अपने शरीर से लेकर सम्पूर्ण दृश्य जगत में कहीं भी देखें, सर्वत्र जड़ और चेतन की संयुक्त सत्ता दृष्टिगोचर होती हैं। यदि दोनों का संयोग बिखर जाय तो न तो कहीं प्राणी के लिए पदार्थ रहेगा न ही पदार्थ के लिए प्राणी। बुद्धि और मन की परिधि यह संसार ही हैं। वे इसी परिधि के इर्द-गिर्द चक्कर काटते हैं। इन्द्रियों की अनुभूतियाँ हो या मानसिक कल्पनाएँ अथवा अन्तःकरण की भाव संवेदनाएँ इनकी क्षमता का प्रकटीकरण तभी होता हैं जब शरीर या पदार्थों के बीच उनका सम्बन्ध स्थापित हो सके। इसके बिना सारा का सारा चिन्तन का ढाँचा ढह जाएगा।
ऐसे ही अन्योन्याश्रित संबंधों में एक युग्म अध्यात्मक और विज्ञान का है। पदार्थ विज्ञान में बुद्धि और पदार्थ का संयोग काम करता है। आत्मिकी में बुद्धि का स्थूल रूप नहीं अपितु सुपरिष्कृत रूप जिसे ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते हैं-काम करता है। तत्व चिन्तन के ब्रह्म विद्या प्रकरण में इसी की चर्चा की गई है। इस तरह पारस्परिक तालमेल की आवश्यकता स्पष्ट हो जाती है। यदि ये दोनों परस्पर लड़ने-झगड़ने लगें-एक दूसरे के अस्तित्व को नकारने लगें, अनावश्यक और अप्रामाणिक बताने लगें तब तो यही मानना होगा कि दुःख और दुर्भाग्य ही राहु-केतु के सदृश हमारे चिन्तन क्षेत्र पर ग्रहण की तरह लग गए है।
जीवन के समग्र व परिपूर्ण विकास के लिए दोनों आपस में ही टकराने लगें तो इनकी टकराहट उसी तरह होगी जैसे अपना दायाँ हाथ अनन्यतम सहयोगी बाएं हाथ को काटने के लिए जुट जाय। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि वैज्ञानिकता के बिना धर्म अन्ध-विश्वास बन जाएगा इसी तरह आत्मिकी के बगैर विज्ञान अनैतिक और उच्छृंखल। आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है इन दोनों में ताल-मेल हो। पारस्परिक सहयोग का स्नेह-बंधन हो। असहयोग होने पर तो हानि के सिवा और कुछ न होगा। इनका पारस्परिक विग्रह संसार की प्रगति और संस्कृति को नष्ट करने वाला ही सिद्ध होगा।
आध्यात्मिक उपलब्धियाँ है श्रेष्ठ व्यक्तित्व एवं आदर्श कर्तृत्व। आध्यात्मिकता सच्ची वही है जो मानवी विकास में सहायक हो। उसमें व्यावहारिक जीवन जीने की कला व जीवन की विविध समस्याओं का समाधान निहित हो। मात्र कर्मकाण्डों का अंधानुकरण करने, श्रद्धा विश्वास के नाम पर लकीर पीटने को आज का बौद्धिक वर्ग तैयार न होगा। इन कर्मकाण्डों के साथ परिष्कृत जीवन के सूत्र-सिद्धान्तों का दार्शनिक क्रम भी होना चाहिए। इसके अभाव में तो धर्म की गरिमा गिरेगी। इसकी महानता तो तभी अक्षुण्ण रह सकती है जब यह नव्य जीवन के भव्य निर्माण में अपनी महती भूमिका निभाएं। मानव-मानव के बीच वह भाव और विचार पैदा करे जिससे वे सार्वभौम तत्व की एकता को एक दूसरे में अनुभव कर सके।
इस तरह अपनी भूमिका का भली प्रकार निर्वाह करके ही धर्म जाग्रत और जीवन्त बना रह सकता है। इस तरह सभी उसे आदर से अपना सकेंगे अन्यथा बुद्धिवाद उसे आसानी से न स्वीकार करेगा, उल्टे उस पर प्रहार करने की सोचेगा।
लन्दन विश्व विद्यालय के एस्ट्रोफिजीसिस्ट प्रो0 हर्बर्ट डिग्ले का कहना है कि “विज्ञान की अपनी परिधि सीमित है। यह मात्र पदार्थ के स्वरूप एवं प्रयोग का ही विश्लेषण करता है। पदार्थ को बनाया किसने? क्यों बना? कैसे बना? इसका उत्तर दे पाना अभी सम्भव नहीं। इसके लिए विज्ञान को ऊँची और विलक्षण कक्षा में प्रवेश लेना पड़ेगा। यह कक्षा लगभग उसी स्तर की होगी जैसे कि अध्यात्म के तत्वांश को समझने के लिए अपनानी होती है।”
तत्वविद् रेनाल्ड का कथन है- धर्म क्षेत्र को अपनी भावनात्मक मर्यादाओं में रहना चाहिए और व्यक्तिगत सदाचार व समाजगत सुव्यवस्था के लिए आचार व्यवहार की प्रक्रिया को परिष्कृत बनाए रखने में जुटा रहना चाहिए। यह कोई कम बड़ी बात नहीं है। यदि अध्यात्म वेत्ता अपनी कल्पनाओं के आधार पर भौतिक पदार्थों की रीति-नीति का निर्धारण करने लगेंगे तो वे सत्य की कुसेवा ही करेंगे और ज्ञान के विकास में बाधक ही सिद्ध होंगे।
