ज्योति जागरण एवं युग धर्म का निर्वाह।

January 1988

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पदार्थ जगत में उत्पादन अभिवर्धन, और परिवर्तन के दृश्य उपस्थिति करने के लिए निरन्तर गतिशील रहने वाली हलचलों का जो महत्व है, वही चेतना क्षेत्र में भाव श्रद्धा का है। शरीर-बल सीमित है। बुद्धि बल भी ससीम है। सम्पदा भी एक सीमा तक ही कमाई और बढ़ाई जा सकती है। चतुरता और कुशलता का भी एक तटबन्ध है। जीवन सीमित है। उसमें भी बहुत सा समय कौशल, वार्धक्य, निद्रा, मनोरंजन, नित्यकर्म, उपार्जन आदि में लग जाता है। ऐसी दशा में व्यक्ति का पराक्रम एक सीमा तक ही भौतिक वैभव का सम्पादन कर पाता है। जो करता है, उसे अशक्त या मृतक होने पद दूसरों के हाथों चले जाने का अनचाहा दृश्य देखना पड़ता है। जनता की स्मृति बहुत धुँधली है। वह कुछ ही दिनों में लोगों के प्रयत्न पुरुषार्थ, वैभव वर्चस्व आदि को भूल जाती है। विस्मृति के गर्त में गिर कर बड़े पराक्रमी भी लोक दृष्टि से ओझल हो जाते है; किन्तु आत्मिक जगत की श्रद्धा शक्ति अखण्ड ज्योति ऐसी है, जिसे शाश्वत ओर अविनाशी तो कहा ही जा सकता है। उसका उत्पादन भी ऐसा है, जो सृजेता की सामर्थ्य को घटाता नहीं, वरन् बढ़ाता ही चलता है। इसके अतिरिक्त उसके उत्पादन भी ऐसे है, जो किसी छोटी परिधि तक सीमित न रहकर अनेकानेक दिशाधाराओं का सूत्र-संचालन एक साथ करने लगते है, जबकि भौतिक शक्तियाँ सीमित प्रयोजनों का सामयिक स्तर ही उपार्जित कर पाती है। परिवर्तन का प्रकृति क्रम उनके स्वरूप को बदल देता है, उपयोगिता समाप्त कर देता है।

यों चेतना के भी अनेक पक्ष है। ऋद्धि-सिद्धि, योग, तप, अतीन्द्रिय क्षमताओं का जागरण जैसे अनेक चमत्कारी प्रयोजन भी उनसे पूरे होते रहते है; किन्तु चेतन तत्व की प्राण धारा श्रद्धा की अदृश्य शक्ति उपरोक्त दृश्य उपलब्धियों से कहीं अधिक बढ़-चढ़ कर है।

