प्रभा मण्डल द्वारा पढ़ा जाएगा मनुष्य अब ?

June 1988

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मनुष्य मात्र हाड़ माँस का वह पिण्ड नहीं हैं जो बाह्य रूप से दीखता हैं, वरन् वह चेतना का सूक्ष्म रूप हैं जो मृत्यु के बाद भी बचा रहता हैं। चेतना के इस सूक्ष्म शरीर की जानकारी काया के चारों ओर छाये बादलों जैसे धुन्ध से होती हैं, जिसके प्रभाव से प्रत्यक्ष देखा और अनुभव किया जा सकता हैं। इसका अपना एक विशिष्ट आकर्षण होता हैं। मानवी चुम्बकत्व की इस विशेषता को साधना क्षेत्र में प्रभामंडल या तेजोवलय के रूप में जाना जाता हैं। अँग्रेजी में इसे ही हेलो या आँरा कहा जाता हैं। यों समस्त शरीर में उसकी मात्रा होती हैं, पर आवाज की भाँति शरीर से निकलकर दूर क्षेत्र में जाते ही उसका प्रभाव कम हो जाता हैं। कहा जाता हैं कि शरीर से निकलते समय यह विद्युतधारा अत्यन्त तीव्र होती हैं। जिसके शरीर में तेजोवलय जितना अधिक प्रखर होता हैं। वह उतना ही अधिक प्रभावशाली होता हैं। यह वलय प्रभाव सामर्थ्य के अनुरूप भला भी हो सकता हैं और बुरा भी। अपने-अपने ढंग का आकर्षण और प्रभाव दोना में रहता हैं। समीपवर्ती व्यक्ति तथा वातावरण उसी के अनुरूप प्रभावित होते हैं।

आभामंडल की सर्वाधिक मात्रा चेहरे पर होती हैं। अवतारों, देवताओं एवं महापुरुषों क चित्रों में उनके चेहरे के इर्द-गिर्द सूर्य जैसा एक घेरा चित्रित किया जाता हैं। यह इसी अदृश्य प्रदीप्त मंडल का चित्रण हैं। ज्ञानेन्द्रियों का जमघट तथा मस्तिष्क का विद्युत भण्डार एक ही जगह हैं, इसलिए चेहरा सबसे अधिक आकर्षक एवं प्रभावशाली होता है। मोटे तौर पर चेहरे का देखकर कितने ही व्यक्ति बहुत कुछ जानने और समझने में सफल हो जाते हैं। आकृति देखकर प्रकृति का अनुमान लगाने वाले सूक्ष्मदर्शी नाक, कान, आँख, मुँह आदि की बनावट को नहीं, वरन् चेहरे के चारों और उमड़ते-घुमड़ते तेजोवलय को ही परखते हैं और उसी के आधार पर व्यक्ति के आन्तरिक व्यक्तित्व का प्रभाव एवं परिचय प्राप्त करते हैं।

सामान्यतया रंग, रूप, का आकर्षण हर किसी को मुग्ध करता हैं यदि तेजोवलय तद्नुरूप न हुआ तो कुछ ही समय में वह मूल्याँकन बदल जाता हैं। रूपवान् काया में भी विषधर सर्प जैसी विद्रूपता प्रकट हो सकती हैं एवं अष्टावक्र, सुकरात की तरह कुरूप व्यक्ति भी सिर आँखों पर बिठाये जाने लगते हैं। साज-सज्जा द्वारा तो शरीर की कुरूपता एक सीमा तक छिपायी भी जा सकती हैं, पर तेजोवलय के सूक्ष्म शरीर पर किसी भी प्रकार पर्दा नहीं डाला जा सकता। सुविकसित अन्तःकरण सम्पन्न व्यक्तियों को किसी भीतरी स्थिति को पहचानने में देरी नहीं लगती हैं।

