नव युग का आधार-स्तम्भ बनेंगे-लोक शिक्षक

March 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

खण्डहर ढहाने-गिराने वाले मजदूरों के बाद उन महाशिल्पियों की ढूँढ़ खोज शुरू होती है, जो नई भव्यता मूर्त कर सकें। मजदूरों का काम सरल है। इसमें न किसी तकनीक की जरूरत है और न योग्यता की तलाश। बनाने वालों के बारे में यह बात नहीं। उनकी कुशल-कारीगरी जाँचे-परखे बगैर निर्माण परिसर में घुसने तक की इजाजत नहीं मिलती। तोड़ने का क्या? कौन मन चला कब तोड़-फोड़ मचाने लग जाय। समाज और सामाजिकता का खण्डहर आज अपने ध्वंस के अन्तिम क्षणों में है। ध्वंस के अन्तिम क्षणों का मतलब है-निर्माण के आरम्भिक क्षण। जिसमें नई भव्यता की कारीगरी शुरू होनी है। ऐसे में उन शिल्पकारों की तलाश स्वभावतः अनिवार्य हो जाती है, जो इस नए निर्माण की मजबूत नींव चिनने के साथ चमचमाते कँगूरों को सँवारें।

भवितव्यता की इस उज्ज्वल भव्यता के इन वास्तुकारों का लोक प्रचलित नाम है, ‘शिक्षक’। इस शब्द ने अब तक अनेकों भावों को उभारा और समेटा अथवा यों कहा जाय-कि इसमें अपनी-अपनी मर्जी के मुताबिक अर्थों-भावों का आरोपण-प्रतिरोपण हुआ। इस आरोपण के घने आवरण में ढके मूल उत्सडडडडड को कहाँ तक समझा अपनाया गया इसमें सन्देह है, सन्देह की पुष्टि करते हुए अध्येता पाल गुडमैन ने एक किताब लिखी है “ग्रोइंग अप एब्सर्ड।” इसमें उनने कहा है कि मनुष्य जाति ने जिन-जिन सुविधाओं की आकाँक्षा की थी, वे सब पूरी हो गई। मनुष्य जाति ने जो-जो सपने देखे थे, वे भी लगभग पूरे हो चुके हैं। इतने पर भी आज जैसी दारुण व्यथा कभी नहीं रही। इसकी तीव्रता में कमी की जगह दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ोत्तरी होती जा रही है। कारण में गुडमैन का मानना है-सुविधाओं के अम्बार में मनुष्यता के शिक्षक दब गए, मनुष्य जाति की दुःख संहारक सेना समाप्त हो गई। शिक्षकों की भारी भरकम तादाद देखते हुए सम्भव है गुडमैन का कथन अविश्वसनीय लगे। किन्तु विचारों की शल्यक्रिया से तथ्य स्वयमेव उभर कर सामने आ जाता है।

यूरोपियन रहस्यवादी मेस्टर एकहार्ट कहते हैं शिक्षक वह व्यक्ति है, जिसने जीवन सिद्धान्तों का विचार और व्यवहार में एकात्म स्थापित किया। विचारों की व्यवहारिक अनुभूति के साथ उसके लिए जरूरी है बौद्धिक और भावात्मक संप्रेषण शैली। इनके बिना शिक्षण की सम्भावना नहीं। बौद्धिक भावात्मक दो आदितम मानवी भाषाएँ हैं, जिन्हें मानव ने अपने अस्तित्व के उद्गम से अपनाया है और चिर अनन्त तक अपनाता रहेगा। अतएव आवश्यक है सीखने वाला द्विभाषाविद् हों। पर भाषा जानने भर से तो काम नहीं चलता जब तक अनुभूति का प्राण न हो। जहाँ ये प्राण नहीं वहाँ शिक्षण नहीं। तब फिर आज की जमात? चौंकाने वाले इस सवाल का जवाब सहज है। ये उदरपूर्ति के लिए नौकरी करने वाले श्रमिक हैं, जिनकी निष्ठ शिक्षण में नहीं सुखोपभोग पर टिकी है। किसी कारणवश यदि कोई ऐसा अवसर आ टपके जहाँ साधन सुविधाएँ ज्यादा है, तो ये यहाँ से वहाँ चले जाएँगे।

