अनायास ही मिलने वाला श्रेय

March 1991

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आग का सामान्य स्वभाव गर्मी और रोशनी है जो वस्तु उसके जितनी निकट आती है, वह उसे प्रस्तुत परिस्थितियों के अनुसार जलाती है। जब तक जितना ईंधन जिस स्तर का रहता है, वह प्रज्वलन उसी स्तर का होता है। आग बुझ जाय तो ईंधन के रहते हुए भी ज्वलन क्रम बन्द हो जाता है। इसी प्रकार ईंधन कितना ही क्यों न हो, यदि आग जल न रही हो, तो फिर सब कुछ जहाँ कहाँ पड़ा रहने पर भी जलने जैसा कोई उपक्रम दीख न पड़ेगा।

आग और ईंधन के मिलन से प्रज्वलन होता है-यह तथ्य यथावत् रहते हुए भी उस सम्मिलन की प्रक्रिया में यही अन्तर रहता है - लकड़ी गीलेपन समेत जलाई जाए, तो उसमें से धुँधला धुँआ भर निकलता और जलता बुझता रहेगा। इसके विपरीत सूखा ईंधन यदि भीतर तक हवा पहुँचने की स्थिती का हो, तो तेज आग जलेगी, जल्दी फैलेगी और ज्वलन भी वेगवान होगा। इन भिन्नताओं के कारण आग और ईंधन के मिलने पर लपट उठने के सिद्धान्त में बहुत कुछ अन्तर देखा और पाया जायेगा।

पेट्रोल या गैस हवा के साथ मिलकर एक चिंगारी भर से भक् जल जाती है और देखते-देखते बड़े क्षेत्र को अपने प्रभाव परिकर में लपेट लेती है। बारूद में मिले रसायनों के अपने-अपने गुण हैं। आतिशबाजी जलने पर अपने चित्र-विचित्र रंग-रूप दिखाती और अपने ढंग के मनोरंजक स्वरूप धारण करती है। आग्नेयास्त्रों के साथ संपर्क बनने पर उसकी प्रतिक्रियाएँ अलग-अलग तरह की होती हैं। बन्दूक के कारतूस और तोप के गोलों की शक्ति अलग-अलग तरह की उठती है। ‘डायनामाइट’ की कारतूस पहाड़ के चट्टानों को उड़ा देती है, मजबूत किले के धुर्रे बिखेर देती है। मुर्दा जलते समय वही आग अपनी परिधि को विषैले धुएँ से भर देती है। इसके विपरीत यदि चन्दन या कपूर आदि को जलाया जाय, तो उसकी मन-भावन सुगंध उठती है। पुआल में लगने पर वह तेजी पकड़ती जाती और दूर-दूर तक देखते-देखते फैल जाती है। इसके विपरीत गीला और मटमैला ईंधन ज्यों-त्यों करके थोड़ा-थोड़ा करके जलता और धुआँ बिखेरता रहता है।

आग के अपने गुण हैं, ईंधन के अपने। मोटी प्रतिक्रिया मिलने पर जलने की ही होती है, पर पदार्थों और परिस्थितियों के अनुरूप उस ज्वलनशीलता में असाधारण स्तर का अन्तर पाया जाता है।

मनुष्य के शरीर में एक तरह की और चेतना में दूसरे तरह की शक्ति रहती है। शरीर जीवनी शक्ति को धारण किये रहता है, जिसके सहारे अनेकों अंग और कल-पुर्जे चलते और अपना-अपना काम करते रहते हैं। गर्मी उसी के सहारे बनी रहती है और काम करने की क्षमता का उद्भव उसी से होता है। बलिष्ठता उसी पर निर्भर है। रोगों से लड़ने की शक्ति भी उसी में रहती है। इसमें कमी पड़ने पर अनेकों प्रकार की दुर्बलता और आ घेरती है।

चेतना मन की शक्ति, हिम्मत,साहस की जन्मदात्री है। ओजस्, तेजस्, और वर्चस् भी उसी की देन है। यदि यह न रहे, तो जीवित रहना भी कठिन और असंभव हो जाय। बौद्धिक प्रखरता भी इसी के बल पर मिलती है। मनोबल, आत्मबल चेतना की ही प्रखरता के गुण हैं। दोनों उपरोक्त शक्तियाँ यदि अक्षुण्ण रहे, तो ही मनुष्य जीवित या सशक्त रह पाता है।

