राजा के न्याय (Kahani)

June 1988

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काशी नरेश की रानी बड़े सबेरे गंगा स्नान को गई। ठंड के दिन थे। तेज हवा चल रहीं थी। नहाने के बाद वे ठंड से काँपने लगीं। आग तापने का मन हुआ तो नौकरों को हुक्म दिया कि नजदीक दिखने झोपड़ियों को उखाड़ लाया जाय और उन्हें जलाकर शीत मिटाने का प्रबन्ध किया जाय। वैसा ही किया गया। रानी घर वापस आई।

जिन लोगों की झोपड़ियां उखाड़ी गई थीं उनको उसके अभाव से इतना कष्ट सहना पड़ा कि अभी भी वैसी स्थिति में रह रहें है। इसकी सूचना राज दरबार तक पहुँची। राजा स्वयं घटना स्थल पर पहुँचें और उन्हें भी इस अनीति पर कम क्रोध न आया।

वापस लौटकर राजा ने उस रानी को  दरबार में बुलाया और हुक्म दिया कि भीख माँगकर पैसा इकट्ठा करो और उनकी झोपड़ियां फिर से बनवाओ जिनको कि तापने के लिए उखाड़ी गई थी। झोपड़ियां बन  जाने के बाद ही महल में प्रवेश मिलेगा।

रानी को वही करना पड़ा। विस्थापकों के झोंपड़े बने। अनीति का प्रायश्चित हुआ और राजा के न्याय को सर्व साधारण द्वारा सराहा गया।


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