अपनों से अपनी बात - सृजन के लिये समयदान की याचना

January 1988

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अखण्ड ज्योति के प्रज्ञापुत्र इन दिनों ढाई लाख है। पिछले 50 वर्ष में वे 500 प्रतियों से आरम्भ होने वाली इस पत्रिका के सदस्य 500 गुने अधिक बढ़े हैं और वर्तमान स्थिति तक पहुँचे है। प्रगति के इस क्रम को देखते हुए सन् 88 में इनकी संख्या पाँच लाख की परिधि तक जा पहुँचना स्वाभाविक है। हर पत्रिका को 20 से कम व्यक्ति नहीं पढ़ते। इस प्रकार उनकी ग्राहकों और पाठकों की संख्या 50 लाख हो जाती है यह बहुत बड़ा- अपने ढंग का अनोखा परिकर है।

इसकी थोड़ी-थोड़ी सामर्थ्य भी यदि रचनात्मक कामों में लग सके तो युग सृजन के कार्य में चमत्कारी उपलब्धियां अर्जित की जा सकती है। सकती हैं शब्द में कुछ आशंका झलकती है। विश्वास किया जाना चाहिए कि वह संकल्प मूर्तिमान होकर ही रहेगा। देवताओं की संयुक्त-शक्ति से दुर्गा का अवतरण हुआ था। रीछ-वानरों से समुद्र-सेतु बाँधा था। ग्वाल बालों के सहयोग से गोवर्धन उठा था। अखण्ड ज्योति के प्रज्ञा पुत्र भी कुछ दिखा कर ही रहेंगे। ऐसा कुछ जिसके लिए वह अनुकरणीय और अभूतपूर्व शब्दों के साथ स्मरण रखा जा सके।

विश्वास किया गया है कि अखण्ड-ज्योति के प्रज्ञापुत्र अब तक इतनी प्रेरणा ग्रहण कर चुके है कि वे व्यवहारिक रूप से कुछ करने के लिए कटिबद्ध होंगे ही। इसके लिए आज का दिन ही सबसे उत्तम शुभ मुहूर्त है।

इस वसन्त पर्व से अखण्ड ज्योति परिवार के सभी परिजनों को नवसृजन के लिए नित्य कुछ समय निकालना है। यह समयदान ही वह आधार है जिनकी ईंटें मिलकर नवयुग का भव्य भवन खड़ा करेगी।

पिछले दिनों बतायी जाती रही कार्यपद्धति में इस बार कुछ ठोस और महत्वपूर्ण परिवर्तन-अभिवर्धन किया गया है। बौद्धिक नैतिक और सामाजिक क्रान्ति को अब (1) विचार क्रान्ति (2) आर्थिक-क्रान्ति (3) सामाजिक-क्रान्ति के रूप में समझा जा सकता है। बौद्धिक और नैतिक क्रान्ति को विचारक्रान्ति के अंतर्गत लिया गया है। आर्थिक–क्रान्ति का नया आधार जोड़ा गया है। सामाजिक क्रान्ति अपने स्थान पर यथावत है। यदि संघर्ष की भाषा में निरूपित किया जाय तो (1) अशिक्षा (2) गरीबी (3) संकीर्णता के विरुद्ध बोला गया जिहाद भी कहा जा सकता है। वस्तुतः यह तीन पिशाचिनी ऐसी है जिन्होंने समूचे मानव समुदाय को अपने शिकंजे में कस कर सब प्रकार दीन-मलीन बना दिया है। उन्हें सूर्पनखा ताड़का, और सुरसा की संज्ञा दी जा सकती है। इन्हें निरस्त करने में हममें से प्रत्येक को किसी न किसी रूप में भागीदार बनना है। इसी को यों भी कहा जा सकता है कि महाकाल के अंतःकरण की पुकार के अनुरूप अपने चिन्तन और क्रिया कलाप में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो चुका है। बात केवल समयदान की रह जाती है। वह भी संकीर्ण स्वार्थपरता में थोड़ी-सी कटौती कर लेने से सरलतापूर्वक हस्तगत हो सकता होगा। इस समयदान का उपयोग उपर्युक्त तीन प्रयोजनों में ही होगा।

