महायज्ञ

June 1988

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महाभारत की समाप्ति पर पाण्डवों ने एक बड़ा राजसूर्य यज्ञ किया। उसमें देश-विदेश के सभी शासक और ऋषि-मुनि आमंत्रित किये गये। समारोह बड़ा विशाल हुआ और हर दृष्टि से बड़ा सफल रहा।

वहाँ एक नेवला यज्ञस्थली के प्रत्येक कोने में पहुँचकर लोट लगाता रहा। अपने शरीर में कुछ परिवर्तन हुआ क्या? यह देखता रहा। निराश होने पर आँसू बहाता और फूट-फूट कर रोता रहा। इच्छा अधूरी ही रहने के कारण उसे बहुत दुःख हो रहा था।

एक मनीषी ने नेवले को इस प्रकार परेशान होते हुए देखा तो पूछा कि क्या ढूंढ़ते हो? किस कारण इतने दुखी होते हो ?

नेवले ने अपनी मनोव्यथा कह सुनाई। बोल-”हे महात्मन्। एक बार एक महायज्ञ हुआ था। उसके बचे अवशिष्ट पदार्थ एवं जल का अवगाहन करने हेतु मैं उसी भूमि में सो गया था। उठा तो मेरा वह आधा भाग सोने जैसा चमकदार एवं सुन्दर हो गया था। आश्चर्य हुआ कि इस पानी में क्या करामात है।”

बताया गया था कि सामने ही एक ब्राह्मण की झोंपड़ी है। उसमें वह, उसकी पत्नी, पुत्र तथा पुत्री रहते थे। बहुत दिनों से भयंकर दुर्भिक्ष चल रहा था। अन्न के अभाव में सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची हुई थी। ब्राह्मण भिक्षा से आजीविका कमाता था। अच्छे समय में तो भिक्षा आसानी से मिल जाती थी। पर दुर्भिक्ष में जब लोगों के पास अपने लिए ही कुछ नहीं रहा तो किसी को भिक्षा किस प्रकार देते? ब्राह्मण परिवार भी भूखों मरने लगा।

“सात दिनों के प्रयत्न के बाद चार रोटियों जितनी भिक्षा उसे मिली। लेकर घर आया। घर के चार सदस्यों के लिए चार रोटियाँ बनाई। बन जाने पर थाली में रखीं। ग्रास तोड़ने से पूर्व यह ध्यान आया कि कहीं समीप हम से अधिक जरूरतमंद तो कोई नहीं है। यदि है तो पहला हक इस उपार्जन में उसका है। पहले तलाश लें, तब चारों भोजन ग्रहण करें। बाहर निकलते ही ब्राह्मण देवता ने देखा कि एक वृद्ध पास के पेड़ के नीचे ही पड़ा था। एक माह से अन्न नहीं मिला था। मरने के निकट था। ब्राह्मण को रोटी लेकर समीप आता देख बोला-मुझ मरणासन्न को आहार की आवश्यकता है यदि मेरे प्राण बचा लें तो बड़ी कृपा होगी।”

“ब्राह्मण उस वृद्ध को उठाकर अपने घर ले गया। सर्वप्रथम ब्राह्मण ने अपनी रोटी उसे दी, पर इससे उसकी भूख शान्त नहीं हुई है। इस पर पत्नी ने भी अपनी रोटी उसे दे दी। अब तो उसकी भूख और तीव्र हो गई। और माँगने लगा तो पुत्र और कन्या ने भी बारी-बारी अपनी रोटियाँ उसे खिला दीं। तृप्ति हुई। पानी पिया। इस पानी से उस वृद्ध ने कुल्लाकर जहाँ पानी फेंका, उसी पर जाकर मैं लोटा था। उठा तो आधा शरीर सोने जैसा था। अब सोच रहा था कि कहीं और भी ऐसा पुण्यफल वाला यज्ञ हुआ हो तो वहाँ जाया जाय एवं शेष आधे अंग को भी पानी में लेटकर सुनहरा बनाया जाय, ताकि सारी काया एक जैसी बन सके।”

“हे महाभाग! मैं इस राजसूर्य यज्ञ में बड़ी आश्वासन लेकर आया था। यहाँ फैले जल के स्पर्श से मुझे पुनः वैसा लाभ नहीं मिला। इससे लगता है कि यह यज्ञ उतने बड़े पुण्य-फल वाला नहीं है जितना कि मैं पहले देख चुका हूँ। बड़े तपस्वी विद्वान इसमें एकत्र हुए, पूरे विधि-विधान से कर्मकाण्ड हुआ, फिर भी कोई पुण्यदायी प्रतिफल ने देखकर मैं निराश हूँ। यही मेरी व्यथा का मूल कारण है।

नेवले की व्यथा बहुत लोगों ने सुनी। सभी यह निष्कर्ष लेकर लौटे कि अपनी आवश्यकता में दूसरों की जरूरतों को अधि महत्व देने वाले उदारचेताओं का सामान्य कृत्य भी उससे अधिक पुण्य फल वाला होता है जिसमें कि सम्पन्नजन अपनी अथाह सम्पत्ति से कुछ बढ़ा-चढ़ा दीखने वाला धर्मानुष्ठान सम्पन्न करते रहते हैं। कृत्य नहीं, प्रयोजन की श्रेष्ठता ही तदनुसार प्रतिफल देती है।


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