महर्षि पातंजलि ने अपने योगदर्शन में चित्त की भिन्नता को ध्यान में रखते हुए पाँच प्रकार के व्यक्तित्वों का उल्लेख किया है। इन्हीं आधारों पर व्यक्ति का उत्थान पतन निर्भर करता है जो अपने आप बनाया एवं बिगाड़ा जाता है। वस्तुतः मनुष्य किसी बाह्य शक्ति द्वारा नियंत्रित नहीं है। अपितु वह स्वयं चिन्तन चरित्र एवं व्यवहार में उत्कृष्टता अथवा निकृष्टता का चयन कर स्वयं को उठाता अथवा गिराता है। इसी को महर्षि पाताँजलि चित की विभिन्न भूमियाँ कहते हैं एवं इन्हें क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्रता, निरुद्ध के नाम से पुकारते हैं।
क्षिप्तावस्था में मनुष्य न तो अपने उत्थान की बात सोच पाता है और न ही समाज में कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभा पाता है। ऐसे व्यक्तियों को नर पशु की संज्ञा दी जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी। ये शरीर से तो मनुष्य दिखाई पड़ते हैं किन्तु इनकी मानसिक संरचना पाशविक संस्कारों से युक्त होती है। मन इतना चंचल रहता है जिससे चिन्तन, पेट और प्रजनन के इर्द-गिर्द घूमा करता है एवं इसके लिए ऐसे व्यक्ति कुछ भी नीति-अनीति का आचरण करने के लिए सदा तत्पर रहते हैं। फलतः निरन्तर दुःखी, चिन्तित और शोकपूर्ण जीवन बिताते हैं। हमेशा कार्य में लगे रहने पर भी कोई महत्वपूर्ण लक्ष्य भेद नहीं कर पाते। अस्त-व्यस्त एवं अदूरदर्शितापूर्वक कार्य करने वाले भी इसी वर्ग में आते हैं।
दूसरी अवस्था है मूढ़ता की। इस प्रकृति के मनुष्य निद्रा, तन्द्रा, मोह, भय, आलस्य, दीनता आदि दुर्गुणों से घिरे रहते हैं एवं ठीक ढंग से सोच विचार नहीं कर सकते, क्योंकि बौद्धिक शक्तियों पर आवरण पड़ा होता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से ग्रसित होकर वे विपरीत और अनुचित कार्यों में प्रवृत्त रहते हैं। नैतिक मर्यादा एवं अनुशासन को तोड़ने वाले ऐसे ही व्यक्ति होते हैं। जन प्रवाह में बहने में इन्हें कोई भी हानि नहीं दीखती। मछली की तरह प्रवाह के विपरीत चलने की नीति का पक्ष लेने एवं उस प्रवाह को मोड़ने का साहस ये व्यक्ति नहीं जुटा पाते।
इस क्रम में विक्षिप्तावस्था तीसरा चरण है। इस प्रकार के मनुष्यों का स्तर पूर्व की दो श्रेणियों की तुलना में कुछ ऊंचा अवश्य होता है पर फिर भी इन्हें जनसंख्या का एक घटक भर माना जा सकता है। योग्यता, तत्परता एवं सम्पन्नता का अभाव न होते हुए भी कृपण एवं कायर बने रहते हैं। साहस एवं उदारता होते हुए भी वे संकीर्णता की परिधि में ऐसे जकड़े होते हैं, जिसमें कुछ करते धरते बनता नहीं। ये जिस तिस प्रकार जीवन तो जी लेते हैं, किन्तु आत्म सन्तोष, दैवी अनुग्रह एवं लोक सम्मान जैसी उपलब्धियों को प्राप्त कर सकने में वे सर्वथा असमर्थ होते हैं। उनकी गणना व्यक्तित्व की दृष्टि से अविकसित और असहायों में ही होती है, क्योंकि वे मात्र अपना ही बोझ किसी प्रकार उठा पाते और सहायता को अपने तक सीमित रख कर कृपण-कंजूस बने रहते हैं।
