मनुष्येत्तर प्राणियों के बारे में भी सोचिए

June 1988

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अनादिकाल में मनुष्य इतना बुद्धिमान नहीं था, जितना की आज है। नारियल, लौकी के बर्तन, पत्थर के औजार थे आग का आविष्कार हुआ तब पाक विद्या सीखी गई और धातु के उपकरणों का निर्माता हुआ। कृषि के उपरान्त पशुपालन ही मनुष्य की सबसे बड़ी सफलता थी। बोलने में, लिखने में प्रगति बहुत पीछे हुई है। आदिमकाल का मनुष्य लगभग नर बानरों के स्तर पर ही निर्वाह करता था।

सहकारिता के बल पर क्रमशः प्रगति के चरण बढ़े और मनुष्य सुख-सुविधाओं का अधिपति तथा प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन करके वैज्ञानिक बना और सृष्टि का मुकुट मणि कहलाया।

जो क्षमता मनुष्य में है उससे मिलती जुलती या भिन्न प्रकार की क्षमताएँ अन्य प्राणियों में भी है। पर एक ही कमी है-बुद्धि बल की। यह किसी को उपहार में जन्मजात रूप में नहीं मिला है। अब भी वन क्षेत्रों के निवासी प्रायः हजारों वर्ष पुराने स्तर का जीवन ही जीते है और वनमानुषों की तरह गुजारा करते है। बुद्धिमत्ता एक ने दूसरे को सिखाई है, तथ्य ध्रुव सत्य है।

मनुष्य ईश्वर का बड़ा बेटा है। अन्य प्राणी उसके छोटे भाई-बहिन। बुद्धिमत्ता में वे पिछड़ गये है। मनुष्य का कर्तव्य है कि उनके अनाड़ीपन का अनुचित लाभ न उठाये वरन् जिस प्रकार अपने संगों को सुयोग बनाया जाता है, उसी प्रकार पशु जगत के साथ थोड़ा परिश्रम किया जाये और उन्हें भी न्यूनाधिक मात्रा में उतना ही विकसित बुद्धिमान बनाया जाय जैसा कि मनुष्य स्वयं। इस प्रकार वे भी सुखी और सम्मानित जीवन जी सकें और धरती के पुत्र होने के नाते इसी पृथ्वी पर उसी प्रकार .... कर सकेंगे जिस प्रकार मनुष्य करता है।

पशुओं को आसानी से बुद्धिमान एवं उपयोगी बनाया जा सकता है। मदारी, बाजीगर, रीछ, वानरों को सधाकर उनकी कमाई में अपना गुजारा करते है। सरकस वाले जानवरों को इतना हिला लेते हैं कि वे मनुष्यों को आश्चर्य चकित करने वाले करतब दिखा सकें।

कबूतरों से डाक लाने ले जाने का काम लिया जाता था। तोता-मैना मनुष्य की बोली की नकल करते है। बन्दर, लुहारों की धोंकनी धोंकते हैं। कुत्ते घर की रखवाली करते है। यह आम बातें हैं। कभी-कभी तो वे अपनी बुद्धिमता का परिचय ऐसा देते हैं, जिसे देखकर उनके कमाल को देखे हुए दंग रह जाना पड़ता है।

फिल्मों में कितने ही बन्दर ओर कुत्ते ऐसे पार्ट करते है कि उन्हें किसी कलाकार से कम नहीं ठहराया जा सकता। कुछ दिन पूर्व एक कुत्ता पोस्टमैन की भूमिका निभाने, घर-धर चिट्ठियाँ बाँटने में यशस्वी हो चुका है। उनकी गंध शक्ति का उपयोग करके पुलिस वाले अभी भी चोरों और अपराधियों का पता लगाते है। यह प्रशिक्षण का ही प्रतिफल है। ऐसी आश्चर्यजनक घटनाएँ संसार भर में होती रहती हैं, जिनमें पशुओं ने मनुष्य से बढ़कर सद्भावना का परिचय दिया है। कुत्ते और बिल्ली बिछुड़ जाने पर सैकड़ों मील का रास्ता ढूंढ़ते-ढूंढ़ते मालिकों के घर आ जाते हैं।

अभी-अभी कुछ दिन की बात है कि इंग्लैंड के जान हानसन ओर रोडरीफ लकी ने बर्फीले प्रदेश में एक खास किस्म के वनमानुष को पाया। उसे घर लाकर घर के सदस्य जैसा बेझिझग बनाया फिर उसे पढ़ना शुरू किया, उसने .... शब्द अंग्रेजी के सीख लिए। इतने से ही वह अपनी बात कह लेती है और दूसरों की समझ लेती है। वह साइकिल पर सवार होकर बिना भटके अभीष्ट स्थान तक पहुँच जाती है। यह बंदरिया अमेरिका तथा इंग्लैंड के कई फिल्मों में भी काम करती है और अपने मालिकों के लिए ढेरों पैसे कमाती है।