उत्कृष्टता श्रद्धा की देन है। निजी जीवन में आदर्शवादिता और व्यवहार जगत में परमार्थ-परायणता का स्तर ऊँचा रहे यह एक मात्र श्रद्धा शक्ति की सघनता और प्रखरता पर अवलम्बित है। अध्यात्म के तत्वदर्शन ने जिन आत्मिक विभूतियों की संभावनाओं पर प्रकाश डाला है। उन सब को श्रद्धा रूपी धागे में पिरोये हुए मणि-माणिक्य ही समझा जा सकता है। श्रद्धा चेतना क्षेत्र की उत्कृष्टता के रूप में ही अदृश्य से दृश्य बनती है। वही सामान्य को असामान्य बनाती है; वहीं दुबले हाथों से पर्वत उठाने जैसे पराक्रम पूरे कराती है; कलेवर रीछ-वानरों जैसा भले ही रहे; पर उपलब्ध स्वल्प साधनों में भी धारणकर्ता से समुद्र-सेतु बाँधने जैसे महान प्रयोजन पूरे करा लेती है। बुद्ध, गाँधी व ईसा की शारीरिक भौतिक विशेषताएँ सामान्यजनों जैसी थीं; पर उनके भीतर जो प्रचण्ड ऊर्जा का भाण्डागार भरा पड़ा था, उसे उनकी श्रद्धा ने ही उत्पन्न किया था। महामानवों की अविस्मरणीय कृतियाँ इसी आधार पर अभिनन्दनीय और अनुकरणीय बनी है। भौतिक जीवन में बलिष्ठता, चतुरता और सम्पन्नता के त्रिविधा समन्वय का जो प्रतिफल है, उससे कहीं अधिक उपलब्धियाँ चेतना क्षेत्र में उनकी श्रद्धाशक्ति के सहारे सम्भव है। क्षुद्र को महान बनाने की क्षमता मात्र उसी में है। जिसने श्रद्धा तत्व को सजीव समर्थ बना लिया, समझना चाहिए कि उसकी आत्म-साधना पूरी हो गयी। समस्त आत्म साधनाओं की चरम परिणति यही है कि व्यक्ति का अन्तःकरण रसमय हो जाय, आनन्द से ओत-प्रोत हो जाय। यही है वह रत्नाकर, जिसके मंथन से पौराणिक गाथाओं के अनुसार असाधारण शक्ति सम्पन्न चौदह रत्न निकले थे। श्रद्धा की गरिमा उससे ऊँची है। उसके गर्भ से चौदह लाभ-किरण पारस, कल्पवृक्ष, और अमृतघट भी निकल सकते है।

श्रद्धा तत्व ही अखण्ड, अविनाशी प्रकाश पुँज और विभूतियों का, ऊर्जाओं का भाण्डागार है। वह उसके अन्तराल में बसने वाला निराकार स्वरूप है। इसी का साकार स्वरूप है- ‘अखण्ड ज्योति’। जिस प्रकार निराकार भगवान की साकार प्रतिमाएँ बना कर देवस्थानों में प्रतिष्ठित की जाती है, उसी प्रकार यह माना जाना चाहिए कि खण्डित होने वाली-निरन्तर जलने वाली ज्योति के रूप में दृश्यमान अखण्ड दीपक का कलेवर प्रदान किया गया।

अब से प्रायः 60 वर्ष पूर्व इस मिशन के सूत्र-संचालक के अन्तराल में इस दिव्य आभा, ऊर्जा का अवतरण हुआ था। उसे अपने को अधिक पवित्र, अधिक प्रखर बनाने के लिए चौबीस वर्षीय गायत्री तपश्चर्या करने को कहा गया। वह यथासमय सम्पन्न हुई। उसी अवधि में न बुझने वाली घृतदीप के रूप में दृश्यमान अखण्ड-ज्योति की स्थापना हुई। प्रयोजन था- दृश्यमान श्रद्धा प्रतीक को अदृश्य अन्तःकरण में प्रकाशवान अनुभव करना। यह निराकार और साकार का संयुक्त समन्वय अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति में असाधारण भूमिका निभाता रहा और लक्ष्य के अधिकाधिक निकट पहुँचाने के लिए बलपूर्वक धकेलता रहा। इस प्रगतिक्रम में श्रद्धा का ब्रह्मवर्चस अपने ढंग से समर्थता और तेजस्विता का अभिवर्षण-अवतरण करता चला गया।

यह निजी जीवन का स्वतः अनुभव किया जाने वाला पक्ष हुआ। इस ऊर्जा केन्द्र को पिटारी में बन्द नहीं रखा जा सकता था। वह ‘स्वान्तः सुखाय’ था भी नहीं। उसका मूलभूत प्रयोजन विश्व मानव की वर्तमान चिन्तन-चेतना को उल्टे से उलट कर सीधा करना था। अस्तु आवश्यक समर्थता का संचार होते ही उस उत्पादन को अभीष्ट प्रयोजन में लगा दिया गया।