अशिक्षा के विरुद्ध कुछ निर्धारित कदम पहले से भी उठ रहे थे अब वे सुनिश्चित और व्यवस्थित रूप से उठेंगे। (1) प्रौढ़शिक्षा (2) बाल-संस्कारशाला (3) युग साहित्य बिना मूल्य हर शिक्षित को घर बैठे उपलब्ध कराने की पुरानी प्रक्रिया में नये जोश-आवेश का समावेश करना है। बच्चों को स्कूल भेजने की बात तो अब प्रचलन में जुड़ गई है। उसके लिए चलती गाड़ी में और धक्के लगा देना ही जैसा कुछ करना पर्याप्त है। महत्वपूर्ण बात प्रौढ़शिक्षा की है। यदि उनके लिए व्यवस्थित पाठशालाऐं न बन सके तो दो-दो, चार-चार घरों की महिलाओं को एकत्रित करके 1 से 4 तक के समय में एक-एक घंटे की तीन प्रौढ़शालाएँ महिलाओं के लिए चल सकती है। पुरुषों के लिए रात्रि पाठशालाएँ ही उपयुक्त पड़ती है। इस संदर्भ में व्यक्तिगत रूप से भी इतना हो सकता है कि हर शिक्षित व्यक्ति न्यूनतम पाँच अशिक्षितों को साक्षर बनाने की प्रतिज्ञा ले और उसे निबाहें। स्कूल जाने वाले बच्चों के अवकाश के समय उनकी पढ़ाई पूरी कराने के लिए, उनमें सुसंस्कारिता का बीजारोपण करने के लिए खेल-कूद के लिए, रचनात्मक कामों में, स्काउटिंग में प्रवृत्ति पैदा करने के लिए यह व्यवस्था की जा सकती है। पढ़ाने के लिए खाली समय वाले शिक्षितों से समयदान माँगा जा सकता है।

जो पढ़े-लिखे, उन्हें सत्संग, युग साहित्य पढ़ने का चस्का लगाने के लिए उनके घर बैठे पुस्तकें पहुँचाने और वापस लेने का सरल किन्तु अतिमहत्वपूर्ण कार्य किया जा सकता है। शिक्षा-संवर्धन के लिए यह उपयोगी प्रयास है। विचार-क्रान्ति के लिए यह प्रारम्भिक प्रयास हर दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है, साथ ही सरल भी।

सामाजिक क्रान्ति के लिए विचार क्रान्ति वाले तरीके अपनाने पड़ेंगे। लोक-शिक्षण के लिए विचार गोष्ठियाँ ही कारगर उपाय है। लोगों को एकत्रित करने और उनकी भावश्रद्धा को झकझोरने के लिए “दीपयज्ञ” आगाजन अत्यन्त सफल हो रहें है। इनमें नाम मात्र का एक खर्च आता है। दो तीन घंटे में ही समूचा कर्मकाण्ड और भावभरा लोक शिक्षण पूरा हो जाता है। इन आयोजनों में सम्मिलित होने वालों को दुष्प्रवृत्तियों को छोड़ने और सत्प्रवृत्तियां अपनाने की देव-दक्षिणा देनी पड़ती है। अग्निदेव की साक्षी में लिया हुआ यह व्रत-संकल्प अन्तराल की गइराई तक उतरता है, स्मरण रहता है और पूरा होकर भी रहता हे।

प्रौढ़शिक्षा को अपने आन्दोलन में प्रमुखता इसलिए दी गई है कि देश के अधिकाँश प्रौढ़ नर-नारी अशिक्षित है। आज के समय में उन्हीं की प्रमुख भूमिका है। स्कूल तो वे जा नहीं पाते है। उनके लिए पढ़ाई की विशेष व्यवस्था से ही समय की माँग पूरी हो सकेगी।