जिस तरह ताप, विद्युत, चुम्बक जैसी ऊर्जाएं अपनी विशेषताओं के अनुरूप व्यक्तियों एवं पदार्थों पर प्रभाव डालती हैं, उसी प्रकार आँरा का विद्युत मंडल समीपवर्ती क्षेत्र, सम्बन्धित व्यक्तियों एवं पदार्थों में अपना प्रकाश-प्रभाव फैलता रहता हैं। यही मनुष्य की चेतना का सूक्ष्म शरीर हैं, जिसकी वास्तविकता को अब वैज्ञानिक खोजों द्वारा भी प्रमाणित किया जा रहा हैं। सेण्ट थामस अस्पताल, लन्दन के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक वाल्टर जे0 किल्नर ने अपनी पुस्तक “द ह्यूमन एटमोस्फियर” में लिखा है कि प्रभामंडल किन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों में ही नहीं प्रत्युत सभी व्यक्तियों तथा प्राणिमात्र में होता हैं। प्रत्येक प्राणी की स्थूल काया के चारों ओर वलय रूप में ईथरिक फोर्स फील्ड या बायोप्लाज्मा को घेरा प्रकाश के रंगों और लहरों के रूप में विद्यमान होता हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों में यह भिन्न-भिन्न प्रकार का होता हैं उनके अनुसार यह आशा सदैव एक सी नहीं रहती। समय-समय पर उसमें बदलाव आता रहता हैं और यह रंग परिवर्तन स्वास्थ्य में आये उतार-चढ़ाव की ओर इंगित करता हैं। चिकित्सा क्षेत्र में रोग निदान के रूप में उन्होंने इसका सफल, प्रयोग भी किया हैं।

वस्तुतः हमारी आँखों की देखने की एक निर्धारित के अस्तित्व .... विवेकपूर्ण। वह इस सीमित दायरे की ही वस्तु को देख प्रकार हुआ। भौतिक विज्ञानियों का कहना हैं कि हमारे नेत्र परिवर्तन ह्राश किरणों का पकड़ सकते हैं जिनकी तरंग इनकार क॰ से ... मिली माइक्राँन सीमा क्षेत्र में आती सृष्टि कोसे अधिक या कम तरंग लम्बाई के प्रति नेत्रों के में सर्वन्तु असंवेदनशील होते हैं, फलतः उन्हें हम नहीं देख पाते। प्रभामंडल इसी सीमा के अंतर्गत आता हैं जिसे सामान्य दृष्टि से नहीं देखा जा सकता किन्तु वैज्ञानिक उपकरणों के माध्यम से इसे नापा और जाना जा सकता हैं। ह्यूमन आँरा पर पाश्चात्य देशों में विस्तृत अनुसंधान सतत चल रहे हैं। इसका मापन व फोटोग्राफिक अंकन भी अब संभव हो गया हैं।

प्रभामंडल का चित्राँकन सर्वप्रथम रूस के प्रख्यात वैज्ञानिक सेमयन किर्लियन ने किया। उन्हीं के नाम पर बाद में इसे किर्लियन फोटोग्राफी के नाम से जाना जाने लगा। इसकी खोज उस समय हुई जब किर्लियन अपनी प्रयोगशाला में एलेक्ट्रोथेरेपी के ऊँची आवृत्ति वाले यंत्र की मरम्मत कर रहें थे। अचानक उनने अपने शरीर से छोटे-छोटे प्रदीप्त कणों को प्रकट होते देखा तथा अनुभव किया, स्थूल काया के अन्दर कोई विशिष्ट ऊर्जा तत्व विद्यमान हैं। बाद में उनने अपनी पत्नी के सहयोग से आभामंडल का चित्रित करने की विधि खोज निकाली और एक विशेष प्रकार के यंत्र का विकास किया। अब इस यंत्र द्वारा मनुष्य के सूक्ष्म शरीर का-जिसे विज्ञान की भाषा में “बायोप्लाज्मा” अथवा “बायोलॉजिकल प्लाज्मा बॉडी” कहा जाता हैं, छाया चित्र लेना संभव हो गया हैं। इस क्षेत्र में काफी शोध अनुसंधान भी हुए है। इतना ही नहीं, शरीर शास्त्रियों एवं मनः शास्त्रियों प्राणियों के व्यवहार पर भी इसके प्रभाव का अध्ययन किया हैं।

