आमतौर से किसी मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्धारण उसके शारीरिक आकार-प्रकार, डील-डौल तथा पहनावे-औढ़ावे के आधार पर किया जाता है। परन्तु वास्तव में मनुष्य वह नहीं है, जो बाहर से दिखता है। वह तो मात्र बाह्य कलेवर की झलक झाँकी भर है जिसे महत्ता नहीं दी जानी चाहिए। मनुष्य के यथार्थ स्वरूप की पहचान उसके अंतरंग की उत्कृष्टता-निकृष्टता एवं चिन्तन, चरित्र व्यवहार को देखकर की जाती है। विचारणा, भावना एवं क्रिया-कलापों को देखकर ही उसके वास्तविक स्वरूप को जाना जाता है। मन में उठी विचारणायें ही बाह्य क्रिया-कलापों के रूप में दृष्टिगोचर होती हैं तथा उन कर्तृत्वों के आधार पर व्यक्तित्व का सही मूल्याँकन होता है।
स्वीडन के प्रख्यात मनोविज्ञानी कार्ल गुस्टाव जुँग को विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान का प्रणेता माना जाता है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “एनालिटिकल साइकोलॉजी” में उन्होंने मानव व्यक्तित्व को दो श्रेणियों में विभाजित किया है। पहला-बहिर्मुखी व्यक्तित्त्व तथा दूसरा अन्तर्मुखी व्यक्तित्व। उनके अनुसार जिस व्यक्ति का मानसिक विकास जितना अधिक होता है उसमें उतनी ही स्पष्टता से व्यक्तित्व की विशेषता दिखाई देती हैं। दोनों प्रकार के व्यक्तियों की रुचि, रुझान एवं कार्य प्रणाली में भारी अन्तर होता है। ये एक दूसरे से ठीक विपरीत स्वभाव के होते हैं। बहिर्मुखी व्यक्ति ललक-लिप्सा, विषय भोगों तथा पद-प्रतिष्ठा आदि की पूर्ति में उलझे रहते हैं जबकि अंतर्मुखी व्यक्ति का स्वभाव और आचरण ठीक इसके विपरीत देखा जाता है। इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए जुँग ने आगे बताया है कि बहिर्मुखी मनःस्थिति प्रायः ओछे व्यक्तित्व की परिचायक है। ऐसे व्यक्तियों का अपने मनोभावों पर नियंत्रण नहीं होता। थोड़े से उतार-चढ़ाव, उत्थान-पतन की स्थिति में ही वे अपना मानसिक संतुलन गँवा बैठते हैं। नैतिकता, सदाचार तथा आदर्श उनके चरित्र को छू भी नहीं पाते। यही कारण है कि ऐसे लोग प्रायः मनोविकारग्रस्त अथवा अपराधी प्रवृत्ति के होते हैं।
इसके विपरीत अन्तर्मुखी व्यक्ति बाह्य जगत को नहीं, वरन् अंतर्जगत को प्रधानता देते हैं। वे किसी वस्तु की आकर्षक बनावट के स्थान पर उसकी उपयोगिता को महत्व देते हैं। योजनाबद्ध तरीके से व्यवस्थित काम करने के अभ्यस्त ऐसे गंभीर लोग शाँत, एकाग्रता सम्पन्न एवं मितभाषी प्रकृति के होते हैं। विषम परिस्थितियों में भी अपना संतुलन गड़बड़ाने नहीं देते। उनके जीवन का परम ध्येय नैतिकता, सदाचार व आदर्श निष्ठ को अपनाना ही होता है। इसके लिए वह त्याग बलिदान या उत्कर्ष के लिए सदैव कटिबद्ध रहते हैं। उनके अन्दर सतत् प्रसन्नता, उल्लास व मस्ती की अजस्र धारा प्रवाहित होती रहती है। वह देवोपम जीवन जीते तथा अपनी विशेषताओं से अन्यायों का पथ प्रदर्शन करते हैं। स्वयं मुक्त होते तथा अपनी नाव पर बिठाकर असंख्यों को पार लगाते हैं।
जुँग ने अपनी दूसरी पुस्तक “साइकोलॉजिकल टाइम्स” में मानवी व्यक्तित्त्व एक अन्य विलक्षणता पर भी विशद् रूप से प्रकाश डाला है। उसमें उन्होंने दो भिन्न प्रकार के व्यक्तियों का वर्णन और किया है जिसमें से एक को विचार प्रधान श्रेणी में तथा दूसरे को भाव प्रधान श्रेणी में रखा है। पहले वर्ग में समाज के नेता, राजनीतिज्ञ आदि, दूसरे में कवि, कलाकार, दार्शनिक आदि आते हैं। उनके अनुसार दोनों वर्गों के जीवन में प्रायः साम्यावस्था का अभाव दिखाई देता है। जो व्यक्ति अपना सारा समय चिन्तन में व्यतीत करता है, किन्तु उसके भावों का विकास नहीं हो पाता। यही कारण है कि सामान्य से अप्रिय घटनाओं के उपस्थित हो जाने पर भी वे उद्विग्न हो उठते हैं। इसका कारण यह है कि अधिक विचार भावों का दमन करते हैं, जिससे वे अविकसित रह जाते हैं और समय-समय पर असामान्य व्यवहारों के रूप में प्रकट होते हैं। इसी तरह भावों की दुनिया में विचरण करने वाले-कपोल कल्पनाओं में निरत व्यक्ति विचारों की दृष्टि से बौने रह जाते हैं। इनमें अन्धविश्वास, रूढ़िवादिता अधिक पाई जाती है तथा दूरदर्शिता का अभाव होता है। सामान्यतया पुरुष विचार प्रधान और महिलाएँ भाव प्रधान होती हैं।
