप्साओं और कुत्साओं के रूप में अपने बन्धनों में बाँधता है। यदि आत्मशोधनपूर्वक इन्हें हटाया जा सके, तो समझना चाहिए कि जीवित रहते हुए भी मोक्ष की प्राप्ति हो गयी। इसके लिए मरणकाल आने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। गायत्री की पूजा-उपासना और जीवन-साधना यदि सच्चे अर्थों में की गयी हो, तो उसकी दोनों आत्मिक ऋद्धि-सिद्धियों, स्वर्ग और मुक्ति के रूप में निरन्तर अनुभव में उभरती रहती हैं और उनके रसास्वादन से हर घड़ी कृत-कृत्य हो चलने का अनुभव होता है।

गायत्री उपासना द्वारा अनेकों भौतिक सिद्धियों, उपलब्धियों के मिलने का भी इतिहास पुराणों में वर्णन है। वशिष्ठ के आश्रम में विद्यमान नन्दिनी रूपी गायत्री ने राजा विश्वमित्र की सहस्रों सैनिकों वाली सेना का कुछ ही पलों में भोजन व्यवस्था बनाकर, उन सबको चकित कर दिया था। गौतम मुनि को माता गायत्री ने अक्षय-पात्र प्रदान किया था, जिसके माध्यम से उन दिनों की दुर्भिक्ष−पीड़ित जनता को आहार प्राप्त हुआ था। दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ सम्पन्न कराने वाले शृंगी को गायत्री का अनुग्रह ही प्राप्त था। जिसके सहारे चार देव पुत्र उन्हें प्राप्त हुए। ऐसी ही अनेकों कथा-गाथाओं से पौराणिक साहित्य भरा पड़ा है, जिनमें गायत्री-साधना के प्रतिफलों की चमत्कार भरी झलक मिलती है।

गायत्री के नौ शब्द ही महाकाली की नौ प्रतिमाएँ हैं, जिन्हें चैत्र तथा आश्विन की नवदुर्गाओं में विभिन्न उपचारों के साथ पूजा जाता है। देवी भागवत में गायत्री की तीन शक्तियों का-ब्राह्मी, वैष्णवी, शाम्भवी के रूप में निरूपण किया गया है और नारी वर्ग की महाशक्तियों को चौबीस की संख्या में निरूपित करते हुए, उनमें से प्रत्येक के सुविस्तृत माहात्म्यों का वर्णन किया है। इन चौबीस शक्तियों की प्रतिमाओं का उनके बीज मंत्र व व्याख्या सहित अवलोकन ब्रह्मवर्चस् की शक्ति पीठ में किया जा सकता है।

गायत्री के चौबीस अक्षरों का अलंकारिक रूप से अन्य प्रसंगों में भी निरूपण किया गया है। भगवान के दस ही नहीं, चौबीस अवतारों का भी पुराणों में वर्णन है। ऋषियों में सप्त ऋषियों की तरह उनमें से चौबीस को प्रमुख माना गया है- यह गायत्री के अक्षर ही हैं। देवताओं में से त्रिदेवों की ही प्रमुखता है, पर विस्तार में जाने पर पता चलता है कि वे इतने ही नहीं, वरन् चौबीस की संख्या में भी मूर्धन्य प्रतिष्ठ प्राप्त करते रहे हैं। महर्षि दत्तात्रेय ने ब्रह्माजी के परामर्श से चौबीस गुरुओं से अपनी ज्ञान-पिपासा को पूर्ण किया था। यह चौबीस गुरु प्रकारान्तर से गायत्री के चौबीस अक्षर ही हैं।

सौर मंडल के नौ ग्रह हैं। सूक्ष्म शरीर के छः चक्र और तीन ग्रन्थि समुच्चय विख्यात हैं, इस प्रकार उनकी संख्या नौ हो जाती है। इन सबकी अलग-अलग अभ्यर्थनाओं की रूप-रेखा साधना-शास्त्रों में वर्णित है। गायत्री को नौ शब्दों की व्याख्या में निरूपित किया गया है कि इनसे किस पक्ष की, किस प्रकार साधना की जाय, तो उसके फल-स्वरूप किस प्रकार उनमें सन्निहित दिव्य शक्तियों कि उपलब्धि होती रहे। अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों को इसी प्रकार के विभिन्न क्षेत्रों की प्रतिक्रिया समझा जा सकता है। अतीन्द्रिय क्षमताओं के रूप में परामनोविज्ञानी मानवी सत्ता में सन्निहित जिन विभूतियों का वर्णन निरूपण करते हैं, उन सबकी संगीत गायत्री मंत्र के खण्ड-उपखण्डों के साथ पूरी तरह बैठ जाती है। दैवी भागवत सुविस्तृत उपपुराण है। उसमें महाशक्ति के अनेक रूपों की विवेचना तथा शृंखला है। उसे गायत्री की रहस्यमय शक्तियों का उद्घाटन ही समझा जा सकता है। ऋषि युग के प्रायः सभी तपस्वी गायत्री का अवलम्बन लेकर ही आगे बढ़े हैं। मध्यकाल में भी ऐसे सिद्ध पुरुषों के अनेक कथानक मिलते हैं, जिनमें यह रहस्य सन्निहित है कि उनकी सिद्धियाँ-विभूतियाँ गायत्री पर ही अवलम्बित हैं।


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