जाग उठे अवाँछनीयता उन्मूलन हेतु सत्साहस

March 1991

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संसार में बहुत कुछ ऐसा है जो श्रेष्ठ है और जिसे प्रयत्नपूर्वक बढ़ाया जाना चाहिए। पर साथ ही ऐसा भी कम नहीं जिसे निरस्त किये जाने की आवश्यकता है। खेतों में अनाज के साथ-साथ खर-पतवार भी उग पड़ता है। जहाँ पौधों को सींचने, रखवाली करने की आवश्यकता पड़ती है वहाँ यह भी ध्यान में रखना पड़ता है, कि खरपतवार की, कृमि कीटकों की बाढ़ उसे समाप्त न कर दे और सारे प्रयत्नों को मटियामेट न बना दे। शुभ के परिपोषण और अशुभ के उन्मूलन की आवश्यकता समान रूप में बनी रहती है।

सज्जा सजाने के साथ-साथ दौड़ती चली आ रही गंदगी को भी बुहारने हटाने की आवश्यकता पड़ती है। भोजन ग्रहण के साथ साथ मल विसर्जन की भी व्यवस्था बनानी पड़ती है, भले ही वह अरुचिकर क्यों न हो। हमारा दृष्टिकोण औचित्य के परिपोषण का पुण्य परमार्थ अर्जित करना तो होना ही चाहिए, पर साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आक्रमणकारी तत्वों की ऐसी घात न लग जाय जिससे सृजन के लिए किया गया प्रयत्न ही चौपट हो जाय। सरकार जहाँ उत्पादन बढ़ाने की योजनाएँ बनाती है। वहाँ आन्तरिक आक्रमण से निपटने के लिए पुलिस का और सीमा सुरक्षा के लिए फौज का भरकम सरंजाम जुटाती है। व्यक्ति को निजी जीवन में भी इस प्रकार की सतर्कता बरतनी पड़ती है। चोर-उचक्कों के, ठगों की घात न लगने पाये इसके लिए समुचित जागरुकता अपनानी पड़ती है। जहाँ आवश्यकता होती है वहाँ चौकीदार की नियुक्ति भी करनी पड़ती। संव्याप्त विषाणुओं से रक्षा करने के लिए डाक्टरों से टीके लगवाने पड़ते हैं। घरों में खटमल, पिस्सू, जूओं से लेकर घुन, तिलचट्टों की बढ़ोतरी भी रोकनी पड़ती है। हमारी गतिविधियों में जितना भाग सृजन प्रयोजनों के लिए, सद्भाव संवर्धन के लिए होना चाहिए उतना ही शौर्य, पराक्रम, अनीति उन्मूलन के लिए भी सुनियोजित होना चाहिए।

बच्चों के संतुलित विकास को ध्यान में रखते हुए एक आँख प्यार की दूसरी सुधार के लिए सुरक्षित रखने की नीति अपनानी पड़ती है। एकाँगी अतिवाद लाभ के स्थान पर हानि ही पहुँचाता है। पूर्ण संत और अहिंसक तो कोई परमहंस ही बन सकते हैं, सामान्यजन को धर्म के परिपोषण और धर्म के उन्मूलन के लिए कटिबद्ध रहना चाहिए। भगवान के अवतार भी इन्हीं दोनों प्रयोजनों को समान रूप से ध्यान में रखते हुए सुसंतुलन बनाने के निमित्त होते रहे हैं। मनुष्य भी समय रहते इन दोनों यथार्थताओं के साथ सुसंतुलित तालमेल बिठाने के लिए प्रयत्नरत रहे तो ही बात बनती है। एकाँगी दया, धर्म का पालन करते रहने से उसे दुष्टता मात्र दुर्बलता समझती है और अपने पंजे गहराई तक गड़ाने के लिए उत्साहित होती है। अनीति का अब तक बढ़ते चले आने का प्रधान कारण यह रहा है कि उसका डटकर विरोध नहीं हुआ। खाली मैदान देख कर तो कोई भी दौड़ने के लिए लालायित हो सकता है। प्रतिरोध का अंकुश लगने पर ही अनीति को दुबारा विचार करना पड़ता है और आक्रमण करने से पूर्व दस बार सोचना पड़ता है।