दुष्प्रवृत्तियों में खर्चीली धूमधाम वाली, दहेज वाली शादियाँ अपने देश में एक आर्थिक अभिशाप है। इस प्रचलन को हटाने के लिए प्राणपण से प्रयत्न होना चाहिए। अभिभावक प्रतिज्ञा करे कि हम अपने बच्चों की शादियाँ बिना दहेज के करेंगे। वयस्क बालक प्रतिज्ञा करें-उनके विवाह नितान्त सादगी के साथ बिना दहेज के ही होंगे, अन्यथा वे आजीवन कुँवारे रहेंगे। ऐसे विवाहों का सुयोग यदि स्थानीय परिस्थितियों में न बन पड़े तो उनके लिए शान्ति कुँज में बिना खर्च की व्यवस्था है।

जाति-पाति, ऊँच-नीच, मृतक-भोज, बाल-विवाह, नशेबाजी आदि और भी ऐसे कुप्रचलन है, जिनके छोड़ने-छुड़ाने बचे रहने की प्रतिज्ञाएँ करनी चाहिए, जहाँ वे हो रहें हैं, वहाँ प्रदर्शन किये जाने चाहिए और सामाजिक दबाव डालने वाले अन्य प्रयत्न करने चाहिए।

धर्मतंत्र से लोकशिक्षण की प्रक्रिया अपने परिवार में बहुत समय से चल रही है। ज्ञानपीठें इसी निमित्त बनी है। अब जीवन शाखा-संगठन को वहाँ मान्यता दी गई हैं, जहाँ अखण्ड ज्योति के, युगशक्ति के, युगनिर्माण योजना के अधिक संख्या में ग्राहक-पाठक है। इन सभी केंद्रों में ऐसे कार्यकर्ता रहते है। अगले दिनों और भी बढ़ेंगे, जो अपने नगर में तथा सीमावर्ती क्षेत्रों में युगान्तरीय चेतना का अलख जगायें और उलटे को उलट कर सीधा करें, उसी को अपनी श्रम साधना से हरितिमा से भरी पूरी उर्वर भूमि बनायें।

विचारक्रान्ति में और भी कई बातें जुड़ती है। जिनमें सर्व प्रथम हैं-संकीर्ण स्वार्थपरता। व्यक्तिवाद ही सबके ऊपर भूत की तरह सवार है। निजी सम्पन्नता, अहंकार की पूर्ति, विलासिता के अतिरिक्त चिन्तन आगे बढ़ता ही नहीं। समूह की-समाज की-परमार्थ की-लोकमंगल की बात कोई सोचता नहीं। सम्प्रदाय, जातिवाद, प्रान्तवाद, भाषावाद के नाम आये दिन फूट-फिसाद होते हैं। राष्ट्रीय एकता-अखण्डता खतरे में पड़ती है। इन सभी समस्याओं का एक मात्र हल है-व्यक्तिवाद के स्थान पर समूहवाद की प्रतिष्ठापन। यही विचारक्रान्ति का केन्द्र बिन्दु होना चाहिए। धर्म और अध्यात्म का समूचा कलेवर इसी एक प्रयोजन के लिए विनिर्मित हुआ है। उस तत्वदर्शन से जन-जन को अवगत कराया जाना चाहिए।

एक सर्वथा नया कार्यक्रम इसी बार इसी वर्ष से आरम्भ किया गया हैं। वह है - आर्थिक–क्रांति। गरीबी से नीचे जीवन यापन करने वाले को उपार्जन के साधन प्रदान करके स्वावलम्बी और खुशहाल बनाने के लिए कार्य करना है। यह कार्य कुटीर उद्योगों के संवर्धन से हो सकता है। कृषि और पशुपालन के समुन्नत तौर तरीके अपना कर भी। या इन कार्यों को किसी प्रकार सरकार भी करती है। जहाँ कुछ हो रहा है वहाँ उनके कार्या में सहायता तो देनी चाहिए पर साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि लाल फीताशाही और आरामतलबी के वातावरण में ये उतना कुछ कर पायेंगे जितना कि अभीष्ट है तो इसकी आशा कम ही करनी चाहिए। इस क्षेत्र में अखण्ड ज्योति के परिजनों को अपने ढंग से प्रवेश करना चाहिए। अपने घर से आरम्भ करके उस प्रक्रिया को अपने संपर्क क्षेत्र में दूर-दूर तक पहुँचाने का प्रयत्न करना चाहिए।