प्रकाश जलते ही अपने आप को, अपनी शक्ति के अनुरूप विस्तृत क्षेत्र को आलोकित करने का प्रयत्न करता है। वह अपने उदय क्षेत्र में ही सीमाबद्ध होकर नहीं रहता। उसके अस्तित्व का परिचय तो बहुत दूर वालों को भी मिलता है। भले ही वह मार्गदर्शन अपने समीपवर्ती छोटे क्षेत्र का ही कर पाये। ठीक यही बात उस केन्द्र पर लागू होती है। जो महाप्रज्ञा के रूप में दिव्य श्रद्धा के रूप में उदीयमान होता है। उसकी बहुमुखी दिव्य किरणें अनेक क्षेत्रों में अनेक प्रकार की परिणतियां उत्पन्न करती है।

सूर्योदय पर उसकी अनेक प्रतिक्रियाएँ, अनेक स्थलों पर अनेक रूपों में दीख पड़ती है। कमल पुष्प अनायास ही खिल पड़ते हैं मुरझाई हुई सूर्यमुखी सीधी हो जाती है और अपना मुख इधर-उधर से समेट कर पूर्व की ओर कर लेती है। चिड़ियां अपने घोसलों से निकल कर चहचहाने और फुदकने लगती है। सोये व्यक्ति बिना जगाये ही जग पड़ते और नित्यकर्मों में लगते है। कृषक, विद्यार्थी, शिल्पी सभी अपने-अपने व्यवसायों में लगते है। मंद मरुत शीतलता लिए हुए प्रवाहित होने लगता है। अन्धकार भरी तमिस्रा का समापन होता है। निशाचरों का आतंक समाप्त होता है और वे अपनी माँदों में जा छिपते है। ऐसा ही और भी बहुत कुछ होता है। यह सूर्योदय का प्रभाव है। महाप्रज्ञा की, भावश्रद्धा की अखण्ड-ज्योति का जब और जहाँ भी अवतरण होता है। वहाँ उसका प्रभाव सुदूर क्षेत्रों के अनेकानेक पक्षों को प्रभावित करते देखा जाता है। वह व्यक्ति विशेष तक या क्षेत्र विशेष तक या क्षेत्र विशेष तक सीमाबद्ध होकर बैठा नहीं रहता।

आत्म परिष्कार व्यक्तिगत साधना है। उसमें अपनी धुलाई-रंगाई, गलाई-ढलाई करनी पड़ती है। प्रथम चरण में यह आवश्यक नहीं हैं। तलवार पर धार धरी हुई न हो, तो वह मोर्चे पर कमाल दिखाने में किस प्रकार समर्थ हो सकती है? जंग खाया चाकू किस काम आयेगा? मलमूत्र से लिपटे कपड़े को कौन पहनेगा? कचरा भरे घर में निवास कर सकना किसके लिए सम्भव होगा। इसलिए आत्मशोधन की प्रथम प्रक्रिया पूरी करने के लिए अध्यात्म उत्कर्ष के इच्छुकों को यम-नियम के दसों अनुशासन पालने पड़ते हैं। चिन्तन, चरित्र

और व्यवहार में शालीनता का समावेश करना होता है। संयम की तपश्चर्या व्यवहार में उतारनी पड़ती है। आत्म-समीक्षा, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास के आधार अपनाने पड़ते है। व्रतशील बनना होता है और चिरसंचित कुसंस्कारों से पीछा छुड़ाना पड़ता है। यह अपनी निजी प्रतिभा में प्रखरता लाने की विधा हुई। यह पुण्य पक्ष कहलाता है। दूसरा पक्ष इसका अगला कदम है। उसे परमार्थ कहते है। आत्म चेतना जितनी ही परिष्कृत होती जाती है, उसे उसी अनुपात से व्यापकता अपनानी पड़ती है। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ का आदर्श हृदयंगम करना होता है, तब मान्यता ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की बन जाती है। सबमें अपने को .... में सबको देखना पड़ता है। हिलमिल कर रहने, हँसते-हँसाते जीने और मिल-बाँट कर खाने की सदाशयता को जीवनचर्या में समावेश करना होता है। सुख बाँट देने और दुःख बंटा लेने के लिए हर घड़ी मन चलता और कदम उठता रहता है। गिरों को उठाने, उठों को उछाल देने के लिए अन्तरात्मा बेचैन हो उठती है।