यह शारीरिक और मानसिक प्रयोग है। आध्यात्मिक शक्ति इससे आगे एवं ऊपर है। उसका संबंध न केवल शरीर एवं मस्तिष्क से है, वरन् अदृश्य जगत में संव्याप्त दैवी सत्ता के साथ भी वह अपना संबंध जोड़ती है। देवी-देवताओं के नाम से भी उन्हीं विशेषताओं को भागो-उपभागों को संबद्ध समझा जाता है। परब्रह्म यही है। ईश्वर, भगवान, स्रष्टा आदि भी इसी के नाम हैं। विश्व-ब्रह्माण्ड में संव्याप्त होने के कारण इसी को विश्व-चेतना भी कहते हैं। यह थोड़ी मात्रा में तो सभी में होती है, पर इसकी विशेष मात्रा योग, तपस्वी अपनी विशिष्ट साधना के बलबूते अर्जित करते हैं। इसी के अनुपात से कोई देवात्मा, महामानव, सिद्ध पुरुष आदि बन सकता है। जिस प्रकार पतंग के पतले धागे में भी कभी-कभी कारणवश विद्युत प्रवाह आ जाता है, या उसे प्रयत्नपूर्वक आकर्षित - अर्जित कर लिया जाता है, उसी प्रकार मनुष्य में दैवी शक्तियों का समावेश भी हो जाता है। यह बड़ी मात्रा में होती है, तो उसे व्यक्तित्व की असाधारण मात्रा में देखा पाया जाता है। दिव्य व्यक्तित्व इसी के सहारे उपलब्ध या विकसित होता है, किन्तु अतिरिक्त प्रयत्न करने पर दोनों के बीच घनिष्ठता भी उत्पन्न हो जाती है और परस्पर का आश्चर्यजनक आदान-प्रदान भी आरंभ हो जाता है।

ब्रह्माण्ड में अगणित शक्तियों के भंडार भरे पड़े हैं उनमें से जितने अपने लिए पृथ्वी आवश्यक समझती है, उतनी ध्रुव केन्द्र के माध्यम से खींचती और धारण करती है। जो अनावश्यक है, बहिष्कृत कर दी जाती है। इस प्रकार जिस मनुष्य ने अपने सूक्ष्म अन्तःकरण को जितना परिष्कृत बना लिया है, वह उतना ही दैवी अंश अदृश्य जगत से अपने लिए आकर्षित कर लेता है। उसमें उतने ही बढ़े-चढ़े दैवी अंश पाय जाते हैं। उच्चस्तरीय शक्ति-स्त्रोत यही हैं। इसकी तुलना में शारीरिक जीवनी शक्ति और मानसिक विलक्षणता नगण्य है। उसमें उतना ही अंश पाया जाता है, जितना की अन्तराल में धारण कर सकने की विशिष्ट क्षमता होती है। इसे प्रयत्नपूर्वक अर्जित करना पड़ता है। साधना इसी प्रयत्नशीलता को कहते हैं।

उच्चकोटि के साधकों में जो कतिपय दिव्य शक्तियाँ पायी जाती हैं, वह उनके अपने साधना प्रयत्नों द्वारा अर्जित की हुई होती हैं। तपस्वी इसी प्रयत्न में लगे रहते हैं। योगियों का पुरुषार्थ इसी उपार्जन-अर्जन के लिए होता है। ऋषि, ब्रह्मर्षि, राजर्षि, देवर्षि इसी स्तर की क्षमता अपने भीतर अत्यन्त कष्टसाध्य प्रयत्नों द्वारा अर्जित करते हैं। जो जितनी, जिस स्तर की सफलता प्राप्त कर लेता है, वह उतने ही बढ़े-चढ़े स्तर का सिद्ध पुरुष बन जाता है।

मनुष्य कलेवर में सीमित मात्रा में विशेष शक्ति धारण करने की क्षमता है। शरीर की धारण शक्ति एक सीमा तक है। खेलों में कीर्तिमान स्थापित करने वाले इसी का परिचय देते हैं। पहलवानों, बलवानों, योद्धाओं,बलिष्ठों में इसी का बाहुल्य देखा जाता है। मानसिक बल की भी एक सीमा है। बुद्धिमान, मेधावान, विशेषज्ञ, विद्वान, मनीषी इसी धन के धनी होते हैं। कभी-कभी उनमें अतीन्द्रिय क्षमताएँ भी पायी जाती हैं। आधुनिक परामनोविज्ञान के अंतर्गत दूरदर्शन, दूरश्रवण, भविष्यज्ञान, प्राण प्रत्यावर्तन जैसी विशेषताएँ इसी आधार पर अर्जित करते देखी गई हैं। मानवी विद्युत के कई प्रकार के चमत्कार कितने ही लोगों में देखे गये हैं। यह भी इसी क्षमता का परिचय है।