थियोसोफी के विद्वानों के अनुसार यह आभामण्डल “इथरीक डबल” के रूप में भौतिक शरीर से एक चौथाई इंच बाहर उभरा रहता हैं, किन्तु फोर्स फील्ड के रूप में यह उससे कई इंच और अधिक बाहर तक फैला होता हैं। विज्ञान भी अब इस स्वीकार करने लगा हैं कि मनुष्य शरीर के अन्दर कोई दिव्य चेतन ऊर्जा विद्यमान हैं जिसकी विद्युत चुम्बकीय तरंगें सतत् बाहर विकिरित होती रहती हैं। इसमें चुम्बकत्व तथा विद्युत के कुछ गुण विद्यमान होने पर भी यह स्वयं न तो विद्युत हैं और न चुंबकत्व। तीक्ष्ण रंगों व किरणों के रूप में इसे देखा और ताप के रूप में अंकित किया जा सकता हैं। सामान्यतः जीवधारियों के शरीर से 2 से 4 इंच बाहर तक इस ऊर्जा का प्रसार होता हैं। वैज्ञानिकों ने प्राणियों के इस प्रभावीकरण को “बायोफ्लक्स” नाम दिया हैं। उनके अनुसार मनुष्य की स्थिति में यह आयु स्वास्थ्य, थकावट, मूड एवं भावनाओं के अनुरूप परिवर्तित होता रहता है। योगाभ्यास द्वारा इसे उभारा और शरीर से निकाला जा सकता हैं एवं जीवधारियों तथा मनुष्य को इससे प्रभावित-प्रेरित किया जा सकता हैं। इतना ही नहीं वृक्ष-वनस्पतियों तथा जड़ पदार्थों में भी इसके द्वारा प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता हैं। एकाग्रता के माध्यम से इस दूर तक संप्रेषित किया जा सकना भी संभव हैं।

मात्र मानवी काया से ही नहीं वरन् अन्य प्राणियों व वनस्पतियों में भी प्रभा विकिरण को जाँचा परखा गया हैं और पाया गया हैं कि प्रत्येक प्रजाति के हर सदस्य तथा हर सदस्य के विभिन्न अंग-अवयवों का अपना अलग और स्पष्ट तेजोवलय होता हैं। इस संदर्भ में मूर्धन्य वैज्ञानिक डाँ0 थेल्मा मास ने अनेकों प्रयोग परीक्षण किये तथा जीवित प्राणियों एवं वनस्पतियों के किर्लियन तथा आर्गन विधि द्वारा फोटोग्राफ लिये। उनके अनुसार प्राणियों की दीप्तिशीलता परिवर्तित होती रहती हैं। पौधों से तुरन्त अलग की गई पत्तियों के जब चित्राँकन किये गये तो उनसे चिनगारियों जैसे चमकदार स्फुल्लिंग निकलते दिखाई दिये। जैसे-जैसे पत्तियाँ सूखती जाती हैं। जिससे प्रकट होता हैं कि पत्ती के “बायोप्लाज्मबाडी” की मृत्यु हो गई। हरी पत्ती के कुछ अंश काटकर चित्र लेने पर भी पत्ती के छायाचित्र का पूर्ण तेजोवलय अंकित हो जाता हैं।

मनुष्य शरीर के किसी अंग अवयव के कट जाने पर उसमें समाहित चेतना नष्ट नहीं होती वरन् अपना रूप-रंग और आकार बनाये रखती हैं। इस तथ्य की पुष्टि जैव-भौतिक विज्ञानी विक्टर एडामेन्को तथा जान ह्राबेचर ने अपने अनुसंधानों के आधार पर की हैं। उनके अनुसार कटे हुए भाग का किर्लियन विधि से छायाचित्र लेने पर शेष शरीर के साथ उस अंग का भी प्रभामंडल आ जाता हैं। यह प्रक्रिया चिकित्सा शास्त्रियों की उस धारणा को प्रमाणित करती हैं जिसमें कभी-कभी किसी व्यक्ति के शरीर का कोई भी भाग कट जाने या काट दिये जान पर भी उसे उक्त अंग में दर्द की अनुभूति होती रहती हैं। चिकित्सा क्षेत्र में इसे “फैन्टम लिम्बपेन” कहा जाता हैं। इन वैज्ञानिकों का कहना हैं कि वस्तुतः उस अंग के प्लाज्मा बॉडी का मरण नहीं होता वरन् सम्पूर्ण काया के चेतन शरीर के साथ उसकी एकरूपता सदैव बनी रहती हैं जिससे रोगी को “फैन्टमपेन” का अनुभव होता रहता हैं। एडमेन्को के अनुसार मनुष्य में भावनात्मक, उत्तेजनात्मक तथा सम्मोहन जैसे विभिन्न चेतना स्तरों के साथ किर्लियन फोटो में भी नाटकीय परिवर्तन आते रहते हैं।