मननीय तथ्य है कि शिक्षक कोई पद नहीं यह विकसित व्यक्तित्व की विशेष अवस्था है। इन्हीं विशिष्ट व्यक्तित्वों ने मानव की अनगढ़ भीड़ को समाज का स्वरूप दिया। भीड़-झुण्ड को समाज नहीं कहा जा सकता। इसका अपना विशिष्ट स्वरूप है। जिसके साथ शिक्षक के अंतर्संबंध गहनता से जुड़े हैं। इन्हें दोनों के स्वरूप से सुपरिचित हुए बिना नहीं पहचाना जा सकता। व्यक्ति की तरह शरीर का हर कोष अपने में स्वतंत्र सत्ता है। श्वसन से लेकर उत्सर्जन तक सारी क्रियाएँ उनमें होती हैं। इतने पर भी अकेले कोष अथवा कोषों की भीड़ को शरीर नहीं कहा जा सकता है। समान रचना व उद्देश्य वाले ये कोष ऊतक बनाते हैं। ऊतक इसी सिद्धान्त को स्वीकार कर अपने को अंग में बदलते हैं। अंगों की उद्देश्य समता शरीर का निर्माण करती है। इस बृहदाकार निर्माण के हर कदम पर समता का आलोक है जिसके बगैर मंजिल नहीं। व्यक्ति की भी समता के कई सोपानों से गुजर कर समाज का ढाँचा गढ़ा गया है। समाज (सम-ज) शब्द अपने में इसी अर्थ और भाव को छुपाए है। समता से जिसका जन्म हुआ वह समाज। जिसने समता से जन्म लेकर एकता पाई है उसका महान उद्देश्य भी समता और एकता है।

उत्कृष्टता के उत्कर्ष की विभूतियाँ ही नहीं स्वीकार हो गई। “संगच्छध्वं -संवदध्वं संवो मनाँसि” के प्रबलतम पुरुषार्थ के बाद ही सम्भव हो सका। संज्ञान सूक्त के इन मन्त्रों को ऋषि स्पष्ट करता है “समानो मंत्रः समितिः समानी “ तब बन पड़े जब “समानंमनः सहचित्त मेषाम” की कला साधी गई। शिक्षक भी थे वे प्रबल पुरुषार्थी जिन्होंने मोटे-महीन, छोटे लम्बे सब तरह के धागों को मिलाकर अम्बर जैसी चादर बुन डाली। अन्यथा मानव भेड़-बकरियों के झुण्ड से अधिक न होता।

विचारक वह स्तर है जहाँ विचारों का शोध होता है, समस्या के समाधान उपजते हैं। इस शोध को भली प्रकार समझ, स्वानुभव के आधार पर जो दोनों भाषाओं को अनेकों में समझा सके। सिद्धान्त और व्यवहार दोनों में समर्थ हो वह शिक्षक। जिसने अनुभूति का व्यवहार में क्रियान्वयन किया वह है लोकसेवी। मोटे तौर पर इन्हें डिजाइनर,इंजीनियर और मजदूर की भाँति समझा जा सकता है। इंजीनियर आवश्यक नहीं डिजाइनर हो पर उसे डिजाइन को समझना जरूरी है अन्यथा मजदूर को कौन समझाएगा? उसे मजदूर को समझाने के लिए मजदूर भी बनना पड़ता है। आवश्यक हो जाता है उसे डिजाइन और मजदूर दोनों की भाषाओं का ज्ञान। इसी तरह शिक्षक के लिए जरूरी नहीं वह विचारक हो किन्तु उसे विचारों को समझने वाला जरूर होना चाहिए। साथ ही वह क्षमता जिससे लोकसेवी तैयार कर सके।

आज जो समस्याओं की हुँकार-मानवीयता का करुण रव सुनाई पड़ रहा है-उसके पीछे सत्य इसी अनूठी कड़ी का टूटना है। जब मन ही समान और एक नहीं तब साथ-साथ कदम बढ़े तो कैसे? ऐसी दशा में घर के आँगन, देश के प्राँगण और वसुधाव्यापी प्रसार में विभाजन की रेखाएँ बँटवारे की दीवारें न खिंचेंगी तो और क्या होगा? नृतत्वशास्त्र के आख्यान बताते हैं कि मानव को अपनी उत्पत्ति के साथ यह दुःख भोगना पड़ा। उसमें और आज के मानव में अन्तर इतना भर है कि आज वह अलग हो रहा है, पहले परिस्थितियों के कारण अलग था। अलगाव और अकेलेपन की पीड़ा बड़ी मर्मान्तक है। इससे उबरने के लिए झुण्ड पनपे जो समूह में बदले। इनका रूपांतरण परिवारों में हुआ और इन परिवारों की जुड़ती कड़ियों ने समाज बनाया।

