श्रीमद्भागवत् गीता का स्थान संसार के कुछ गिने चुने ग्रन्थों में है। इस महत्ता का कारण यही है कि यह जाति और देश की संकीर्ण सीमाओं से परे सभी को जीवन जीने का मर्म बताती है। यही कारण है कि बोधायन, आचार्य शंकर, श्रीधर, रामानुज, माधव,मधुसूदन जैसे पूर्ववर्ती आचार्यों की तरह आधुनिक काल में भी लोकमान्य तिलक, गाँधी, विनोबा, विवेकानन्द, श्री अरविन्द, डा0 राधाकृष्णन् सदृश मनीषियों ने इसकी महत्ता को स्वीकारा है। मात्र महत्ता को ही स्वीकार कर इतिश्री कर दी हो, ऐसी बात नहीं है। इसमें निहित प्रेरणाएं ग्रहण करके अपने आचरण में उतार कर शीर्ष स्थान भी प्राप्त किया है।
इसकी सार्वभौमिक विचारधारा को मात्र भारत ही नहीं सुदूर पश्चिम में भी मान्यता मिली है। पश्चिम के प्रो0 मैक्समूलर, डा0 पालडायसनफ् जानडेंविड थाँरों, राल्फ-वाल्डो इमर्सन, सन एडविन एर्नाल्ड, क्रिस्टोफर जैसे अनेकानेक विद्वानों ने भी इसके विचारों की सार्वभौमिकता को स्वीकारा और अपने जीवन में उसे समावेशित कर कृतकृत्यता प्राप्त की है। गाँधी, विनोबा की ही तरह-जान डेविड थारों भी गीता को माँ ही मानते थे। उनके अनुसार गीता में निहित विचारों के पवित्र दुग्धामृत पान करने वाले व्यक्ति को वह शक्ति मिलती है, जिससे कि जीवन समर के कठिनतम क्षणों में भी निराशों-उदासी आदि स्पर्श भी नहीं करती।
यद्यपि गीता, सार्वकालिक होते हुए कालातीत है। फिर भी सामान्य मानव मन में यह जिज्ञासा उठती हैं कि गीता की रचना हुए सुदीर्घ काल बीत चुका है। इस बीच मानव मन की विचारधारा व अनुभूतियों में बहुत सारे परिवर्तन भी आए हैं फिर आज की परिस्थितियों में मानवी चिंतन के लिए इसका संदेश क्या है ? इसकी व्यावहारिक महत्ता और आध्यात्मिक उपयोगिता क्या है ?
आधुनिक चिंतकों के अनुसार मानव मन तो सदा ही आगे की ओर बढ़ता है, अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करता तथा अपने विचारों को विस्तृत करता है। इन्हीं परिवर्तनों का परिणाम है। कि चिंतन की चिर पुरातन प्रणालियों का सूक्ष्म या प्रत्यक्ष रूप से मूल्य ही बदल जाता है। इस तरह प्राचीन सिद्धान्त तभी जीवित रह पाता है, जब वह इस परिवर्तन, संशोधन के लिए अपने को पूरी तरह सौंप दे।
पर गीता एक ऐसी अद्भुत व विलक्षण पुस्तक है जो असाधारण रूप से सहस्रों वर्षों से शाश्वत रूप में जीवित चली आ रही है और आज भी उतनी ही तरोताजा है। इसके वास्तविक सारतत्त्व में अभी भी उतनी ही नवीनता है जितनी कि महाभारत काल में थी। भारत में इसका समादर तो उन महान शास्त्रों के रूप में है जो अतीव प्रमाणित रूप में धार्मिक मानी जाती है इसका महत्व मात्र दर्शन या विद्याध्ययन के क्षेत्र में ही नहीं अपितु व्यावहारिक जीवन में भी जाग्रत और जीवन्त हे। चिन्तन हो या कर्म दोनों ही इससे अछूते नहीं सही माने में इसके विचार भारतीय संस्कृति के पुनुरुन्नयन नव जाग्रति के क्षेत्र में एक प्रेरणादायक शक्ति के रूप में भूमिका निबाहते आ रहे है और निबाह रहे है। एक प्रख्यात चिन्तक ने तो यहाँ तक कहा है कि आध्यात्मिक जीवन के लिए हमें जिन किन्हीं भी आध्यात्मिक सत्यों की आवश्यकता है वे सभी गीता में उपलब्ध हो सकते है। सम्भव है किसी को यह अविश्वासपूर्ण लगे। तथापि यह कहना किसी भी तरह अतिरंजित नहीं कि अधिकाँश सार्वभौम सूत्र इसमें समावेशित है। यही कारण है कि यह भारतवर्ष की ही सीमा में आबद्ध नहीं है। सर्वत्र विश्व भर में इसे एक महान ग्रन्थ के रूप में स्वीकारा गया है। यद्यपि यूरोप वालों ने इसके साधना संबंधी रहस्यों की अपेक्षा इसकी विचारधारा को हृदयंगम करने की अधिक कोशिश की है। स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि वह कौन सी चीज है जो गीता के विचारों व सत्य को प्राण शक्ति देती है।
वह शक्ति आती है सामंजस्य, सन्तुलन और समन्वय के रूप में। इस महाग्रन्थ में अथ से इति तक ओतप्रोत इसके समस्त दर्शन और योग का केन्द्रीय ध्येय यह है कि अंतरंग की आध्यात्मिक पूर्णता के साथ बाह्य जीवन में कर्म की बाहरी यथार्थताओं का सुसामंजस्य स्थापित किया जाय।
आज यदि हम मानव जीवन में आने वाली समस्त समस्याओं के मूल कारण की खोज करें, तो यही समझ में आता है कि हमारी सत्ता जटिल है- उसका मूल तत्व दुर्ज्ञेय है और जो आन्तरिक शक्ति इसके सभी रूपों का निर्धारण करती, समस्त उद्देश्यों, प्रक्रियाओं का नियमन करती है, वह गुह्य हैं। हम यों भी कह सकते है कि मानवी सत्ता एक त्रिविधि जाल है, जो एक साथ भौतिक-प्राणिक, मानसिक होने के साथ आध्यात्मिक भी है। उसके जीवन और प्रकृति का वास्तविक सत्य क्या है ? उसका भाग्य उसे किस तरफ घसीटता है और पूर्णता का क्षेत्रकिधर है ?