संकीर्ण स्वार्थपरता के दलदल में आकंठ धँसे हुए व्यक्ति मात्र दो ही प्रसंगों पर अपना चिन्तन और कर्तव्य सीमाबद्ध रखते है। एक पेट दूसरा प्रजनन। पेट की भूख उन्हें रोटी कमाने के लिए प्रोत्साहित करती है। वहीं बढ़े हुए रूप में लोभ का, तृष्णा का रूप धारण कर लेती है; यौवन का पदार्पण होते ही कामुकता का नशा भूत-पिशाच की तरह चढ़ता है और वह यौनाचार के लिए आकुल-व्याकुल रहने लगता है। इसी की तृप्ति के लिए आमतौर से विवाह किये जाते है। विवाह कुछ दिन तो उन्मादियों की तरह यौनाचार का प्रतीक बनता है। इसके कुछ दिल बाद बच्चे उत्पन्न होने का सिलसिला चल पड़ता है। संख्या बढ़ती जाती है और लालन-पालन से लेकर उनकी शिक्षा, शादी, आजीविका की चिन्ता लद पड़ती है। यह समूचा परिकर ऐसा है, जिसके जाल-जंजाल में मनुष्य को हर समय व्यस्त, अभावग्रस्त और चिन्तातुर रहना पड़ता है। मोह-पाश इसी को कहते है। इन जंजीरों में कसा हुआ मनुष्य अपने आपको मुश्कें कसे हुए कैदी की तरह असहाय अनुभव करता है। वासना, तृष्णा के अतिरिक्त एक और उन्माद है- अहन्ता का, महत्वकाँक्षाओं का बढ़-चढ़ कर प्रदर्शन करने का। यह रहता तो मन के किसी कोटर में है; पर इतने प्रकार के प्रपंच, पाखण्ड और अनर्थ करने के लिए बाधित करता है। जितने कि क्षुधा निवारण और वंश-वृद्धि के संदर्भ में भी नहीं करने पड़ते। इसलिए वासना, तृष्णा से भी बढ़ कर अहंता के अभिशाप को दुर्भाग्य का प्रत्यक्ष प्रतीक माना गया है। संकीर्ण स्वार्थपरता की यही परिधि है। इन्हीं को भवबन्धन कहते है। नरक के तीन द्वार इन्हीं को कहा गया है।

आत्मिक उत्कृष्टता का उदय होने पर अनायास ही यह बन्धन टूटते है। व्यक्ति परमार्थ परायण बनता है। सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन में प्रवृत्त होता है। वह प्रयास ही उसका लक्ष्य बन जाता है। सेवाधर्म की व्रतशीलता धारण करने और उन्हीं प्रयासों में अपने को होम देने के अतिरिक्त और न तो कुछ सुहाता है और कुछ करते बन पड़ता है। प्रगति पथ पर चलने के लिए यही एक राजमार्ग शेष रह जाता है।

अखण्ड-ज्योति को एक प्रतीक माना जाय, एक आदर्श कहा जाय, या उसे उसके आराधक का प्रतिनिधि स्वरूप माना जाय- हर हालत में उसकी ऐसी प्रकाश किरणें फूटनी चाहिए। जो युगधर्म की महत्ती आवश्यकताओं को पूरी करने में प्राणपण से कटिबद्ध दृष्टिगोचर हो। संक्षेप में एक ही शब्द द्वारा इस प्रयास का स्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है। वह है युग धर्म का निर्वाह। समय की चुनौती का स्वीकरण युग परिवर्तन। इस परिवर्तन के लिए जो कुछ आवश्यक है, उसके सुविस्तृत होते हुए भी सरंजाम जुटाने का संकल्प अखण्ड-ज्योति ने अब तक पूरा किया है और वह व्यक्ति विशेष का संचालन उठ जाने पर भी अनन्त काल तक अपनी ज्योति-ज्वाला ज्वलन्त रखें रहेंगी।


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