एक समर्थ चिकित्सा पद्धति - यज्ञोपचार

March 1991

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शारीरिक -मानसिक स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाये रखने की दृष्टि से अन्यान्य चिकित्सा पद्धतियों की अपेक्षा यज्ञोपचार अधिक सरल, सुनिश्चित और प्रभावी है। उसके माध्यम से व्यक्ति विशेष को ही नहीं, जितने क्षेत्र में यज्ञ ऊर्जा फैलती हो, उस सारे वातावरण को रोगकारक कीटाणुओं के आक्रमण से सुरक्षा दुर्ग की स्थिति में रखा जा सकता है। पिछले दिनों में सम्पन्न हुई कॉमन वैल्थ कान्फ्रेंस में क्षय रोग विशेषज्ञ डॉ. बेंजामिन ने बताया कि संसार में विशेषतया आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से पिछड़े देशों में क्षय रोग का आक्रमण तेजी से बढ़ रहा है और अन्य रोगों से मरने वालों की तुलना में इसके द्वारा होने वाली मृत्यु ही सर्वाधिक है। इस संबंध में बी. सी. जी. के उपचार के विशेषज्ञ डॉ. एण्डरसन का कथन है कि प्रायः एक तिहाई मौतें क्षय के कीटाणुओं से होती हैं। यद्यपि उन रोगियों के शरीर में उभरे हुए लक्षणों के अनुसार उन्हें किसी अन्य रोग का मरीज कहा जाता रहता है, पर वास्तविकता यह है कि क्षय के कीटाणु ही अपने उपद्रव सामान्य की अपेक्षा अन्य प्रकार के लक्षण उत्पन्न कर देते हैं। फलतः चिकित्सक रोगी का उपचार क्षय की अपेक्षा कि सी अन्य रोग का करते रहते हैं। पिछले दिनों शहरीकरण व कस्बों के फैलते फूलते जाने के कारण इस रोग का अनुपात बड़ी तेजी से बढ़ा है।

बड़े शहरों की नगर पालिकाओं में जन्म-मरण के निमित्त रखा जाने वाला लेखा-जोखा बतलाता है कि इस रोग से मरने वालों की संख्या अन्य सब रोगों से अधिक है। बाल रोग विशेषज्ञों ने बच्चों में अधिक सूखा रोग-जिगर बढ़ना-जुकाम तथा पतले दस्तों की बीमारी का गहरा पर्यवेक्षण करने पर यह पाया है कि यह चिन्ह प्रायः क्षय रोग के साथ-साथ पोषण संबंधी रोग ग्रस्तों में पाए जाते हैं।

ऐसे ढीठ रोगों के उपचार में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि कीटाणु हलकी दवाओं से मरते नहीं। तेज दवाओं से उनका विनाश तो होता है पर साथ ही सामान्य स्वास्थ्य संतुलन भी बुरी तरह डगमगा जाता है इन दवाओं से स्वस्थ जीवाणुओं को भी भारी क्षति पहुँचती है और रोग निरोधक शक्ति घट जाने से कई विचित्र रोग इस प्रकार जड़ जमाकर बैठ जाते हैं कि अनेक उपचार करते रहने पर भी टस से मस नहीं होते। इसके कीटाणु जिसे माइक्रो बैक्टीरिया ट्यूबरकुलोसिस कहते हैं बहुत ही सूक्ष्म तथा सुदृढ़ होते हैं। उन्हें नष्ट करने में वही रसायन काम कर सकते हैं जिन के कण इन कीटाणुओं से भी सूक्ष्म तथा सशक्त हैं। सशक्त मारक रसायन तो कई ढूँढ़ निकाले गये हैं, पर उसमें दो कमियाँ बनी रहती हैं, एक तो यह कि उनके परमाणु उतने सूक्ष्म नहीं होते जितने कि विष कीटक। दूसरे उनकी मारक शक्ति विवेक रहित होती, है वह मित्र शत्रु का भेद नहीं करती और विषाणुओं की तरह पोषक और रक्षक जीवाणु का भी समान रूप से संहार करती है। ऐसी दशा में रोग कीटकों का नष्ट होना तो निश्चित नहीं होता पर स्वस्थ कणों को हानि तो अवश्य ही पहुँच जाती है। ये स्वस्थ कण वे होते हैं जो जीवनीशक्ति को यथावत् बनाए रखने के लिए उत्तरदायी माने जाते हैं।

