गणितीय नियमों से संचालित सृष्टा के क्रियाकलाप!

June 1988

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सृष्टा को नियन्ता को अनिवर्चनीय, अगम्य कर संबोधित किया गया हैं एवं वह यह कहा जाता रहा हैं उसके खेल निराले हैं। यह सही हैं किन्तु एक तथ्य अपनी जगह सत्य है। वह यह कि .... हर क्रियाकलाप सुव्यवस्थित क्रमबद्ध हैं। सृष्टि के एक घटक मनुष्य को ही लें तो हम पाते हैं कि .... प्रकार गणितीय प्रक्रिया में प्रश्न-उत्तर की जटिलता बावजूद एक से नौ तक के अंक की संख्याओं का ही आयोजित सोद्देश्य प्रयोग होता हैं, उसी प्रकार मानवी .... प्रणाली भी एक स्थिर गणित के आसपास घूमती चाहे हृदय की धड़कन हो, रक्त का प्रवाह हो .... ग्रंथियों का रसस्राव हर प्रक्रिया गणितीय .... से संचालित है। जैसे ही यह गणित गड़बड़ाता है, .... काया विकृति को प्राप्त हो रुग्णता को जन्म देने .... है। वस्तुतः चेतन सत्ता सृष्टि के हर घटक के .... में चाहे वह विज्ञात हो अथवा अविज्ञात, सतत् .... है। इसी नियमबद्धता, सुव्यवस्था के कारण .... वैज्ञानिक श्रुतियों-ग्रन्थों में सृजेता की सत्ता की .... का गान करते आए है।

चेतन सत्ता की सुव्यवस्था की एक छोटी सी एक मानव काया के अवयवों की सुनियोजित शीतलता के रूप में देखी जा सकती है। ये अंग .... मात्र उपकरण हैं जिनके माध्यम से चेतना अपनी .... का विकास कही महान लक्ष्य की ओर अग्रसर .... है।

मानव हृदय का भार पूरी काया के भार का 0.5 प्रतिशत होता है। हृदय की सक्रिय रूप से सतत् रक्त की .... , आकुंचन-संकुचन प्रक्रिया, विभिन्न परिस्थितियों परिवर्तन के साथ तालमेल बिठाने की क्षमता तनिक सूझबूझ से परे के स्तर की कलाकारितायुक्त द्वमत्ता की परिचायक है। कवियों-दार्शनिकों ने .... को भावनाओं की केन्द्र स्थली माना है। शरीर में .... की .... हमारे जीवन में संवेदनशीलता की भी एक निश्चित मात्रा की आवश्यकता है। उसके बिना आदमी आदमी नहीं रहता। यदि यह मात्रा कम हो गयी तो व्यवहार में पशुता बढ़ जाती है और यदि वह अनियंत्रित रूप से बढ़ गई तो अव्यावहारिकता को जन्म देती, अतिभावुकताजन्य मनोरोगों को आमंत्रण देती है। बड़ा और छोटा दिल दोनों ही विकृति के सूचक है। हृदय में निहित भावनाओं की उत्कृष्टता ही उसे देवतुल्य, जगत्वंद्य महामानव बना देती है। वस्तुतः जो भी कुछ नियन्ता ने प्रदत्त किया है उसकी न्यूनाधिकता ही सारी गड़बड़ी का कारण होती है। किसी एक क्षेत्र में अधिक क्रियाशीलता तथा अन्य क्षेत्रों की उपेक्षा विघटनकारी होती है।