आमतौर से सामान्यजन बहिर्मुखी होते हैं और अपनी सार शक्ति चेतन मन के व्यापारों में लगा देते हैं इसके विपरीत जो व्यक्ति अपने अचेतन मन का जितना विकास कर लेता है उसी अनुपात से वह पूर्णता की ओर अग्रसर होता है। इस प्रक्रिया को जुँग ने आत्मस्थिति प्राप्ति की प्रक्रिया कहा है। उनका कथन है कि मनुष्य का प्रकट स्वरूप चाहे जैसा भी हो, उसे अपने अप्रकाशित स्वभाव की और भी ध्यान देना चाहिए, अन्यथा चेतन और अचेतन मन में द्वन्द्व होने लगता है और जीवन में अनेक बाधाएँ आ खड़ी होती हैं।
इस संबंध में प्रसिद्ध मनोविज्ञानी मार्टिन प्रिंस ने मानवी व्यक्तित्व का गहन अध्ययन एवं विश्लेषण किया है और अनेकों रहस्यात्मक तथा महत्वपूर्ण तथ्य प्रकट किये हैं। उनका कहना है कि मनुष्य के भीतर एक साथ कई प्रकार के व्यक्तित्व कार्य करते हैं। उनमें आपस में यदि सामंजस्य और सहयोग है, तो मनुष्य के विकास में असाधारण योगदान मिलता है। परस्पर असहयोग होने से विकास क्रम अवरुद्ध हो जाता है। फलतः विभिन्न प्रकार के दोषों के कुपित होने से रोगों का क्रम आरंभ हो सकता है।
मनोवैज्ञानिकों एवं मनःचिकित्सकों का कहना है कि अपने व्यक्तित्त्व को समुन्नत उत्कृष्ट बनाये रखने अथवा उसे छिन्न-भिन्न करने का जिम्मेदार स्वयं मनुष्य है। विभिन्न अनुसंधानों के आधार पर उनने अपने निष्कर्षों में बताया है कि प्रत्येक मनुष्य का मन जन्म के साथ ही अति सामर्थ्यवान एवं अंतर्मुखी होता है। वह भाव प्रधान भी होता है व बुद्धि की दृष्टि से ग्रहणशील भी। परन्तु प्रतिकूल प्रशिक्षण अथवा वातावरण के कुसंस्कारों के कारण उसकी यह आरंभिक स्थिति सुस्थिर नहीं रह पाती। क्रिया-कलाप एवं अनावश्यक चिन्तन के बोझ के कारण मन अपनी विलक्षणता को धीरे-धीरे गँवाता चला जाता है। इस प्रकार मनुष्य की चिंतन प्रक्रिया जनित विभिन्न सूक्ष्म संस्कार जमा होते रहते हैं और अचेतन मन का निर्माण करते हैं। यदि उनका स्तर निकृष्ट हुआ तो तदनुरूप व्यक्तित्त्व भी बनेगा और मन में भी विक्षोभ पैदा करेगा।
व्यक्तित्व को अंतर्मुखी बनाने -उत्कृष्टता से ओत-प्रोत भावसंवेदना प्रधान बनाने की कोई कला पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने अभी तक नहीं खोजी है। परन्तु भारतीय तत्वदर्शियों-आप्तपुरुषों ने इसका समाधान बहुत पहले ही ढूंढ़ लिया था। इसके लिए आर्ष ग्रन्थों में वित्ति संक्षेप सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है जिसमें सहज प्रस्फुटित होने वाली वृत्तियों का आरंभ से निरोध करने, उन्हें केन्द्रित करने की प्रेरणा दी गई है। उनका निर्देश है कि यदि वृत्तियों को भटकने न दिया जाय तो व्यक्तित्व में सुघड़ता आती और अतीन्द्रिय सामर्थ्य जाग्रत होती है। साथ ही वे सभी विभूतियाँ हस्तगत होती हैं जिन्हें पाकर मनुष्य सिद्ध पुरुष, महामानव बनता है और इसी जीवन में स्वर्ग एवं जीवन मुक्ति का आनन्द प्राप्त करता है। इसी के लिए ऋषियों ने जप, तप, योगाभ्यास आदि के विविध विधि उपक्रमों का निर्माण किया था जिनका आश्रय लेकर मन की चित्तवृत्तियों को नियंत्रित किया और अंतर्मुखी बनाया जा सकता है। यही वह पुरुषार्थ है जो आज की परिस्थितियों में प्रतिभा के परिष्कृत करने के हर आकाँक्षी से अपेक्षित है।