बचत के कई अन्य तरीके भी है। उन्हें अपनाया जाय तथा सुविधा संवर्धन की दृष्टि से जो आवश्यक है उन कामों को हाथ में लिया जाय। इस दशा में एकाकी प्रयास तो अपने घर से आरम्भ किये जा सकते है। उनके अनुकरण का क्रम सहज ही आगे भी चल पड़ने की सम्भावना है।

बौद्धिक-नैतिक स्तर की विचारक्रान्ति के लिए अखण्ड ज्योति मिशन द्वारा युग निर्माण योजना के नाम से पहले भी बहुत कुछ कहा और किया जाता रहा है। पर आर्थिक-क्रान्ति को अभी इसी वर्ष से अपनी कार्यपद्धति में समाविष्ट किया गया है। इस निमित्त कितने ही नये कार्यक्रम हाथ में लिये गये है जिन्हें प्रत्येक समयदानी अपने क्रिया-कलापों में किसी न किसी रूप में सम्मिलित करें। घर परिवार में उनका प्रचलन करें और अपने संपर्क क्षेत्र में प्रभाव क्षेत्र में उसका प्रचलन करने के लिए ऐसा ही प्रयत्न करना चाहिए मानो वह सब निजी लाभ कमाने के लिए किया जा रहा हो। परमार्थ भी एक प्रकार से उच्चकोटि का निजी लाभ ही है।

वस्तुतः उसमें निजी लाभ भी कितने ही है। एक तो इस बहाने अधिक से अधिक लोगों के साथ संपर्क साधने का अवसर मिलता है, जो कभी भी किसी भी काम आ सकता है। दूसरा यह कि जो उद्योग दूसरों को चलाने के लिए कहा जाता है .... किसी को यदि बड़े पैमाने पर व्यावसायिक स्तर पर स्वयं करने लगा जाय तो अच्छी खासी आमदनी का एक अतिरिक्त स्त्रोत खुल सकता है। तीसरा यह है कि जिस क्षेत्र में अपना संपर्क है उसमें यदि खुशहाली का प्रगतिशीलता का कोई नया माहौल बनता है तो उसका श्रेय अपने को मिलेगा। यहाँ से आरम्भ किया गया लोक नेतृत्व जन सहानुभूति अर्जित करने के उपरान्त किन्हीं बड़े कार्या में हाथ डालने पर उनमें भी असाधारण सफलता मिलने की सम्भावना बनती है। इसके अतिरिक्त देश-सेवा का जन-कल्याण का पुण्य-परमार्थ तो प्रत्यक्ष है ही। जिसके कारण आत्मसंतोष जनसहयोग और पुण्य फल के आधार पर देवी अनुग्रह हस्तगत होने की प्रत्यक्ष सम्भावना रहती ही है।

आर्थिक–क्रांति का चूँकि इससे पहले कोई शिक्षण नहीं दिया गया इसलिए नये सिरे से छै-छै महीने के सत्र इस निर्मित शाँतिकुँज में इसी वसंत–पंचमी से आरम्भ किये जा रहें है। शिक्षार्थियों के लिए भोजन की आवास की निःशुल्क व्यवस्था रखी गई है। जो समर्थ है वे अपने भोजन व्यय का पूरा या आँशिक व्यय स्वेच्छा पूर्वक संस्था में जमाकर भी सकते है।

परिजनों से आग्रह किया गया है कि वे अपने लोगों में से ही एक शिक्षार्थी छै महीने के लिए शांतिकुंज भेजे। वह ऐसा प्रतिभावान होना चाहिए जो इस शिक्षा का अपने क्षेत्र में विस्तार कर सकने की क्षमता रखता है जिनका मानस भी इस प्रकार का है। इस छै मास की शिक्षा में 25 वर्ष से अधिक आयु के शिक्षार्थी ही लिये जायेंगे। पहला सत्र इसी वसन्त पंचमी (23 जनवरी 1988) से आरम्भ होगा। जिन्हें आना हो पत्र व्यवहार कर लें।


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