नोबुल पुरस्कार विजेता प्रो0 डगलस ए.डीन के अनुसार मानवी अंगुलियों के पोरुओं तथा हथेली के चारों ओर के आभामंडल से किसी के भविष्य में रोगी होने, न होने की संभावना व्यक्त की जा सकती हैं। फरवरी ... के अंतिम सप्ताह में “बायोइलैक्ट्रोग्राफी” पर पाण्डीचेरी में हुई एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में अपने शोध निष्कर्ष बताते हुए प्रोफेसर डीन ने कहा कि उन्होंने पोलेराइड इंस्टाण्ड फिल्म एवं बायोइलैक्ट्रोग्राफ की मदद से मात्र दो मिनट में प्रभामण्डल का मापन व रो का निदान कर पाने में वे सफल हुए हैं। अपने इसी कार्य पर उन्हें नोबुल पुरस्कार भी मिल चुका हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि अगले दिनों “आरामापन” चिकित्सा विज्ञान में एक महत्वपूर्ण स्थान ले ले।

वस्तुतः अब इस विधा का उपयोग चिकित्सा विज्ञान में विभिन्न रोगों के निदान के रूप में किया भी जाने लगा हैं। ट्यूमर, आर्थ्राइटिस, कैंसर जैसे रोग इस विधि में फोटो प्लेट पर गर्म क्षेत्र के रूप में धूमिल, धब्बेदार या फलास्कनुमा परिलक्षित होते हैं। रोगों की निकट भविष्य में होने की संभावना से भी व्यक्ति का प्रभामंडल बदल जाता है। इस आधार पर रोगों की पूर्व सूचना प्राप्त कर उनका पूर्व उपचार निदान भी किया जा सकता हैं। मद्राज यूनिवर्सिटी के चिकित्सा विज्ञानियों ने भी एक ऐसा कैमरा विकसित किया हैं जिसके द्वारा इस प्रकार की फोटाग्राफी ली जा सकती हैं। रोगी व्यक्तियों पर उनने इस प्रकार के कई प्रयोग परीक्षण भी किये हैं। उनका कहना हैं कि स्वस्थ और अस्वस्थ व्यक्तियों की चेतना मंडल का आकार व रंग अलग-अलग प्रकार का होता है। इस आधार पर शरीर के भीतर छिपे रोगों की जानकारी प्राप्त करने में भी उनने सफलता पाई है। अब तक उनने एक हजार से अधिक व्यक्तियों के तेजोवलय के चित्र खींचे हैं और उसके आधार पर यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि प्रत्येक व्यक्ति का प्रभामंडल उसके विचार और व्यक्तित्व के अनुरूप होता है। सिद्ध पुरुषों, महामानवों की तुलना में सामान्य व्यक्तियों के प्रदीप्त मंडल क्षीण होते हैं। इसके अतिरिक्त संकल्पवान, चरित्रनिष्ठ, प्रभावशाली लोगों में यह अधिक देदीप्यमान पाया गया हैं। शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्तियों के प्रभामंडल चमकीले तथा स्पष्ट होते हैं जब कि हेय जीवन जीने एवं दुश्चिंतन में डूबे रहने वालों में यह धुँधला होता हैं। डाँ0 डेविड शीनकिन तथा टेड डान जैसे ख्यातिप्राप्त वैज्ञानिकों की भी यहीं धारणा है कि आभामंडल की प्रदीप्तिता-उज्ज्वलता मनुष्य की भावना और चेतना की उत्कृष्टता पर अवलम्बित हैं। साधना, समाधि के समय साधकों का प्रदीप्त मंडल बहुत चमकीला एवं विस्तृत जाता हैं। इसका कारण वैज्ञानिकों ने भावना, विचारणा एवं अन्तःकरण की पवित्रता, उत्कृष्टता को माना हैं।

यह सुनिश्चित है कि व्यक्तित्व की आभामंडल पर भारी छाप रहती हैं। प्रायः यह जन्म-जन्मांतरों के प्रयास, अभ्यास एवं संस्कारों के आधार पर विनिर्मित होता हैं, पर मनुष्य अपनी स्वतंत्र चेतना का उपयोग करके उसे बदल सकता तथा बढ़ा सकता हैं। सामान्य स्तर के व्यक्ति इस बने बनाये तेजोवलय के अनुरूप अपना स्वभाव और कर्म बनाये रहते हैं, पर मनस्वी साधक अपनी दृढ़ ़ संकल्प शक्ति से अभ्यस्त बाह्य एवं आन्तरिक स्थिति में आश्चर्यजनक परिवर्तन कर लेते हैं। तत्पश्चात् तेजोवलय भी उसी के अनुरूप बन जाता है। तप साधना के उच्चस्तरीय प्रयोग उपचारों की व्यवस्था प्रभामंडल के प्रखरीकरण की महती उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही बनाई जाती हैं। सत् तत्वों से ओत प्रोत प्रभामंडल में परिवर्तन ही आध्यात्मिक कायाकल्प है।


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