सिस्टर निवेदिता के चिन्तनकोष “द बेस ऑफ इण्डियन लाइफ” के अनुसार निर्माण के प्रारम्भिक दौर में विचारक, शिक्षक, लोकसेवी यहाँ तक कि व्यवस्थापक, प्रशासक तक के सारे दायित्व एक को ही निभाने पड़े। ए. जोली. अपने शोध निबन्ध “द ओरिजन ऑफ सोसाइटी” में इसी मत का समर्थन करते हैं। मेसोपोटामिया, सुमेर, मिश्र आदि प्रागैतिहासिक समाजों का हवाला देते हुए उनका कहना है कि मनुष्यता के उदय के साथ शिक्षक का उदय हुआ जो अपने समूह में सर्वोपरि था। उसी के मार्गदर्शन में समाज का ढाँचा बना गढ़ा। भारत के आदि शिक्षक प्रशासक विचारक मनु महाराज थे। फैलाव के साथ तन्तुओं में उलझन बढ़ी। निपटने के लिए दो विभाग हुए। एक ने विचार और शिक्षण सम्भाला-दूसरे ने व्यवस्था और लोक सेवा। लेकिन विस्तार की जटिलता कहीं मिले मन को तोड़ न दे। नए मन जो मिल रहे हैं, वह एकात्मता के भाव को सही ढंग से सीख सकें जीवन सही ढंग से चल सकें। इस भाव के कारण पुनः कार्य बँटा, विचारक और शिक्षक अलग-अलग हुए। विचारों की शोध और लोकसेवियों का निर्माण एकाकी सामर्थ्य में न रहा। फिर भी ऐसा नहीं कि विचारक ने शिक्षण समाप्त कर दिया। शिक्षण तो उसने किया पर लोक शिक्षणों का। विचारक व्यास द्वारा सूत शौनक जैमिनि जैसे अनेकों लोक शिक्षकों का निर्माण, वैशम्पायन द्वारा याज्ञवलक्य की गढ़ाई, जिन्होंने लोक सेवी जनकों की परम्परा चला दी। सनत्कुमार ने नारद के लोक शिक्षण को जन्म दिया जिससे अगणित लोकसेवी उपज पड़े, आदि अनेकों उदाहरण हैं। प्रशिक्षित लोक शिक्षकों द्वारा गढ़े गए लोकसेवियों ने व्यवस्था और प्रशासन सँभाला। तंत्र इतना मजबूत बन गया कि विशालता और जटिलता की खींचतान के बावजूद समाज रूपी चादर फटी नहीं बल्कि बढ़ी-चढ़ी। विशालता को ढ़कने के लिए विशालतर-विशालतम होती चली गई।

लोक शिक्षक ने जो गरिमापूर्ण दायित्व सँभाला उसे निभाना सहज न था। सिद्धान्तों की फूट-दुरूह भाषा को व्यवहार में भावगम्य बनाना। विचारकों की दार्शनिक शैली को-लोक जीवन में उतारना। साथ ही प्रभाविकता अपनी इस चरम प्रखरता तक बनी रहे-ताकि लोक जीवन सागर का मन्थन अगणित लोकसेवी रत्नों को उड़ेलता-उमगाता रहे। यही समस्या शिक्षण शैलियों का उद्गम बिन्दु बनी। कथा शैली और प्रवचन, ब्राह्मण और साधु का विकास यहीं हुआ। लोक शिक्षकों के कर्तृत्व के दोनों रूप आज हमें पौराणिक संकलन और उपनिषदों के रूप में दिखाई देते हैं।

वैदिक भारत के अलावा परवर्ती काल में तथा अन्य देशों में लोक शिक्षक और लोक शिक्षण का यही स्वरूप दिखाई पड़ता है। बौद्धों में जहाँ एक ओर जातक कथाएँ है वहीं दूसरी ओर शून्यवाद की जटिल मीमाँसा। जैन कथाओं और स्याद् वाद की जवचारणा इसी का रूप है। ईसा का वचनामृत कहानियों से भरापूरा है-बाद के समय में दार्शनिकता की भरमार कम नहीं मिलती। ताओ-शिन्तों, किन्हीं भी मतों और किन्हीं भी क्षेत्रों में दृष्टिपात करें लोकशिक्षण का वैदिक ढांचा थोड़े बहुत बदले रूप में नजर आता है।

