लोक शिक्षण के बहु आयामीय प्रयोग!

January 1988

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ऋषियों की कार्यपद्धति में प्रधानतया लोक-शिक्षण की प्रक्रिया जुड़ी रही है। देवात्मा हिमालय को उसी का केन्द्र माना जा सकता है। दृश्य अदृश्य जगत में उन्हीं के द्वारा दिव्य चेतना का अजस्र अनुदान दिया जाता रहा है। उसी दिव्य सत्ता का प्रतीक केन्द्र गायत्री तीर्थ है जिसे शान्ति कुंज के नाम से जाना जाता है। वह भी कलेवर भर है उसमें प्राण-चेतना का संचार उसी उद्गम से होता है जिसे अप्रत्यक्ष रूप में अखण्ड-ज्योति में सन्निहित प्राण-ऊर्जा कहा जा सकता है। इस माध्यम से उसी प्रशिक्षण की सर्वांगपूर्ण व्यवस्था होती है जिसे लोक-शिक्षण, जनमानस का परिष्कार, व्यक्ति निर्माण प्रतिमा संवर्धन आदि के रूप में देखा जाना जाता है। इसे ऋषि-परम्परा का निर्वाह भी समझा जा सकता है। अब तक की प्रगति का पर्यवेक्षण करते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि यह दैवी चेतना की अनुकृति है, जिसका श्रेय भले ही किन्हीं मनुष्य देहधारियों को मिलता हो।

शिक्षण की कई विधाएँ हैं और वे एक दूसरे की पूरक है। समस्त अवयवों के मिलने से एक सम्पूर्ण काया बनती है। इसी प्रकार दिव्य शिक्षण की गंगा में अनेक छोटी-बड़ी सरिताएँ मिलकर उसे सुनियोजित-सुसम्पन्न बनाती है। उन सहायक धाराओं में से स्वाध्याय और सत्संग का उल्लेख पिछले पृष्ठों पर किया जा चुका है। स्वाध्याय की सर्वांगीण एवं सामयिक आवश्यकता पूरी करने के लिए युग साहित्य की एक हजार से ऊपर छोटी-बड़ी पुस्तकें लिखी गई और छपी है। उनका अनुवाद, प्रकाशन देश की अधिकाँश भाषाओं में हुआ है। यह प्रवाह अभी रुका नहीं है अखण्ड-ज्योति पत्रिका उद्बोधन की प्रमुख धारा है। वह पढ़ने के बाद किसी कोने में फेंक नहीं दी जाती; पर पन्ने फट-टूट जाने पर भी सम्बन्ध बनाने वालों में न बुझने वाली प्राण प्रेरणा फूँकती रहती है। यह स्वाध्याय पक्ष हुआ।

सत्संग के लिए बहुत बड़े समारोह, सम्मेलनों को अब बन्द कर दिया गया है; क्योंकि उनसे उत्साह भर उभरता है, पारस्परिक विचार-विनिमय के लिए समय ही नहीं मिला पाता। इसके बिना सत्संग धमाल भर बन कर रह जाता है। नई नीति-गोष्ठियाँ आयोजित करके विचार-विनिमय की परामर्श की है। इसके लिए शान्ति-कुंज में 500 प्रज्ञा परिजनों का जीवन-साधना प्रशिक्षण दस-दस दिनों के खण्डों में पूरे वर्ष भर चलता है और उसे सदा-सर्वदा जारी रखने का योजनाबद्ध चिरस्थायी निर्धारण है। सरकारी कर्मचारियों के लिए संस्थागत कार्यकर्ताओं के लिए प्रायः एक-एक सप्ताह के प्रशिक्षण शिविर अलग से लगते है। उसके लिए निवास भोजन, प्रवचन कक्ष आदि की सुव्यवस्था इसके अतिरिक्त रखी गई है। वह धारा भी इन दो वर्षों में आशाजनक सत्परिणाम लेकर बहती रही है। योजना यह है कि समस्त भारत के सत्ता-सम्पन्नों को इसी प्रकार अगले बीस वर्ष तक कर्तव्यनिष्ठ और लगन भरी ईमानदार सेवासाधना का पाठ पढ़ाते हुए उनकी क्षमता एवं प्रतिभा को बढ़ाते हुए नवसृजन में महती भूमिका निभाने के लिए कटिबद्ध किया जाय।