दिल की धड़कन का गणित बहुत ही विचित्र है। प्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञानी डा0 अलेक्सीस कैटेल लिखते है कि यह समस्त प्रक्रिया इतनी विलक्षण है कि देखकर आश्चर्य होता है कि कैसे बिना किसी दृश्य संचालक के यह सब क्रिया व्यापार इतना सुव्यवस्थित रूप में चल रहा है। जब बालक गर्भाशय में पल रहा होता है, उसके हृदय की धड़कन 110 से 140 प्रति मिनट होती है। यह एक असामान्य गति है। जन्मोपरांत यह थोड़ी कम होती है व फिर उम्र तथा स्वास्थ्य के अनुरूप 70 तथा 80 के बीच स्वतः निर्धारित हो जाती है। शारीरिक अथवा मानसिक दबाव के पड़ने व बढ़ने पर हृदय की गति भी बढ़ जाती है। चिंता, आतुरता की स्थिति में दिल धक-धक करता है। विश्रान्ति, शिथिलीकरण धैर्य एवं मानसिक समस्वरता की स्थिति में हृदय अपनी स्वाभाविक अथवा थोड़ी कम ही गति से धड़कता है जो कि शुभ चिह्न है। एक विशिष्ट दबाव पर ही हृदय सिकुड़ता व फैलता है व यही दबाव रक्तचाप (ब्लडप्रेशर) कहलाता है। इसमें थोड़ा भी व्यतिरेक आने पर यह लो या हाई ब्लड प्रेशर की बीमारी में बदल जाता हैं। केवल सही हृदय की गति एवं सही रक्त दाब की शरीर व मस्तिष्क के सभी अवयवों-जीवकोशों का समुचित पोषण कर पाते है। दिल एक सीमा तक ही अपने गणित को घटा-बढ़ा सकने की क्षमता रखता है। उस सीमा के परे जाते ही वह चीख उठता है-छाती में दर्द होता है एवं इस स्थिति को दिल का दौरा पड़ना अथवा हार्ट अटैक कहा जाता हैं उसके स्वयं की माँसपेशियों का रक्त संचार एवं अंग अवयवों की आक्सीजन रूपी प्राण शक्ति की पूर्ति इससे प्रभावित होती है। हृदय का गति-चक्र हमें एक अनुशासन सिखाता है कि अपना उद्देश्य भुलाकर अनुशासन तोड़ते ही सृष्टा की व्यवस्था हमें दण्ड दे सकती है। हम अपने कर्त्तव्य व उत्तरदायित्वों की उपेक्षा किसी भी स्थिति में न करें। यदि हुई तो जीवन के दैनन्दिन क्रियाकलापों में वैसा ही झटका लगने की संभावना है, जैसा कि दिल के दौरे के समय शरीर को लगता व वह बिस्तर पकड़ लेता है। दिल शायद बिना चीखे मायोकार्डियल इन्फाक्शन के रूप में उसमें स्थायी विकृति को जन्म दे दे पर जीवात्मा की चीख, अन्तरात्मा का रुदन उसे अधोगति की ओर ही ले जायेंगे। शरीर की सूक्ष्म संरचना, रासायनिक क्रिया-प्रति क्रिया, जीवकोषों में विद्युतावेश का परिवहन तथा अवयवों में संभावित व हो चुके परिवर्तन वैज्ञानिकों द्वारा देखे समझे तो जाते है, पर यह जटिल प्रक्रिया किसी असीम सर्वोच्च सत्ता के इशारे पर चल रहा कठपुतली का खेल है, यह विचार सतत् मन में आते रहना चाहिए। चेतन सत्ता से संबंधित स्वयं को मानने पर ही स्वयं के क्रियाकलाप तदनुरूप बन पड़ते हैं। हम शरीर के .... को ही सब कुछ मान बैठते है किन्तु यदि शरीर की .... से प्राप्त ज्ञान का परिष्कार कर माल सत्ता का विस्तार किया जा सके तो हम मात्र शरीर नहीं रहने, चेतना की अनन्तता से जुड़ जाते है।

रक्त में पाये जाने वाले श्वेत कोशों (डब्ल्यू0 बी0 सी0) की संख्या सामान्यतः .... से 11000 प्रति क्यूविक मिलीमीटर तथा उनका जीवनकाल 30 से 120 दिन का होता है। इस गणित में थोड़ा सा भी बदलाव आने पर हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली सीधे प्रभावित होती है। विभिन्न प्रकार के वायरस शरीर पर आक्रमण कर देते है। कैंसर जैसे असाध्य रोग शरीर में घर कर लेते हैं, रक्तकोशों की संख्या निर्धारित संख्या से कम हो तो भी घातक व सीमा रेखा से अधिक हो जाएँ तो भी शरीर को ल्यूकीमिया (रक्त कैंसर) होने का खतरा है। क्षेत्र में शरीर गणितीय नियमों से संचालित है।