ऊपर आँख उठा कर देखने से नीला-पीला आकाश दीख पड़ता है, इसकी परिधि कितनी बड़ी है, यह साधारण आंखों से या मोटी बुद्धि से नहीं समझा जा सकता। फिर भी वह इतना विस्तृत है कि उसे अकल्पनीय ही कह सकते हैं। साधारण समझ के अनुसार यह खाली दिखाई पड़ता है। जहाँ-तहाँ चाँद, तारे, गैसें, ग्रह-पिण्ड चमकते दिखाई पड़ते हैं, किन्तु उनकी भी एक सीमा है। जितने तारे दीखते हैं, उससे करोड़ों गुना वे हैं, जो आंखों की पकड़ में नहीं आते और सदा अदृश्य ही बने रहते हैं। दीखने में पोला या खाली दीखने वाला यह आकाश भी सर्वथा शून्य नहीं है। इसमें एक से एक बढ़ कर चमत्कारी शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। एक्स-रे, अल्ट्रावायलेट, लेजर, रेडियो तरंगें, ईथर आदि का बड़ा शक्तिशाली भंडार इस पोले आकाश में भरा पड़ा है। यदि उसे नापा-तौला जा सके, तो उसका भरमार उससे कही अधिक बैठेगा, जितना कि इस अपनी दृश्यमान पृथ्वी की देन समझा जा सकता है।

जो वस्तुएँ खुली आंखों से नहीं देखी जा सकती, उसे सामान्य बोल-चाल में सूक्ष्म कहते हैं। दृश्यमान पदार्थों में से बहुत थोड़ा ही आंखों से दीख पड़ता है, शेष ऐसे हैं, जिन्हें अत्यन्त सूक्ष्मदर्शी यंत्रों में से ही किसी मात्रा में देखा-समझा जा सकता है। यह अदृश्य प्रतीत होते हुए भी स्थूल जगत की परिधि में आता है। पदार्थ इस संसार में जितना दृश्य है, उससे करोड़ों-अरबों गुना अदृश्य है। इतने पर भी उसे हम कदाचित् ही किसी सीमा तक देख-समझ पाते हैं।

सूक्ष्म पदार्थ जगत की तरह सूक्ष्म चेतना जगत का भी उससे भी विशाल सूक्ष्म जगत है सचेतन। इस समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड में अदृश्य चेतना भी भरी पड़ी है। इसे सचेतन स्तर का सूक्ष्म जगत कहते हैं। यही विराट् ब्रह्म है। इसकी विशेषताएँ और विचित्रताएँ इतनी हैं कि उसकी आँशिक कल्पना कर सकना भी कठिन है परब्रह्म या विराट् ब्रह्म यही हैं। इसी विशाल सूक्ष्म चेतना जगत के मनुष्य की प्राण-चेतना का भी एक बहुत छोटा अंश रहता है। जिस प्रकार विशाल समुद्र में छोटे-छोटे असंख्य जल जन्तु रहते हैं, ठीक उसी प्रकार विराट् ब्रह्म के अंतर्गत भी मनुष्य में विद्यमान चेतना भी अणु-परमाणुओं के रूप में किसी प्रकार अपनी सत्ता बनाये हुए है। आमतौर से उसमें से उतना छोटा अंश लोगों के परिचय में आता है, जो शरीर अथवा मस्तिष्क की हलचलों के निमित्त काम आता है। इससे भीतर अन्तःकरण या कारण सत्ता है। इसे जीवधारी या आत्मा कहते हैं।