एकाग्रावस्था चित्त की अगली कड़ी है। इस से सम्पन्न लोगों की ही गणना प्रतिभाशालियों में होती है। वे लोभ मोह, अहंकार से सर्वथा बचे रहते हैं। वे चिन्तन चरित्र एवं व्यवहार में ऐसी उत्कृष्टता ले आते हैं, जिनका अनुकरण कर परिकर में रहने वाले अन्यान्य लोग लाभान्वित होते हैं। भौतिक प्रगति का श्रेय भी इन्हें ही मिलता है। सूझ बूझ के धनी एक साथ अनेकों पक्षों पर दृष्टि रख सकने की क्षमता होने के कारण व्यवस्थापक एवं शासनाध्यक्ष भी कहलाते हैं। कलाकारों, साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों का वह वर्ग भी इनके अंतर्गत आता है जो लोकमंगल के लिए ही अपनी प्रतिभाओं का सदुपयोग करते हैं। इस प्रकार के मनीषी वैज्ञानिक, साधू, सज्जन, सेवाभावी लोग नगण्य से साधनों से सदाशयता की रीति-नीति अपनाते हुए,हँसता-हँसाता जीवन जी लेते हैं। इन्हीं लोगों ने कभी देश-देशान्तरों में प्रगतिशीलता का सर्वतोमुखी, सुसम्पन्नता एवं सुसंस्कारिता का वातावरण बनाकर रख दिया था। सतयुग के आदर्श ऐसे ही लोगों के स्थापित किये हुए हैं।
पांचवीं एवं अन्तिम अवस्था “निरुद्धावस्था “ है। यह चेतना की चरम स्थिति है। व्यावहारिक चारित्रिक दृष्टिकोण से सर्वोपरि अवस्था है। इस अवस्था को पातंजलि ने समाधि के रूप में तो योगी राज अरविन्द ने सुपरमाइंड के रूप में चित्रित किया है। वस्तुतः यही वह उत्कृष्ट अवस्था है, जिसमें समाधि जैसी क्षमताएँ एवं ऋद्धियों-सिद्धियों के भण्डार हस्तगत हो जाते हैं। इन्हें देवमानव एवं महापुरुष जैसे नामों से पुकारते हैं। ये सभी इन्द्रिय, समय, साधन एवं विचार संयम से उत्पन्न शक्ति को आत्म परिष्कार से लोकमंगल तक के उच्चस्तरीय प्रयोजनों में ही नियोजित करते हैं। इनकी निजी आवश्यकताएँ सीमित होती हैं। समाज का नवोत्थान एवं सामयिक समस्याओं का समाधान ही इनका मुख्य लक्ष्य होता है। फलतः प्रत्येक कार्य को जिसे हाथ में लिया गया है, वे अभिरुचि, उत्कण्ठा, मनोयोग एवं उत्साह के साथ सम्पादित करते हैं। लक्ष्य में लोक कल्याण जुड़े होने के कारण आत्मसन्तोष, लोक सम्मान एवं दैवी अनुग्रह की वर्षा इन पर अपने आप होती है। व्यक्तित्व चुम्बकीय एवं विश्वस्त स्तर का विकसित होता है। यह मनुष्य के प्रगतिक्रम की अन्तिम अवस्था हैं, जिसे “प्रतिभा की महासिद्धि” की अवस्था कहते हैं, जो समय का कायाकल्प करके वातावरण में नव जीवन का प्राण प्रवाह भर देती है।
प्रत्येक व्यक्ति को अपने अन्तराल में झाँक कर देखना चाहिए कि महर्षि पातंजलि द्वारा बतायी गयी उपरोक्त पाँच अवस्थाओं में उनका अपना स्थान कहाँ पर है, जिसे आगे विकसित किया जा सके और अपने व्यक्तित्व को पाँचवे स्तर तक देवमानव महापुरुषों के समकक्ष उठाया जा सके,ताकि जीवन लक्ष्य की प्राप्ति हो सके।
वस्तुतः जीवन मात्रा में जो अगणित पड़ाव आते हैं, प्रकारान्तर से उन्हीं की विवेचना महर्षि पातंजलि द्वारा वर्णित इन पाँच अवस्थाओं में हुई है। आज के मनोविज्ञान की कसौटी पर यदि इन पांचों स्थिति का विश्लेषण किया जाय तो इन्हें अचेतन, चेतन, अवचेतन, सचेतन,सुपरचेतन की परिधि में बाँटा जा सकता है। जिन भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का वर्णन दृष्ट ऋषिवर ने किया, उनसे गुजरते हमारे आस-पास के लोग ही हमें दिखाई देंगे। “क्लीनिकल साइकोलॉजी” नाम की मनोविज्ञान की शाखा