सत्संकल्प की सुखद परिणति

June 1988

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उषा-काल का मनोरम समय था। अरुण देव भगवान भास्कर के रथ का संचालन करते हुए प्राची दिशा से झाँक रहे थे। उनके तेजोमुख की लालिमा से गगन दीप्त था। धरती की गोद में सुरम्य उद्यान में लगे पादपों की कलियाँ जहाँ मंद-मंद मुस्करा रही थी, वहीं पुष्प खिलखिला रहे थे।

उद्यान के एक कोने में मंदार के पुष्प अपने सौंदर्य के नशे में डूबे, मकरंद के वैभव-विलास के आहं में इतरा रहे थे। वही दूसरे कोने में चाँदनी की छोटी पौध भी थी। उस पर लगे नन्हें-नन्हें पुष्प छुईमुई की तरह मंदार के अहं भाव से घबराए सकुचाएं से थे। मंदार पुष्पों में से एक ने चाँदनी के पुष्प की ओर-उपेक्षा भरी दृष्टि से देखते हुए हँसी उड़ाने वाले भाव से कहा “अरे! तुम्हारा भी कोई जीवन है। रुग्ण जैसी दिखाई पड़ने वाली दुर्बल काया। रंग बिरंगी रूप राशि और मकरंद की विपुल सम्पदा भी मुझे मिली है।”

उसकी हेय दृष्टि से सकुचाई-सी चाँदनी चुपचाप सुनती रही। पर मन ही मन उन सबने संकल्प लिया। अपने को संघबद्ध कर-चतुर माली को सौंप देने का गोधूलि बेला में मालाकार आया। चाँदनी के पुष्पों का मूक आमंत्रण आकर्षित कर उसे उनके पा ले गया। माली ने उन्हें अपनाया और सुन्दर ढँग से एक माला के रूप में पिरो लिया।

साँयकाल-उद्यान के सामने बने देव मन्दिर में देव प्रतिमा के गले में माला अर्पित की गई। चाँदनी के पुष्प प्रसन्न थे। उन्हें अपने सत्संकल्प का सुखद परिणाम पाकर संतोष था।

चाँदनी पुष्पों के सुखद गौरवपूर्ण स्थान को देखकर मंदार पुष्पों का अहं गल गया। उन्होंने चाँदनी से इस गौरवमयी स्थिति का रहस्य पूछा। चाँदनी ने विनम्रता भरे स्वर में उत्तर दिया “बन्धुवर! सहयोग−सहकार-स्नेह का सद्भाव तथा अनुशासन ही इसका रहस्य है। हम सबने अपने को मालाकार के अनुशासन में सौंप दिया। हम में किसी प्रकार का अहं न होकर सहयोग और सहकार की प्रवृत्ति थी। न तो विग्रह था, नहीं द्वेष। हम सभी एक महान लक्ष्य को समर्पित थे। इसी के कारण प्रेम के पवित्र सूत्र में आबद्ध होना सहज ही स्वीकार किया। मालाकार जैसे योग्य गुरु ने इन परिवत्राओं के कारण ही हम सभी को वह स्वरूप प्रदान किया, जिसके कारण हम सभी अब प्रभू की मूर्ति के गले में शोभा पा रहे हैं।”

मंदार पुष्पों ने एक जिज्ञासा और की “क्या इसके लिये तुम्हें कुछ त्याग भी करना पड़ा ?” चाँदनी ने कहा “-कुछ अधिक नहीं! मात्र स्वार्थ की संकीर्ण प्रवृत्ति जिसे मेरे गुरु मालाकार ने सुई से छेद-छेद कर अन्तर मन से निकाल दिया और उसकी जगह दिया प्रेम का सूत्र। बस यही है गौरव प्राप्ति का रहस्य।” अब तो मंदार पुष्पों का अहं पूरी तरह से गल गया। स्वार्थ संकीर्णता को त्याग वह भी पूरी तरह शिष्य भाव से मालाकार के हाथों अर्पित होने की प्रतीक्षा में खड़े थे।


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