देखा गया है कि आध्यात्मिक आदर्श समाधान सभी ऊहापोहों का हल निकाल सकते हैं पर मानव के बाह्य जीवन की अपरिहार्य समस्याओं का समाधान नहीं निकाल पाते। इसी कारण मानव बुद्धि उनसे विमुख हो जाती है और मात्र शरीर और प्राण को ही स्वीकार कर इसी की स्वस्ति और सुव्यवस्थित तृप्ति को पूरा करने में जुट जाती है। इस तरह उसके लिए अन्य सभी चीजें गौण हो जाती है।
मन के इस तरह विकसित होने पर किसी ऊर्ध्व स्थिति तत्व की अस्पष्ट अनुभूति होती है। उसे एक अवस्था, एक शक्ति, एक उपस्थिति की झाँकी होती है। जो उनके निकट और भीतर है, तथा उसके प्रति अत्यन्त अंतरंग भी है। फिर भी उसकी अपेक्षा अधिक रूप से महान, अपूर्व रूप से दूरस्थ और उसके ऊपर अवस्थित है। विकास की इस अवस्था में ऐसी वस्तु के अंतर्दर्शन होते है, जो चरम आदर्शों से भी अधिक-तात्विक, निरपेक्ष, अनन्त और अद्वितीय है। इसी को ईश्वर या ब्रह्म कहा गया है।
इसी आश्चर्यमय सत्ता के साथ एकत्व पाने के लिए पूर्ण तादात्म्य स्थापित करने के लिए मन पूरी तरह प्रयास करता है। ऐसी ही स्थिति में निरपेक्ष अध्यात्मवादी मानसिक सत्ता का खण्डन और देह आदि भौतिक सत्ता की निन्दा करने लगते है। वे सबको विलय करने के लिए आतुर हो जाती है। पर व्यवहार में मानव मन पर जो चीज निरन्तर दबाव डालती है वह है जीवन-आचार और कर्म की समस्या। इन दोनों के बीच तालमेल न बिठा पाने के कारण विद्वत्जन यह घोषणा कर बैठते हैं कि निर्वाण, यहाँ के शारीरिक जीवन में नहीं अपितु इस जगत के परे विद्यमान किसी अमर लोक में है और सच्ची आध्यात्मिकता वहीं उपलब्ध हो सकती है।
इसी जगह गीता-आत्मा, परमात्मा, ईश्वर, जगत प्रकृति में सत्य की एक नई संस्थापना प्रस्तुत करती है। सत्य की जिस विचारणा को प्राचीन उपनिषदों से लाकर विकसित किया गया था, उसे वह विस्तृत कर नए साँचे में ढालती है। जीवन तथा कर्म की समस्या का समाधान प्रस्तुत करती है। गीता जहाँ उस व्यक्ति विशेष का, जो पूर्ण आध्यात्मिक जीवन के योग्य है, आह्वान कर अध्यात्मिक राज्य में प्रवेश करने को कहती है, वही सम्पूर्ण मानव जाती को किसी भी तरह निराश न कर अध्यात्म की और उन्मुख हो, नैतिक उद्देश्य को सामने रख क्रमिक विकास का निर्देश देती है।
जीवनेच्छा, शक्ति प्राप्ति का इच्छा, वासना की पूर्ति, बल पौरुष का गुणगान, अहं की पूजा उग्र स्वेच्छा पूर्ण अर्जन प्रवृत्ति एवं अशाँत स्वार्थदर्शी बुद्धि की उपासना को असुरता का पर्याय-गुण धर्म बताती हुई घोर विनाश और सर्वनाश का द्वार घोषित करती है। देहपरायण मनुष्य को आत्म नियंत्रण करने आदर्शवादी विधान को स्वीकारने तथा विकास यात्रा पर चल पड़ने का संकेत देती है।
गीता अनन्त के चरम पंथी उपासक को ..... ब्रह्म में अपने को लय करने के प्रयत्न की एक मार्ग बताती हुई स्पष्ट करती है। उसे बताती है कि व्यष्टि एवं समष्टि चेतना के मिलन से .... आनन्द को पाने के लिए मनुष्य को कही जंगल या पहाड़ के एकान्त में भागने की आवश्यकता नहीं है। इस आनन्द की प्राप्ति तो अपने कर्तव्य कर्मों को भली प्रकार निर्वाह करने पर सहज ही हो सकती है। यही नहीं मनुष्य मुक्त होकर उस उच्चतम स्तर से अपना मानवी कर्म भी करता रह सकता है। निःसन्देह जीवन के विविध क्रिया कलाप एवं जगत के समस्त प्रयासों का अन्तिम शिखर और मर्म यही है एवं यह मार्गदर्शन श्रीमद्भागवत् गीता से बड़े स्पष्ट सुग्राह्य रूप में मिलता है।