यों पृथक-पृथक लोगों ने आत्मा के परमाणु अलग-अलग स्तर के बताये हैं। इतने पर भी वे एक विराट् ब्रह्म के छोटे-छोटे घटक हैं, साथ ही इतनी सघनतापूर्वक जुड़े हुए भी हैं कि एक-दूसरे को असाधारण रूप से प्रभावित करते हैं। एक दूसरे को आवश्यक एवं अभीष्ट मात्रा में क्षमता का आदान-प्रदान भी करते हैं। जिस विशेष क्षेत्र में यह हलचल चलती है, उसे अदृश्य अथवा सूक्ष्म जगत कहते हैं। इसमें अनेकों अदृश्य जीवधारी भी रहते हैं, जिन्हें भूत, प्रेत, देव, दानव आदि नामों से जाना जाता है। जिस प्रकार दृश्य जगत के प्राणी पारस्परिक सहयोग या विद्वेष करते हैं, उसी प्रकार सूक्ष्म चेतना, सचेतक जगत के घटक भी परस्पर चित्र-विचित्र स्तर का पारस्परिक संबंध बनाये रहते हैं। इस सचेतक सत्ता का जिसमें जितना अधिक अंश किसी प्रकार बढ़ जाता है, वह महामानव दैत्य मानव बन जाता है। यदि यह शक्ति सात्विक स्तर की हो, तो उसे देवत्व कहा जाएगा और यदि वह असुरता प्रधान हो, तो फिर उसे दैत्य और दानव स्तर का कहा जाएगा। दोनों में ही साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अतिरिक्त स्तर की असाधारण शक्ति पायी जाती है। इसलिए उनका कर्तृत्व जनसाधारण की तुलना में कही अधिक बढ़ा-चढ़ा और विशिष्ट, बलिष्ठ, अद्भुत एवं चमत्कारी भी होता है।

मनुष्य विशेष की तरह परब्रह्म सत्ता की भी समय-समय पर अपनी इच्छाएँ और योजनाएँ उभरती हैं। सृष्टि का संतुलन बनाये रहना ही उसका प्रधान उद्देश्य होता है। इस प्रयोजन के लिए वह कई प्रकार के निर्माण, अभिवर्धन एवं परिवर्तन भी करती रहती है, पर उस कर्तृत्व की प्रक्रिया विलक्षण होती है। व्यापक सत्ता का कोई आकार नहीं हो सकता। उसके अंग अवयव भी नहीं होते। उपकरणों से भी वह सिद्ध नहीं होती। इसके बिना कोई दृश्यमान क्रिया-प्रक्रिया बन कैसे पड़े? इसलिए सूक्ष्म जगत के विशिष्ट कार्य भी जब दृश्यमान स्तर पर सम्पन्न करने होते हैं, तो उसके लिए परब्रह्म को भी मनुष्य शरीर का आश्रय लेना पड़ता है क्योंकि इस विशाल विश्व में मात्र मनुष्य शरीर ही एक ऐसा है, जो दैवी चेतना के अनुरूप कोई क्रिया-प्रक्रिया कर सकने में समर्थ है, स्थूल और सूक्ष्म जगत का संचालन करने वाली परब्रह्म सत्ता की किसी इच्छा या अपेक्षा में योगदान दे सकता है।

इस स्तर के मनुष्यों को देवात्मा कहते हैं। मानवी संरचना वाले यह देव पुरुष पर ब्रह्म की आशा एवं योजना के अनुरूप आवश्यक प्रयोजन पूरा करने में समर्थ होते हैं। दिव्य मानव, सिद्धपुरुष, अवतार, देवदूत नाम से इन्हें ही जाना जाता है। भगवान अपने सामयिक अभीष्ट प्रयोजन विकासक्रम में मनुष्य स्तर की पूर्णता प्राप्त होने के इन शरीरों से ही पूरे कराते रहे है। जिन दिनों पृथ्वी पर सतयुग का वातावरण था, उन दिनों सृष्टि संतुलन की अनेकानेक महत्वपूर्ण प्रक्रियाएँ ऋषि स्तर के समर्थ व्यक्तित्वों द्वारा भी सम्पन्न होती रही हैं।

इन दिनों असामान्य समय है। एक ओर जहाँ असंतुलन का बोल बाला है, भटकावजन्य दुर्गति दीख पड़ती है, वहाँ दूसरे ओर परिवर्तन की प्रक्रिया पलक झपकते सम्पन्न होते दिखाई देने लगी है। निश्चित ही अगले दिन ऊँचे उठने और उठाने के है। उसमें जिनकी भूमिका हो सकती है, उन्हें देवदूतों की गणना में सम्मिलित किया जाना चाहिए। यों ऐसे कितने काम हैं जिनमें निजी विवेक के अतिरिक्त ईश्वरीय अनुग्रह भी सम्मिलित होता है। इस समन्वय से उत्पन्न शक्ति का पारावार नहीं रहता। शक्ति हाथ में हो तो श्रेय मिलने में कठिनाई नहीं पड़ती। भावना में प्रखरता हो तो परिस्थितियाँ दुर्बल होते हुए भी सफलता का सुयोग बन जाता है। जो भगवान के साथ जुड़ने का प्रयत्न करते हैं, उनके साथ भगवान भी गज और ग्राह जैसी भूमिका निबाहने के लिए दौड़ा आता है, यह तथ्य सदैव स्मरण रखा जाना चाहिए।


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