विख्यात दार्शनिक पालटिलिच धर्म और विज्ञान का मिलन दार्शनिक स्तर पर होने की घोषणा करते है। उनका कथन है-दोनों के क्रियाकलाप एवं प्रतिपादन की दिशाएँ अलग-अलग ही बनी रहेंगी न तो धर्म शास्त्रों के आधार पर खगोल, रसायन भौतिकी के निष्कर्ष निकाले जा सकते है और न ही दुनिया भर की प्रयोगशालाएँ ईश्वर आत्मा सदाचार भाव-प्रवाह जैसे तथ्यों पर कुछ प्रामाणिक प्रकाश डाल सकती है। मात्र दार्शनिक स्तर ही ऐसा है, जहाँ दोनों धाराओं का मिलन संभव है।
सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक रुनेग्लोविश का भी यही मानना है कि धर्म और विज्ञान का बाह्य स्वरूप भले ही पृथ्वी के दो ध्रुवों अथवा ग्रीष्म-शीत ऋतु के प्रभाव की तरह सर्वथा भिन्न दिखे पर अन्तस्तल में एक है। ये दोनों सर्वथा एक दूसरे के पूरक है। दोनों में से किसी एक की अवहेलना करने पर निकाला गया निष्कर्ष अधूरा ही होगा। पदार्थ में चेतना को सक्रिय तथा चेतन का अस्तित्व बनाए रखने के लिए भौतिक पदार्थों की आवश्यकता अनिवार्य ही है। दोनों का समत्व ही विश्व को वर्तमान स्वरूप प्रदान कर सका है। इन्हें पृथक् करने पर तो अधूरे और भटकाव भरे परिणाम ही समाने आएंगे।
स्वामी विवेकानन्द ने धर्म की वैज्ञानिकता घोषित करते हुए कहा था कि “मेरा अपना विश्वास है कि बाह्य ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जिन अन्वेषण पद्धतियों का प्रयोग होता है। उन्हें धर्म क्षेत्र में भी प्रयुक्त किया जाना चाहिए। यह कार्य जितना शीघ्र हो उतना ही अच्छा। यदि कोई धर्म इन अन्वेषणों से ध्वस्त हो जाएं तो यही समझना चाहिए कि वह निरर्थक था। ऐसा धर्म जो तर्क, प्रमाण व उपयोगिता की दृष्टि से खरा न उतरे लुप्त हो जाना एक श्रेष्ठ घटना होगी। इस अनुसंधान के फलस्वरूप सारा मल धुल जाएगा तथा धर्म के उपयोगी और आवश्यक तत्व अपनी प्रखरता के साथ समाने आएँगे।
इस तरह धर्म के क्षेत्र में व्याह रहे अन्ध-विश्वास जैसी अनावश्यक चीजों का सफाया हो जाएगा। वस्तुतः वैज्ञानिक तरीकों से प्राप्त होने वाले ज्ञान में अंतर्ज्ञान तत्व अन्तर्निहित हैं, जबकि आत्मचेतना का प्रकाश भी सत्य को प्रदर्शित करता हैं। दोनों ही रहस्यमय हैं और जैसा कि विलियम जेम्स स्पष्ट करते हैं “जीवन का सत्य रहस्य की दिशा में ही है। रहस्य में वास्तविकता भी हों सकती हैं और अनावश्यक पथ–भ्रष्टता भी। अतएव जब सत्य की दिशा में अग्रसर हुआ जाय तब ध्यान रहें कि मनोवैज्ञानिक सत्य छुपने ने पाए। उसके लिए यह परमावश्यक हैं कि धर्म और विज्ञान दोनों ही मिलकर पथ प्रदर्शन करें। विज्ञान की पहुँच जहाँ तक हैं वहाँ तक का ज्ञान देकर धर्म का मार्ग प्रशस्त करें और धर्म का यह दायित्व बन पड़ता हैं कि वह वैज्ञानिक उपलब्धियों की संगति बिठाकर उस अपूर्णता को दूर करे जो विज्ञान के लिए आगे बढ़ने में आकस्मिक अवरोध के कारण उत्पन्न होती हैं।
यह सुनिश्चित तथ्य व सार्वभौमिक शाश्वत सत्य हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक सिक्के के दो पहलू हैं अथवा दो ऐसे ज्ञान के प्रवाह वाले निर्झर हैं, जिनका उद्गम स्थल एक ही पर्वत हैं। क्षेत्र की भिन्नता के कारण उनका स्वरूप भले ही भिन्नता के कारण उनका स्वरूप भले ही भिन्न दिखाई पड़े पर वे एक ही महाप्रयोजन की पूर्ति करते हैं।
अध्यात्म और विज्ञान एक ही परम सत्य को दो विभिन्न दिशाओं में खोज करने में संलग्न होते हैं। जैसे-जैसे प्रगति की ओर अग्रसर होते है वैसे-वैसे एक दूसरे के अधिकाधिक निकट पहुँचते जाते हैं। विज्ञान जड़ जगत की संरचना व क्रिया पद्धति का निर्धारण, विवेचन करता है साथ ही यह भी स्पष्ट करता है कि उसका अधिक से अधिक सदुपयोग कैसे और किस तरह किया जाय ? धर्म चेतना जगत के आवरण खोलता है और रहस्यों को उद्घाटित करता है और बताता है कि विश्व-ब्रह्माण्ड की इस अद्भुत शक्ति का व्यक्ति और समाज के उन्नयन में श्रेष्ठतम उपयोग उपयोग क्या है ? जड़ और चेतन के द्विविध रहस्यों का अनावरण व सदुपयोग की विधा जानने व सीखने के लिए हमें अध्यात्म व विज्ञान का समन्वय-सन्तुलन बिठाकर ही आगे बढ़ना होगा।