इन दिनों प्रचलित अनाचार का हर ओर बोल बाला है। इसका प्रमुख कारण चिन्तन में अवाँछनीयताओं का घुस पड़ना। तत्वज्ञान से जनमानस को प्रखर बनाये रहने वाला आधार घटते-घटते समाप्तप्राय हो गया। जो बहुमत का क्रियाकलाप है उसी का अनुकरण करने के लिए जनसाधारण का मानस बनता है। अनुकरण प्रियता मनुष्य की स्वाभाविक रुचि एवं प्रवृत्ति है। बच्चे इसी आधार पर बोलना, सोचना, करना सीखते हैं। बड़ों के सम्बन्ध में भी यही बात है। सब ओर अवाँछनीयता का प्रचलन दीख पड़े तो फिर मन उसी को सहज स्वाभाविक व्यवहारिक मान लेता है। उसी का अनुकरण करने लगता है। भले बुरे की मान्यतायें प्रायः इस आधार पर बनती हैं कि समीपवर्ती प्रतिभावान लोग क्या करते हैं। इस प्रभाव को उथले आदर्शवादी आदर्शों से निरस्त नहीं किया जा सकता। अनुपयुक्तता के विरुद्ध चिन्तन और प्रयास को जानना तब और भी अधिक कठिन पड़ता है जब आदर्शवादी आदर्श जीवन्त जाग्रत स्थिति में अपना उदाहरण प्रस्तुत न कर पा रहे हों। तब आदर्शवादी शिक्षा की कथा-वार्ता कह कर उपहास में डाल दिया जाता है, जो उचित, व्यावहारिक शाक्य है उसे प्रत्यक्ष प्रयास के रूप में जीवन्त भी तो होना चाहिए। भले ही आदर्शवादी व्यक्तित्व की संख्या अल्पमत में ही क्यों न हो।

आज चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में मनुष्य कहीं अधिक गई गुजरी दयनीय स्थिति में पहुँच गया है। ऐसे लोग खोजे और देखें नहीं जा रहे हैं जो उचित को ही स्वीकार करें और अनुचित को अस्वीकार करके अपनी आस्था को आदर्शों के प्रति सुनिश्चित सिद्ध करें। ऐसे लोग दूसरों को पतन पराभव के गर्त में गिराने से बचा सकते हैं। पर जब नाविकों का ही कहीं अता पता नहीं तो पार उतारने की सुविधा जन साधारण को कैसे मिले?

मनुष्य का पराक्रम इस बात से जाँचा जाता है कि उसने कितनी उपलब्धियाँ उपार्जित कीं। पर साथ में यह भी देखा जाना चाहिए कि उसने अनीति के साथ असहयोग करने में कितनी बहादुरी दिखाई। अनुचित का कितना असहयोग किया और समय आने पर इसके लिए संघर्ष करने के लिए कितनी दिलेरी का परिचय दिया।

ऐसी प्राणवान प्रतिभा से ही अनीति के उन्मूलन की आशा की जा सकती है। दुर्भाग्य इसी बात का है कि ऐसे व्यक्तित्वों का अभाव हो चला है जबकि “पर उपदेश कुशल बहुतेरे” स्तर के लोगों की बाढ़ जैसी आई हुई है। प्रतिरोध के अभाव में तो आक्रमणकारी किसी भी क्षेत्र को रौंदते, तहस-नहस करते चले आते हैं। उस सफलता का श्रेय आक्रान्तों के दुस्साहस को नहीं, वरन् उन लोगों को दिया जाता है जिनने लापरवाही और कायरता बरत कर अन्य आक्रमण को सर्वथा सरल बना दिया।

दृष्टिपात करने पर चिन्तन क्षेत्र की भ्रष्टता घटाटोप की तरह छाई दिखती है। लोगों का सोचने का तरीका संकीर्ण स्वार्थपरता से बुरी तरह जकड़ गया है। लोभ और अहंकार की तृप्ति के अतिरिक्त और किसी को कुछ सूझता नहीं।


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