क्या सत्य विवेकहीन हठवादिता का नाम है?

March 1991

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“सत्य के लिए किसी से नहीं डरना, गुरु से भी नहीं, मन्त्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं वेद से भी नहीं...” सालों पहले कहे गए गुरु के ये शब्द उनके मन को मथ रहे थे। हलचलें इतनी तेज थीं कि मन की विकलता शरीर पर भी हावी थी। सबेरे की उपासना के बाद बाहर वाले कमरे में टहल रहे थे। टहलते-टहलते कभी-कभार खिड़की से बाहर की ओर झाँक लेते।

जो परम तप है। धर्म की धुरी है, शास्त्रों के सारे कथन जिसके इर्द-गिर्द चक्कर लगाते हैं, जो जीवन को ऋतु से जोड़ता है, क्या है वह सत्य? बुदबुदाते होठों से शब्दों का अन्तिम टुकड़ा फिसल गया। एक क्षण के लिए शून्य की ओर ताका। कहीं कुछ खोज पाने असफल दृष्टि हताश होकर अन्दर लौटने लगी। आंखों की लालिमा पलकों की सूजन स्पष्ट कह रही थी कि वह रात सो नहीं सके हैं। विकट असमंजस था। अन्तः सागर में विपरीत दिशाओं से उठ रही विरोध भाव तरंगों की टकराहट का नाम है असमंजस। भूचाल की तरह जिसके तेज झटके समूचे व्यक्तित्व को उलट-पुलट कर रख देते हैं। व्यक्तित्व की यह कँपकँपी कब चढ़ दौड़ेगी- किसे पता रहता है। कल शाम तक तो सब कुछ ठीक-ठाक था।

“आप जैसे सत्यनिष्ठ को इतना सोच-विचार शोभा नहीं देता। भला सच बोलने में क्या सोचना-विचारना।” भीतर के दरवाजे से प्रवेश कर रही पत्नी के इन शब्दों ने उन्हें चौंका दिया। पदचापों की ध्वनि मन्द पड़ गई। पैर रुक गए पर अन्दर उठने वाला बवण्डर ज्यों का त्यों था। नजरें एक बारगी पत्नी के चेहरे पर टिक गई। अपनी बेधक दृष्टि से मानो उसके अस्तित्व में सचाई की तलाश करने लगे हों।

“समझते क्यों नहीं?” एक तीर से दो शिकार होंगे-वह बोले जा रही थी। “जिस सत्य को तुमने बड़ी से बड़ी कठिनाइयाँ सहकर बड़ा से बड़ा त्याग करके अपनाए रखा उसका पालन और . . “ कहने के पहले अन्दर का उल्लास चेहरे पर उमड़ पड़ा। उल्लास की आभा ने मुख मण्डल पर सर्वदा विराजमान रहने वाले काइयाँपन को और अधिक चमका दिया। “इस तरह कितना खुश हो जायेगा बादशाह! शाही रुतबे-खिताबों का ढेर और कोई बड़ी बात नहीं जो सात हजारी मनसबदार बना दिए जाओ। सारी जिन्दगी तुम्हारी इस ब्राह्मणत्व के पागलपन के कारण क्या-क्या दुख नहीं उठाने पड़े। अभी चेत जाओ, अवसर दरवाजे पर खड़ा दस्तक दिए जा रहा है।”

पत्नी के मुख से निकलने वाला एक-एक अक्षर उनकी पसलियों को भेदे जा रहा था। असह्य पीड़ा हुई उन्हें लगा कि दिल और जिगर का सारा लहू निचोड़ लिया गया हो। कुछ बोलने के बजाय एक उचाट नजर उस पर डाली और फिर टहलने लगे। जिस सत्य को उन्होंने सारी उम्र जीवन का केन्द्रीय आधार माना आज भी मान रहे हैं। पूरी निष्ठ के साथ इन क्षणों में भी उसे निभाना चाहते हैं। एक ओर वह हैं दूसरी ओर उनकी पत्नी जिसकी वाणी-मन अपने स्वार्थ के एक निष्ठ सेवा व्रती रहे हैं। इस समय सच बोलने की पैरवी किये जा रही है। क्यों? इसलिए न कि स्वार्थ सधेगा। यश-वैभव जागीर, खिताब,यही उम्मीदें उसे बोलने के लिए बाध्य किये हैं।

दोनों पक्षों में सत्य कहाँ है? शब्दों में जकड़ा है या भावों में उमड़ रहा है। वाणी के संकरे गलियारे में है या विचारों के सुविस्तीर्ण प्रांगण में। कौन करे इस का निर्णय? बेचैनी भरी दृष्टि इधर-उधर घुमाई। किवाड़ से चिपटी खड़ी पत्नी उनकी इन हरकतों को बारीकी से देख रही थी। इस लम्बे मौन से उसे आशा बँध चली थी कि नतीजा उसके पक्ष में जाएगा। वह पुनः मुखरित हो उठी “इतना परेशान होना कम से कम तुम्हें शोभा नहीं देता। तुम जो हमेशा कहा करते रहे कि ब्राह्मण की एकमात्र सम्पदा है सत्य। उसी अमूल्य सम्पदा को एक छोकरे के पीछे लुटा रहे हैं। लड़का शिवाजी का है अपना तो कुछ भी नहीं। वे छत्रपति हैं इससे हम लोगों का क्या भला हो गया, न रहेंगे तो क्या बिगड़ जाएगा।” उसकी वाणी का कठोर धनुष एक पर एक पैने वाक्य बाणों की बौछार किए जा रहा था। “जयसिहं भी हिन्दु है ठेठ राजपूत-उन्होंने ही तो छल करके पकड़वाया था शिवाजी को -क्यों? सिर्फ इस लिए कि उनका ओहदा बरकरार रहे। आज हर अच्छाई-बुराई न्याय-अन्याय का एक मात्र पैमाना है- स्वार्थ। जिधर स्वार्थ रहे- उधर ही सच्चाई, अच्छाई न्याय सब कुछ है।”