मध्यकाल में सामन्त आये दिन एक दूसरे से लड़ाइयाँ ठानते रहते थे और बार-बार युद्ध होते रहते थे। इस कार्य के लिए घोड़े और हाथी ऐसी अच्छी तरह सिखाये और सधाये जाते थे कि मनुष्य का कम उनका अधिक अभ्यास तथा पराक्रम कौशल काम आता था। थोड़े से घोड़े और हाथियों के बल पर उन दिनों बड़ी-बड़ी लड़ाइयां जीती जाती थी।

पालतू हाथी जंगली हाथियों को पकड़कर लाने में इतने प्रशिक्षित होते है कि उनकी चतुरता को देखकर अचंभे में रह जाना पड़ता हैं असम के जंगलों में लकड़ी के भारी लट्ठे ढोने का काम पालतू हाथियों से ही लिया जाता है। राजाओं के यहाँ ऐसे शिकारी कुत्ते रहते थे जिनकी सहायता से शेर, चीते आदि का शिकार भी आसानी से कर लिया जाता था। अफ्रीका की एक कुतिया मालिक की भेड़ों का झुण्ड घर से चराने ले जाती थी और शाम को उन्हें घेर कर ले आती थी। एक भी भेड़ यदि पिछड़ जाती तो उसे ढूँढ़ कर ले आती। बर्फीले स्थानों पर हिरन और कुत्ते ही बिना पहिये की गाड़ी चलाते है और मालिकों को तथा उनके सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाते है। तंज़ानिया की एक फ्राँसीसी महिला ने शेरों का एक पूरा परिवार पाल रखा था जो उसके साथ ही रहता था। वे सभी बहुत भोले और प्रेमी थे। उनकी फिल्में बनाने संसार भर की कई कम्पनियाँ आई। जिस बात पर लोग बिल्कुल यकीन नहीं करते थे उस स्वभाव परिवर्तन की बात पर लाखों करोड़ों को विश्वास करना पड़ा।

“आत्मवत् सर्व भूतेषु” और “वसुधैव कुटुम्बकम्” के सिद्धान्त भारतीय संस्कृति के नहीं मानव संस्कृति के प्राण है। इन्हें मौखिक कथनोपकथन तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए वरन् शोभा और शान तब है जब इन्हें कार्यान्वित किया जाय। मनुष्यों तक की बात सोचने में हमें सीमित नहीं रहना चाहिए वरन् सोचना यह चाहिए कि यह धरती सब की है और उस पर समतुल्य बिरादरी के पशुओं को ज्ञान बल से सम्पन्न किया जाना चाहिए। यह कार्य हम कर सकते है और उनका ही नहीं साथ ही अपना भला भी कर सकते है। साथ ही मनुष्य का भी कम हित साधन नहीं हुआ है। इसी प्रकार आगे उन्हें प्रशिक्षित समझदार बनाया जा सके तो वे अधिक सम्पन्न और अधिक सुविधा प्राप्त करेंगे, साथ ही इसमें मनुष्य का भी कम हित साधन नहीं होगा। उसे श्रेय मिलेगा और आदर्शों के परिपालन में उसे तत्पर भी कहीं देखा जा सकेगा।

पशुओं को बुद्धिमान एवं उपयोगी बनाने का कार्य कठिन है तो है पर असम्भव नहीं। यदि इस कार्य में हाथ डाला जाय तो कोई कारण नहीं कि प्राणि जगत को अधिक समुन्नत बनाने में तत्पर होकर मनुष्य सच्चे अर्थों में भगवान का ज्येष्ठ पुत्र न कहला सके और अपने छोटे भाइयों की सहायता करने का यश एवं सुयोग प्राप्त न कर सके।

यदि यह उचित लगता हो तो सचमुच ही आदर्श अपनाने का मन हो तो धरती का कुछ भाग पशुओं को जीवित रहने के लिए भी छोड़ना होगा। आज तो स्थित ऐसी है कि बढ़ती हुई अन्धाधुन्ध आबादी के लिए अन्न, मांस सब कुछ कम पड़ रहा है। जब मनुष्य के लिए ही रहने की जगह कम पड़ रही है। भोजन में असमंजस है और पशु-पक्षियों से लेकर जलचरों तक को उदरस्थ करने की योजना बन रहीं है, तो अन्य जीवधारी पृथ्वी पर बचेंगे कैसे ? रहेंगे कहाँ ? खायेंगे क्या ? और काम किसके आयेंगे ? जब मनुष्य बढ़ते-बढ़ते धरती का कोई कोना खाली नहीं छोड़ रहे है।

अच्छा हो हम प्रजनन रोकें और जो मनुष्य है उन्हीं को समुन्नत करने की व्यवस्था करें। बन पड़े तो पशुओं को भी समुन्नत बनाने का सुयोग प्रदान करें। पर यह संभव तभी है जब मनुष्य अपनी संख्या बढ़ाने में रोकथाम करने की बात सोचे।


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