प्राण ऊर्जा का संवर्धन, चेतना का उदात्तीकरण

June 1988

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मानवी काया की परतों को कुरेदने पर चर्मचक्षुओं से तो मात्र उसमें रक्त और हाड़-माँस का तथा सूक्ष्मदर्शी यंत्रों से देखने पर ऊतकों-कोशिकाओं के ईंट-गारे का जाल जंजाल भर दिखाई पड़ता है। विद्युत विज्ञानी उसके तंत्र समुच्चय में मस्तिष्कीय विद्युत दौड़ती हुई देखते है। इतने पर भी प्रायः यह रहस्य अविज्ञात ही बना रहता है कि इसी काय-कलेवर के गहन अन्तराल में ऊर्जा के निर्झर उछलते, प्रचण्ड ज्वालामुखी धधकते रहते हैं। उसकी सारी विशेषता एक जीवन्त विद्युत शक्ति के ऊपर निर्भर है जिसे अध्यात्म की भाषा में प्राण कहते है। चेतन आत्मा को क्रियाशील बनाये रहने और अभीष्ट लक्ष्य की दिशा में द्रुत गति से बढ़ने की सामर्थ्य प्रदान करने का आधार उस प्राण ऊर्जा को ही माना जाता है। व्यक्तित्व के असाधारण विकास में उसी का चमत्कार देखा जा सकता है।

प्राणतत्व की न्यूनाधिकता ही मनुष्य की दुर्बलता-बलिष्ठता का परिचायक है। इसकी न्यूनता से व्यक्ति हर दृष्टि से लड़खड़ाने लगता है और जब वह समुचित मात्रा में रहता है तो समस्त क्रिया कलाप ठीक तरह चलते है। जब वह बढ़ता है तो उस अभिवृद्धि को सामर्थ्य, प्रतिभा, सतर्कता, तेजस्विता, मनस्विता आदि के रूप में देखा जा सकता है। भौतिक क्षेत्र में उसे गर्मी, रोशनी, बिजली आदि के नाम से जाना जाता है और अन्तः क्षेत्र में उसी को प्रखरता कहते है। प्राण तत्व जीवन तत्व यही है। इसी को “निरपेक्ष ऊर्जा” भी कहा जाता है, जो प्राणि जगत को समान रूप से प्रभावित करती है। शरीर और मन को दिशा एवं क्षमता प्रदान करने वाली अति उत्कृष्ट एवं अति सूक्ष्म सत्ता “वाइटल फोर्स” यही हैं। इस सम्पदा को जो जितनी अधिक मात्रा में उपार्जित अभिवर्धित कर लेता है, वह उतना ही बड़ा शक्तिशाली सिद्ध होता है। ऐसे व्यक्ति ही महाप्राण कहलाते मार्गदर्शन करने में समर्थ होते है।

वैज्ञानिक क्षेत्र में भी अब इस प्राण शक्ति की खोजबीन की जाने लगी है। जैव विद्युत शास्त्र के प्रवर्त्तक सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डा0 एच0ए0बट के अनुसार जीवन का प्रमुख आधार प्राण ऊर्जा ही है जिसमें इच्छा और बुद्धि भी सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहती है। इसके द्वारा मनुष्य अपने क्षेत्र में विशिष्ट परिस्थितियों एवं साधनों की संरचना कर सकता है। प्रो0 हडसन ने उसे सार्वभौमिक जीवन तत्व कहा है और लिखा है कि यदि इसे कामाचार के आकर्षण से बचाकर मस्तिष्कीय अथवा भावनात्मक प्रयोजनों में लगाया जा सके तो सस्ता विनोद करने की अपेक्षा कहीं अधिक सत्परिणाम उत्पन्न करेगा।

नोबेल पुरस्कार विजेता प्रख्यात चिकित्साशास्त्री जे0 ज्योगी ने एक्टीन और मायोसीन नामक दो प्रोटीन तत्वों को मनुष्य शरीर में से खोज निकालता है। यह तत्व माँसपेशियों की सक्रियता बढ़ाते हैं। इनकी उत्पत्ति का प्रमुख कारण उन्होंने प्राण शक्ति को माना है। उनका कहना है कि शरीर के चारों और जो प्रकाश छाया रहता है, वस्तुतः वह प्राण ऊर्जा के समस्त शरीर में संव्याप्त होने के कारण ही दिखाई देता है। इसके निर्माण में भाग लेने वाले सूक्ष्म परमाणु अत्यधिक शक्तिशाली, प्रकाशवान और प्रज्ज्वलनशील होते हैं। इनमें घट बढ़ होने पर शारीरिक और मानसिक उथल-पुथल होने लगती है। फ्रांसीसी वैज्ञानिक डुरावेल प्राणमय शरीर की स्वतंत्र सत्ता मानते हैं और कहते है कि वह जितना ही प्रबल होकर फिजिकल बॉडी में समाविष्ट होगा, उतना ही मनुष्य प्रतिभाशाली पाया जायेगा।