पत्नी की सीख सुनकर उनके परेशान चेहरे पर एक हल्का सा स्मित छलक आया। उसे सम्बोधित करते हुए बोले “ठीक कहती हो तुमने अपने सच का प्रस्तुतीकरण सही ढंग से कर दिया।” उनकी इस मुसकराहट ने उसके चेहरे पर झल्लाहट की रेखाएँ स्पष्ट कर दीं। खीझते हुए बोलने लगी “अपना सच और पराया सच क्या? सच-सच है। तुमने जाने कौन सा शास्त्र प्राप्त किया है।” अन्तिम शब्दों के साथ मुड़कर रसोई घर की ओर चली गई।

कमरे की दीवारों पर लगे एकनाथ, तुकाराम, ज्ञानदेव, समर्थ रामदास आदि संतों के हस्त निर्मित कला चित्रों की ओर देखते हुए सोचने लगे, एक सत्य है जिनके लिए इन देव मानवों ने जीवन जिया। दूसरी ओर है संसार का प्रचलित सत्य -जिसमें एक पल के लिए सच स्वार्थ का पर्याय है, दूसरों के लिए सत्य भाषण-विवेकहीन हठवादिता है।

विचार शृंखला में नयी कड़ियाँ जुड़ती जा रही थीं। वे सोचने लगे यदि सत्य विवेकहीन हठवादिता है तो इसके पालन का मतलब है सम्भाजी को बर्बर बधिकों के हाथ सौंप देना। जिसका परिणाम है, सम्भा जी की हत्या उस विश्वास की हत्या, जिसके सहारे क्षत्रपति अपने दिल के टुकड़े को मेरे यहाँ छोड़ गए। इतना ही नहीं उस मनोबल की भी हत्या जिसके बल पर क्षत्रपति बर्बरता का दमन, दलित मानवता की पीड़ा निवारण में जुटे हैं। नहीं... नहीं सत्य निर्दोष के रक्त से तर्पण नहीं कर सकता। सत्य बर्बर के निष्ठुर हाथों की रक्तपायी कृपाण नहीं बन सकता। इन विचारों ने उन्हें राहत दी और राहत ने प्रफुल्लता। आहट सुन कर पति-पत्नी दोनों की आंखें द्वार की ओर मुड़ी। वाणी में विराम लग गया।

सैनिक वेश में आ रहे इन आगन्तुकों के स्वागत में उठते हुए बोले “आइए मैं आप लोगों की राह देख रहा था।” बैठते हुए औपचारिक चर्चा के बाद उनमें से एक कहने लगा “क्या करें पण्डित जी? आप की बात की कीमत- इस सारे शहर में किसे नहीं मालूम पर सियासती मामला है। वास्तविकता आप से ही जाननी थी।” हिचकिचाते हुए उसने उनकी ओर देखा।

“अरे इसमें तकलीफ क्या? यह तो आप लोगों का फर्ज बनता है। फिर वह लड़का तो मेरा सगा भानजा है। भानजे के साथ भोजन करने में क्या हर्ज?”

उनके इस कथन के जवाब में उन लोगों ने आपस में एक दूसरे की ओर देखा। अब वे आश्वस्त हो चले थे। इधर पण्डित जी ने पत्नी को भोजन परोसने के लिए आवाज दी साथ ही तेज आवाज में पुकारा विनायक। सोलह-सत्रह साल का गठीले बदन का तेजस्वी लड़का भीतर से भोजन की थाली लेकर आया। आगमन करने के पश्चात दोनों साथ-साथ खाने लगे। भोजन कर चुकने पर सैनिक माफी माँग कर शिष्टतापूर्वक चले गए।

उनके चले जाने पर पत्नी क्रोधित नजरों से उनकी ओर देखते हुए बोली “अब्राह्मण के साथ खाकर कर दिया न सत्यानाश।”

“सत्यानाश नहीं सत्यपालन। सत्य के लिए किया जाने वाला प्रत्येक कर्म पवित्र है। सच्चाई भावों में बसती है। क्रिया कलेवर है भाव प्राण। यदि भाव न रहे तो कलेवर कितने दिन टिकेगा। सत्य-स्वार्थ नहीं परमार्थ है, यह उस त्याग और बलिदान की उच्चावस्था है, जिसमें परहित और सर्वहित छुपा है, विवेकहीन हठवादिता नहीं। पत्नी सिर नीचा किए भोजन के बरतन समेट कर जाने लगी। इधर वह कह रहे थे अन्त में जान लो-सत्य भावनाओं से भरी सदाशयता है।

आशय की सच्चाई के रूप में सत्यनिष्ठ को पालन करने वाले पं. पुरुषोत्तम राव ने मध्यकालीन इतिहास में एक अनूठे गौरव की स्थापना की। मिठाई की टोकरी में छुप कर निकले सम्भा जी की प्राण रक्षा कर धर्म संस्थापन के लिए जुटे शिवाजी के कार्य में सहयोगी बने। यही सदाशयता यदि हमारे प्रत्येक कर्म की कसौटी बन सके तो समझें, धर्म निभ गया -सत्यपालन बन पड़ा।


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