पेट में खाना पचाने के लिए अम्ल की आवश्यकता पड़ती है। उसकी स्रवित होने वाली मात्रा तथा आत्म शक्ति एन बाय टेन (हृ/10) सुनिश्चित होती है। इस गणित में थोड़ा भी परिवर्तन हुआ तो पाचन क्रिया कि कृत हो जाती है। भूख नहीं लगती, खट्टी डकार आती हैं, खाना खाने को मन नहीं करता व फिर .... प्रकार की उलझनें जन्मती चली जाती है। पेट में .... जाने वाले अल्सर का निदान एक्सरे में देखे जाने पूर्व ही अम्लता का मापन कर संभव है। उपचार अम्लता की मात्रा के गणित को सही कर देने पर रूपेण हो जाता है। अधिक मात्रा में स्रवित होने व अम्ल को विभिन्न औषधियाँ उस सीमा तक कम देती है, जहाँ तक कि अनिवार्य हैं कष्ट आगे बढ़ नहीं पाता। किन्तु इसके बावजूद मनुष्य का खानपान व्यतिरेक के रूप में खिलवाड़ जारी रहता है तो अलग बढ़ता ही जाता है। एवं खून की उल्टी द्वारा अथवा पेट अंदर फूटकर अंतिम चेतावनी दे देता है। शल्य क्रिया ही तब सहारा रह जाती है। शरीर जिस प्रकार स्वस्थ रहने के लिए गणितीय संतुलन की माँग करता है, व अंतःकरण अपनी स्थिरता बनाये रखने तथा गुण के विकास हेतु सतत् आत्मिक पोषण की माँग करते है ताकि देवत्व का गणित गड़बड़ाने न पाए।

शरीर का साधारण ताप .... डिग्री फरनहीट लगभग होता है। जबकि रक्त का तापमान 100 .... फारेनहाइट। गर्म से गर्म तथा शीतलतम स्थान पर रक्त ताप में 1-2 से एक डिग्री का भी अंतर नहीं आता थर्मांस्टेटिक व्यवस्था द्वारा ताप का संतुलन बिठा लिए जाता है। बाहर चाहे कितनी भी प्रतिकूलताएँ हम अपने आपे को, मनःसंतुलन को बनाये रखें, .... व जिजीविषा की विचलित न होने दें, रक्त तापमान गणित अनायास ही यह शिक्षण दे जाता है।

दिनभर में हम लगभग 1500 मिली लीटर .... ग्रहण करते हैं एवं इतनी ही मात्रा प्रश्वास, त्वचा मूत्र के माध्यम से निकाल देते है। इसमें जरा भी व्यतिक्रम आते ही शरीर का जल लवण (एसिडबेस) संतुलन लड़खड़ा जाता है। यह शरीरगत क्रिया पद्धति को ही नहीं मन को भी प्रभावित करता व कभी कभी “कोमा” की स्थिति ला देता है। इस संतुलन को यथावत् बनाये रखने के लिए नाना प्रकार के लवण, एन्जाइम्स तथा विद्युत्रासायनिक प्रक्रियाओं का जटिल जाल क्रियाशील रहता है। यह इतना विस्तृत, सूक्ष्मतम एवं सुनियोजित है कि इसकी क्रिया पद्धति वैज्ञानिकों को भी हैरत में डाल देती है। एक चेतन सत्ता प्यास को बढ़ाकर, कम कर अथवा विसर्जन की मात्रा को कम-अधिक कर, रक्तवाही नलिकाओं को प्रभावित कर गणित संतुलन बिठाये रखती है। यह एक सीमा तक ही होता है। इससे पेर जाते ही सुव्यवस्था के पाये चरमरा जाते है। जल-लवण संतुलन की तरह ही मनुष्य के अंदर श्रद्धा एवं भावुकता का विवेक सम्मत संतुलन होना चाहिए। यदि दुराचारी के प्रति बैठाली तो रोगी काया की तरह हमारा जीवन भी विकार ग्रस्त होकर ही रहेगा।