डा0 राखाल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “रीजनल एक्सपोजीशन आफ भारतीय योगा” में लिखा है कि योग विद्या का उच्चस्तरीय आधार प्राण शरीर पर ही अवलम्बित रहता है। वे प्राण सत्ता को शरीर में समाई हुई होने पर भी पृथक् मानते है। डा0 मैकडुगल ने तो प्रत्यक्ष शरीर और प्राण शरीर का पृथक-पृथक् भार तौलने में भी सफलता पाई है। डा0 माल्य की शोधों में ऐसे प्रमाण पाये गये है जिनमें मनुष्य के न रहने पर भी उसका प्राण चिर अभ्यस्त स्थान पर विद्यमान रहता है। सिलवान जे0 मुलडोल की पुस्तक” दि प्रोजेक्शन ऑफ एस्ट्रल बॉडी” में ऐसी अनेकानेक घटनाओं का वर्णन है। जिसमें प्राण शरीर अपने अभ्यस्त स्थान पर चिरकाल तक अपना अधिकार जमाये रहता है भले ही उसे दिवंगत हुए लम्बी अवधि क्यों न बीत गई हो। सुपर नेचर नामक अपनी पुस्तक में लायल वाट्सन ने लिखा है कि किसी व्यक्ति के हाथ पैर कट जाने पर भी उसे उसकी उपस्थिति की अनुभूति होना शरीर में समाविष्ट प्राण शक्ति का ही एक खेल है।

कितने ही वैज्ञानिकों ने मानवी प्राण ऊर्जा की वैज्ञानिकता एवं उसकी प्रयोग प्रक्रिया के पक्ष में अनेकों आधार एवं प्रमाण प्रस्तुत किये है। प्रो0 विलियम क्रुक्स वेलिस इस संदर्भ में सबसे आगे रहे। जर्मन रसायनज्ञ बैरोन कार्य वान रीचेनबैक ने काया में समाहित प्रचण्ड प्राण ऊर्जा भण्डार की मौजूदगी की पुष्टि की है और कहा है कि इसे ने केवल देखा जा सकता है, वरन् मापा भी जा सकता है। उनने इसमें अनेक भौतिक गुणों के उपस्थित होने की पुष्टि की है जिसमें से ध्रुवत्व भी एक गुण है। रूस के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एलेक्जेण्डर गुरुविच ने इसे छोटी तरंग लम्बाई वाली किरणों-अल्ट्रावायलेट के एक हिस्से के रूप में पाया और माईटोजेनटिक किरणों के नाम से सम्बोधित किया है। रोम के प्रो0 ग्यूडों क्रीमोनेसा ने इसके फोटोग्राफ भी लिये है। उनने “ओरोस्कोप” नामक एक उपकरण का विकास किया है, जिसके माध्यम से किसी भी व्यक्ति के प्राण शरीर को चर्मचक्षुओं से देखा जा सकता है।

“फील्ड्स आफ फोर्स” नाम अपनी कृति में विन्फ्रेड डंकन ने कहा है कि यह प्राण ही है जो शारीरिक अंग अवयवों की नियमित एवं नियंत्रित वृद्धि के लिए जिम्मेदार है। मुख्य रूप से यह आँख मस्तिष्क, स्पाइन, जननाँग एवं चक्र संस्थानों में केन्द्रित रहता है। प्राणायाम की विविध साधनाओं द्वारा इसे उभारा और शरीर से बाहर निकाला जा सकता है व जड़-चेतन को प्रभावित भी किया जा सकता है। विद्वान लेखक ए0ई॰ पावेल ने अपनी पुस्तक “दि ईथरिक डबल” में उक्त कार्यों के अतिरिक्त प्राण ऊर्जा को सुपर चेतन से संपर्क सूत्र जोड़ने वाला बताया है। उनके अनुसार प्राण वस्तुतः चेतन ऊर्जा का प्रवाह है। जब उसका संबंध ब्रह्माण्ड व्यापी महाप्राण से हो जाता है तो वही प्राणशक्ति अपनी प्रचंडता और उत्कृष्टता के आधार पर स्तर-भेद एवं रूप भेद से विभिन्न सिद्धियों-समृद्धियों तथा विभूतियों की उद्गाता और प्रदाता सिद्ध होती है। शारीरिक इन्द्रियों की क्रियाशीलता, मन की सजगता और संकल्पशीलता, बुद्धि की प्रखरता तथा अन्तः करण की उदात्त-चेतना का आधार प्राण ऊर्जा ही है। आकाँश को ललक से उठाकर संकल्प स्तर पक पहुँचा देना प्राण की प्रखरता पर ही निर्भर रहता है।

प्राण ऊर्जा की वैज्ञानिकता का प्रतिपादन करने के लिए मैस्मरेज्म, एलेक्ट्रोबायलाँजी, साइको थेरेपी आदि के अनेकों वैज्ञानिकों प्रयोग-परीक्षण चल रहे हैं और शोध निष्कर्षों के अनेक ग्रन्थ छप रहे है। यह प्राणाग्नि आमतौर से अविज्ञात ही रहती है। शरीरगत तापमान और विद्युत प्रवाह की यंत्रों से माप–तौल की जा सकती है पर प्राणाग्नि वैसी नहीं होती जैसी चूल्हे में अग्नि जलती हैं। इतने पर भी देखा गया है कि जब यह प्राणाग्नि शरीर से फूट निकली तो अपने अस्तित्व का प्रमाण ऐसे देने लगी मानो वह भौतिक अग्नि का रूप धारण कर सकने में समर्थ हो।

वस्तुतः यह प्राण ऊर्जा ही जीव चेतना की सर्वोच्च शक्ति, जीवन का सार एवं आत्मोत्थान का आधार है। इसका सम्पादन, संवर्धन कर हर साधक चेतना के उच्चतर आयामों तक पहुँच सकता है।


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