चिकित्सा विज्ञानियों का ध्यान अब इस ओर आकृष्ट हुआ है। फ्राँस के एक आरोग्य शास्त्री ने शक्कर व गुड़ के धुंए से फिनायल की तरह विषाणुओं को मारने में सफलता पाई है। डॉ. टिलेट ने सुखाये हुए मीठे फलों के धुंए को टाइफ़ाइड जैसे रोगों की चिकित्सा की दृष्टि से बहुत ही उपयुक्त पाया है। चेचक जैसे रोगों की चिकित्सा में कभी फ्राँसीसी डॉक्टर हेफकिन ने चिकनाई के धुँए को बहुत ही प्रभावोत्पादक पाया था। संसार के विभिन्न भागों में चिकित्सा शास्त्री इस अनुसंधान पर अधिक ध्यान दे रहे हैं कि भाप और धुँए के उपचार से रोग कीटाणुओं से जूझने के लिए किस प्रकार उपयुक्त माध्यम बनाया जाय। इस खोज में उन्हें आशाजनक सफलता भी मिल रही है।

हानिकारक गैसों की जानकारी बहुचर्चित और सर्वविदित है। जहरीले धुँए से दम घुटने-बंद कुँओं में भरी गैस में उतरने वालों के प्राण निकल जाने-दुर्गन्धयुक्त वायु से स्वास्थ्य को हानि पहुंचाने की घटनायें आये दिन सुनने को मिलती रहती हैं। युद्धों के समय जलने वाली बारूद के धुँए से महामारियाँ फैलती हैं। मारक गैसें युद्धास्त्र की तरह प्रयुक्त होती हैं। यह हानिकारक पक्ष है। उपयोगी गैसें वातावरण को शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए हितकर भी बना सकती हैं। यज्ञ से ऐसी ही प्राणवान गैसें उत्पन्न होती हैं।

आज का विज्ञान यद्यपि हानिकारक गैसें बनाना ही सीख पाया है, परन्तु विनाश की दिशा में चल रहे यह प्रयत्न उलटे भी जा सकते हैं और आत्मिकी के ज्ञाता ऐसे वायुमंडल का सृजन भी कर सकते हैं जिससे सुखद सँभावनाओं का जन्म हो सके। तत्वज्ञानी ऋषियों ने यज्ञ विज्ञान को अनेकों आध्यात्मिक लाभों के अतिरिक्त भौतिक दृष्टि से भी उपयोगी पाया और उसका महात्म्य बताया है।

रासायनिक विश्लेषण की दृष्टि से जायफल, जावित्री, चंदन, अगर, नागरमोथा जैसे पदार्थों में मनुष्य शरीर में पाये जाने वाले रोगों का निराकरण करने की क्षमता बताई गई है। सुगंधित तेल, गैसों का फेफड़ों की दृढ़ता पर अच्छा प्रभाव पड़ने की बात कही गई है। चरक संहिता (चिकित्सा स्थान) श्लोक, 122 के अनुसार जिस यज्ञ के योग से प्राचीन काल से राजयक्ष्मा रोग नष्ट किया जाता था। आरोग्य चाहने वाले मनुष्य को उसी वेद विहित यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये। इसी प्रकार ऋग्वेद की एक ऋचा है “मुच्चामि त्वा हविष्य जीवनाय, कमज्ञाद् यक्ष्मादुत राजयक्ष्मात्।” अर्थात् हे रोगी, तुझे क्षय तथा दूसरे अन्य रोगों से इस यज्ञ हवि द्वारा छुटकारा दिलाते हैं। यहाँ प्रयुक्त मंत्र के साथ शाकल्य का विशिष्ट होना महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए।

गायत्री उपासना-अनुष्ठानों में तो अग्निहोत्र को अनिवार्य रूप से जोड़ा गया है और कहा जाता है कि जप की दशाँश या परिस्थितिवश शताँश आहुतियाँ तो निश्चित रूप से दी ही जानी चाहिए। इसके प्रभाव से अन्नमय कोश को भेदकर ताप और मंत्र शक्ति को अंतराल में प्रविष्ट होकर प्राण शरीर और कारण शरीर के संशोधन को ऐसा सुयोग मिलता है जो पकड़ में न जाने वाले विषाणुओं और जन्म जन्मान्तरों के कुसंस्कारों को भी सुधारने लगता है। यह एक सफलतम चिकित्सकीय सिद्धान्त है।

यज्ञ विज्ञान की अपरिमित शक्ति और अपार महत्ता को देखते हुए ही ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में यज्ञोपैथी पर गहन अनुसंधान चल रहा है। विश्वास किया जाना चाहिए कि इस यज्ञ के दूरगामी परिणाम समूची मानवता को चमत्कृत और उपकृत करने वाले होंगे।


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