पाँच सौ गुना होना अपर्याप्त है!लक्ष्य हजार गुने का है!

January 1988

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अखण्ड ज्योति की अपनी प्रारम्भिक वर्षों में 500 प्रतियाँ छपती थी। प्रचार विज्ञापन कमीशन आदि का कोई तारतम्य नहीं बैठ पा रहा था क्योंकि उसकी नीति कागज छपाई पोस्टेज भर जितना मूल्य रखने की रही नफे की कोई गुँजाइश नहीं रखी गई थी। नुकसान देने की सामर्थ्य न थी इसलिये ‘न नफा न नुकसान’ की नीति प्रारम्भ से ही अपनाई गई। फिर उसके प्रचार पर खर्च कैसे किया जाता है? यह किस बिना विस्तार की आशा आरम्भिक दिनों में धूमिल ही रहीं।

पर दूसरा अप्रत्याशित मार्ग निकला। जिनने पत्रिका पढ़ी उनसे उसने दिशा ही नहीं शक्ति भी प्राप्त की। जो छपा था उसे पढ़ा ही नहीं वरन वह बलपूर्वक गले भी उतरा और इस अभिनव ओजस ने पाठकों का जीवन-क्रम ही बदल दिया। उनकी अगणित समस्याएं जो पग-पग पर उठती थी वे सभी शान्त हुई सुलझी। प्रगति का द्वार खुला। वे इस संपर्क काल में अपने में अपने वातावरण में असाधारण परिवर्तन देखने लगे। अधिकाँश पाठको को ऐसे ही अनुभव होते रहें। वे आकर्षित होकर सूत्र संचालक के अधिकाधिक होते रहें। उन्हें अनुभव होता गया कि कथनी और करनी की एकता का ही यह प्रभाव है जो पत्रिका के माध्यम से प्रकाश बनकर पाठकों तक पहुँचता है और उनके अंतःकरण को स्पर्श करते हुए जीवनचर्या के साथ घुल मिल जाता है।

समझने वालों ने उचित समझा कि इस आलोक वितरण का लाभ अपने संपर्क क्षेत्र का भी दिया जाय। फलतः पत्रिका की सदस्य संख्या अनायास ही बढ़ती चली गई। प्रकाश वितरण का क्षेत्र अधिकाधिक विस्तृत हो गया। उनने ने केवल व्यक्तित्व विकास में आशाजनक सफलता पाई, वरन् नवनिर्माण की सृजन योजना में उनके अनुदान की आशातीत भूमिका बनती गई। यही है पत्रिका के विगत जीवन का संक्षिप्त स्वरूप और फलितार्थ।

पचास वर्षों के जीवन काल में अखण्ड ज्योति इसी क्रम से एक-एक कदम आगे बढ़ती जा रही है और अपने पैर चट्टान की तरह सुदृढ़ आधार पर जमाती रही है अखण्ड ज्योति अब प्रायः ढाई लाख छपती है। 500 .... का गुना बढ़कर इस स्थान पर आ पहुंचा है। यह पत्र पत्रिकाओं के जीवन्त होने का एक अभिनव उदाहरण है। इनकी उपयोगिता तो सिद्ध इससे होती ही है उससे भी बड़ी बात यह है कि पाठकों ने उसे अपना व्यक्तिगत रूप से रोपा और सींचा गया वटवृक्ष समझा और उसके समर्थ स्वावलम्बी होने की अवधि तक पूरा-पूरा ध्यान रखने का प्रयत्न किया। लेखन एक बात है कि उसके साथ परिजनों ने पारिवारिकता का संबंध जोड़ा और उसके विस्तार हेतु समुचित ध्यान रखा।

जितना कार्य हो चुका उस पर गर्व तो किया जा सकता है पर उसे पर्याप्त नहीं माना जा सकता है। अस्सी करोड़ तो भारतीय जनता एवं 500 करोड़ की विश्व जनसंख्या को देखते हुए यह प्रकाश वितरण अत्यन्त अल्प है। अखण्ड ज्योति परिवार के घनिष्ठ आत्मीय सोचते हैं कि इस प्रकाश–तंत्र का विस्तार करने के लिए एक लम्बी छलाँग लगानी चाहिए एक आदर्श स्थापित किया जाना चाहिए। एक कीर्तिमान बनना चाहिए।

500 का पाँच गुना विस्तार जब हो सकता है तो इसे एक बारगी दूना कर देना क्यों संभव नहीं हो सकता? पाँच सो गुना दुखकर थका क्यों जाये? ढाई लाख हो सकता है तो पाठकों का उत्साह भरा प्रयास उसे पाँच लाख भी देखते देखते बन सकता है। यह आकाँक्षा मात्र मनोरथ बनकर क्यों रहे? उसे लक्ष्य बनकर साकार रूप धारण करने का अवसर क्यों न मिल सके।

इस वर्ष सभी प्रतिभावान परिजनों को अपने संपर्क क्षेत्र को छान डालना है और देखना है कि उनका प्रभाव कितना काम कर सकता है।? उसमें कितनी सफलता प्राप्त करने का दमखम है? यदि विचारशीलों के साथ जन संपर्क पर निकला जाये अपनी पत्रिकाओं के नमूने नये लोगों को दिखाये जाये ज्योति की ....


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