आर्यभूमि की जो संस्कृति अपने यौवन में विश्वभर में प्रचलित प्रतिष्ठित हुई। उसका निर्माण यों ही नहीं हो गया। निर्माण के दौर में किन-किन पेचीदा-उलझनों से गुजरना पड़ा। इसे सुलझाने में श्रम सीकारों की जो मन्दाकिनी बही उसे देखकर आश्चर्यभूत होना पड़ता है। रक्तवाही नलिकाओं की तरह फैलाई गई साँस्कृतिक ऊर्जा के संवहन तंत्र में शिक्षक ने ही हृदय की भूमिका निभाई है। विचारक ने भले मस्तिष्क की तरह संकेत दिए हों पर लोक जीवन की आपदा-व्यथा की धड़कने उसी का जीवन की रहा है। कहीं कोई जीवन अंग प्राण संचार के अभाव में सूख तो नहीं रहा। लोक सेवा रूपी श्वेत रक्त कण क्षय तो नहीं हो रहे। किस की कब और कैसे साज-सँभाल करना है इसी व्याकुलता को अपना अस्तित्व मान-शिक्षक ने जीवन जिया।

बात अकेले भारत की नहीं जहाँ भी संस्कृतियाँ पनपी सभ्यताएँ मुखर हुई हैं। उनको प्राण इन्हीं से प्राप्त हुए हैं। अरब सभ्यता इब्नेसिना अलबरूनी जैसे अनेकों की रचना कुशलता झिलमिलाहटें नजर आती हैं। यूनान को उत्कर्ष के तंगशिखर पर प्रतिष्ठित करने में सुकरात, प्लेटो, जेनो, एपीक्यूरस की पीढ़ियाँ रही हैं। अरस्तू के बिना हम सिकंदर के अस्तित्व की कल्पना नहीं कर सकते। अरस्तू उसका शिक्षक था, शिक्षक का महत्व उसे पता था तभी तो उसने कहा “तुम भारत जा रहे हो वहाँ से यदि ला सको तो शिक्षक लाना।” सोना-चाँदी-जवाहरात नहीं शिक्षक की माँग। रोम की जिस महान सभ्यता का गुणगान अंग्रेजी और लैटिन के काव्यों में पढ़ते हैं वह सिसरो जैसे न जाने कितनों के श्रम ने बनाई-अकेला सीजर बेचारा क्या करता यदि सुगढ़ जनमानस विनिर्मित न होता। इटली की आस्था दाँते ने विनिर्मित की। ईसाइयत का जो उत्कर्ष हम देखते हैं उसकी जड़ों में आगस्टिन, अन्थोनी, एकहार्ट जैसे न जाने कितनों का प्राण है।

यह प्राण जहाँ-तहाँ सूखता गया वहीं की संस्कृतियाँ नष्ट होती चली गई, लोक जीवन मुरझाता चला गया। “डैन्जरस सी” नामक विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ में इसका ब्योरेवार खुलासा है। भारत के लोक शिक्षण तन्त्र में महाभारत काल से विकृति आनी शुरू हुई थी। चाणक्य, बुद्ध, शंकर, रामानुज इसमें तन्तु जाल का नवीनीकरण करने की अगाध चेष्टा में लगे रहे। चाणक्य की तो इतनी निष्ठ थी कि वृहत् भारत के प्रधानमंत्री का पद पूर्व मंत्री राक्षस को सौंपकर लोकशिक्षण का तन्त्र गठित करने में जुट गया।

इन प्रयासों के बावजूद लोक शिक्षकों की व्यापक सेना तो नहीं तैयार हो पाई,किन्तु प्रयत्न ऊर्जा ने महान परम्परा को जीवित अवश्य रखा। इसी का प्रभाव है कि जिस ऋषि संस्कृति की विरासत का दावा हम करते हैं उसकी श्वास-प्रश्वास चल रही है।

समय का बहाव मनुष्य को चेतन-अचेतन, अर्धचेतन रूप में यहाँ तक बहा लाया है। इस समय जो कुछ हो रहा है उससे सभी अवाक् हैं। जो सचेतन हैं, वे महाकाल द्वारा किए जा रहे समय सागर के प्रबल मंथन को देख रहे हैं। अब, जबकि समय झकझोर-झकझोर कर उठा रहा है, लगातार “तस्मात् युद्धस्व भारत” के स्वर उठ रहे हैं। मंथन की प्रचण्ड उर्मियों से एक ओर जहाँ भीषण रव मचा है तीव्र हलचलें उठ रही हैं, वहीं दूसरी ओर एक पर एक मानव रत्न छिटक-छिटक कर उभरते और महाकाल के कण्ठहार की मणियों में स्थान पाते जा रहे हैं। यही जगमगाता परिकर लोकशिक्षकों के विशाल तन्त्र में गठित होगा। इन महाशिल्पियों की कुशल कला पुनः समाज, सामाजिकता, जीवन मूल्यों की नवीन वसुधा व्यापी भव्यता का निर्माण करेगी। इन युग निर्माताओं में हमारा अपना भी स्थान हो, इसे सोचने और आ मिलने के क्षण अभी हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118