धूलि ही कहीं बिखरी पड़ी है। वह प्रकृति का उद्भव है। मलीनता और कूड़ा-करकट कहीं भी बिखरा जा सकता है। वह बिना बुलाये भी घर में घुस पड़ता है। कपड़े अनायास ही मैले होते रहते है। मनुष्य का भी ऐसा प्रमादी है जो पानी की तरह नीचे की ओर अनायास ही ढुलता रहता है। प्रमादी लोग कहीं भी कुचैले देखे जा सकते है। उनका रुझान सहज ही पतन-पराभव की दिशा में होता है। यदि सतर्कता न जाय तो मलीनता से लदा और घिरा रहना पड़ेगा।
हमारे मन की आदत भी ऐसी ही है। वह सर्वत्र संव्याप्त मलीनता की ओर अनायास ही खिंच जाता है। .... के साथ बहने में उसे सरलता और सुविधा प्रतीत होती है।
सुरुचि सम्पन्न इस अनुपयुक्तता को ध्यान में रखते हैं और अपने को अनगढ़ समुदाय में सम्मिलित होने से .... रहते है। हाथी नदी में स्नान करने के उपरान्त भी बाहर निकलते ही धूलि अपने ऊपर छिड़क लेता है। धुला हुआ कपड़ा पहनने के बाद भी उसे लोट-पोट कर मैला कर लेते है। क्या हमें भी ऐसा ही करना चाहिए ?
मनुष्य से सुसंस्कृत होने की आशा की जाती है और यह अनुमान लगाया जाता है कि वह अपनी .... का उपयोग भीतरी और बाहरी स्वच्छता बनाये रखने के लिये करेगा।