काया में जहाँ कहीं देखें, गणित का ही खेल दिखाई पड़ता हैं रक्त में प्रोटीन, वसा, शर्करा, कैल्शियम, पोटेशियम, सोडियम आदि की मात्रा गणितीय आधार पर ही ग्रहण की एवं स्थिर रखी जाती है। शरीर को जितना चाहिए, भोजन में उसे उतना ग्रहण कर शेष को बाहर निकाल देता है। रक्त में कैल्शियम 1 से 11 मिलीग्राम प्रति 100 मिली लीटर की सीमा निर्धारित है। रक्त का धर्म अपरिग्रह का है। यदि उसे परिग्रही होने पर विवश कर दिया जाये तो मधुमेह व गुर्दे की बीमारी परिणति के रूप में हो जाते है। आहार का व्यतिक्रम शरीर का सुव्यवस्थित परिष्कार बर्दाश्त नहीं कर पाता व अंततः विद्रोह कर बैठता है क्योंकि अनुशासन की अवहेलना की गयी। सत्पुरुष संग्रही नहीं होते, अनावश्यक अपव्यय नहीं करते, जितना ब्राह्मणोचित है, उतना ही ग्रहण करते है। इसी कारण वे बिना किसी विकार से ग्रस्त हुए अपनी संत प्रकृति सादगी के होते बनाये रहते व अपनी विभूतियों से दूसरों को लाभान्वित करते रहते है।

शरीर का रेखा गणित तो और भी विचित्र है। हमारे पैरों में जो हड्डियों का आर्च बना हुआ है, वह इतना सुनियोजित है कि शरीर भार का पूरा संतुलन बनाये रखने एवं किसी भी प्रकार के “शाक्स” को झेलने की क्षमता रखता है। ऐसा लगता है किसी गणितज्ञ ने निश्चित कोण पर विभिन्न बिंदु एवं त्रिभुज निर्धारित कर सारा ढाँचा रचा हो। रीढ़ की हड्डियों का कर्वेंचर, उंगलियों का नुकीलापन, हथेली में गद्दी तथा सीने का पेट से आगे बढ़ा हुआ होना प्रकृति की सुव्यवस्था का ही संकेत है। इस नियम में, रेखागणित की व्यवस्था में जब कभी गड़बड़ी कर दी जाती है, हमारे क्रियाकलाप प्रभावित होते है, संतुलन बुरी तरह डगमगा जाता है।

गणित के नियमों का परिपालन परिस्थितियों के अनुकूल स्वयं को बनाने के लिए रक्त के लाल व श्वेतकोश भी करते है। प्रतिकूल परिस्थितियों में कई श्वेत कोश मिलकर बड़े जायण्ट सेल (दैत्य कोश) बन जाते हैं जो कि एक विशेष भूमिका के लिए जन्म लेते है। इनमें कई नाभिक होते है। जीवनी शक्ति बढ़ाने में इनकी, मेक्रोफेज तथा मास्टसेल्स की बढ़ी महती भूमिका होती है। टी0सी0 के जीवाणु का मुकाबला करने के लिए जहाँ टी0बी0 दैत्य जन्म लेते है, वहाँ बाहर के किसी विजातीय विकारों से निबटने हेतु फारेन बॉडी जायण्ट सेल्स की उत्पत्ति होती है। बहुधा इनके आकार व स्वरूप के आधार पर ही बीमारी का निदान होता है।

मानवी काया के दृश्य क्रियाकलापों के मूल में चेतन सत्ता ही मूलतः क्रियाशील होती है। यह एक नियमबद्ध गणितीय प्रणाली में कार्य करती है एवं एक ही संकेत देती है कि यहाँ कुछ भी निरुद्देश्य एवं अनपढ़ नहीं है। जो कुछ भी हलचलें मानवी सत्ता, जीव-जगत, प्रकृति आदि में दृश्यमान हैं, वे एक बुद्धिमत्तापूर्ण व्यवस्था का ही अंग है। इस तथ्य को समझते हुए हमें उस अविज्ञात, अनिर्वचनीय सत्ता के अनुशासन का मानना व जीवन में भी उतरना चाहिए। यही मूलतः आस्तिकता का तत्वदर्शन है।


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