अखण्ड-ज्योति कार्यक्षेत्र अब तक हिन्दी भाषियों तक रहा है। अब अगले ही दिनों उसे इसी रूप, कलेवर, एवं चिन्तन से ओत-प्रोत रखते हुए भारत की सभी भाषाओं में प्रकाशित किया जाये। ऐसा ही सर्वतोमुखी साहित्य प्रकाशन तंत्र भी खड़ा किया जाय। आवश्यकता पड़ने पर उसे विकेन्द्रित करते हुए बहुक्षेत्रीय भी बनाया जा सकता है।

संपर्क क्षेत्र में ज्ञान गोष्ठियों की अभिनव योजना बनी है। लक्ष्य का प्रतीक यज्ञ को कहा जाता रहा है। यज्ञ अर्थात् निजी जीवन में पुण्य और सामाजिक क्षेत्र में परमार्थ। इस प्रतीक को स्थिर रखा जाय, ताकि उसे उद्घोष के रूप में दृश्यमान रखा जा सके और उस आकर्षण के सहारे अधिक लोगों को उनकी श्रद्धा-भावना उभारते हुए उन्हें सहज एकत्रित किया जा सके। इसके उपरान्त उन्हें मन स्थिति और परिस्थिति के अनुरूप अधिक प्रगतिशील बनाने के लिए संकल्पशील व्रतबद्ध किया जा सके। यही है उन्हें रचनात्मक कामों में समय लगाते रहने के लिए वचन बद्ध करने का उपाय। यही है संक्षेप में दीप यज्ञ प्रक्रिया जो आर्थिक दृष्टि से नितान्त सस्ती दृश्य की दृष्टि से नितान्त मनोरम और विचारशीलों को एकत्रित करने के लिए चुम्बक जैसी प्रक्रिया है। सौ रुपये जैसी स्वल्प पूँजी में सौ कुण्डी यज्ञ हो जाता है और उन वेदियों पर प्रायः 400 याजक आसानी से बैठ सकते है। एक घण्टे में यज्ञीय कर्मकाण्ड के हर पक्ष पर प्रेरणाप्रद व्याख्या करते हुए और दो घण्टे का ज्ञान यज्ञ जिसमें संगीत और प्रवचन दोनों का समावेश रहता है। पूरा कार्यक्रम तीन घण्टे में निपट जाता है। प्रातः 7 से 10 तक। जहाँ रात्रि अनुकूल पड़ती हो वहाँ समय आगे-पीछे करके वैसी व्यवस्था भी बन जाती है। यह बड़े सत्संगों की बात हुई जिसमें हर दिन प्रात-सांय व्यवस्था जुटती रहे तो दोनों मिलकर 800 व्यक्ति युग-चेतना का आलोक उपलब्ध करते रह सकते है। उन्हें बौद्धिक नैतिक और सामाजिक प्रगति का पक्षधर बनाया जा सकता है। यह सब तेजी स चल पड़ा है और अगले दिनों उनकी गतिशीलता निश्चित रूप से तीव्र होगी। इस आधार पर लोक-मानस का लक्ष्य प्राप्त करने में बड़ी सीमा तक अग्रगामी बना जा सकता है। इस अभियान की लपेट में सारे सारे जनसमुदाय को समेटा जा सकता है। समेटा भी जा रहा है।

बात व्यक्ति निर्माण और परिवार निर्माण की आती है। उसके लिए एक कुण्डी दीप यज्ञ हर घर परिवार में किये जा रहे है। थाली में पाँच गुच्छे अगरबत्तियों के पाँच छोटे घृत दीप बस इतना भर है कर्मकाण्ड का समग्र सरंजाम जिसका खर्च एक घण्टे के आयोजन में एक रुपया आत है। यह धार्मिक एवं श्रद्धासिक्त वातावरण बनाने के लिए है। साथ ही इस माध्यम से यह शिक्षण सम्पन्न होता है कि कोई भी व्यक्ति अपने यहाँ या पड़ोस में छोटा-बड़ा दीप यज्ञ सम्पन्न कराने के कर्मकाण्ड का अभ्यस्त हो सकें। व्यापक प्रसार कार्य सस्ते में हो सके और धर्म श्रद्धा के साथ जुड़ा होने के कारण उत्साहवर्धक प्रतिफल भी उपस्थित कर सके।

हर परिवार में दीप यज्ञ होने के पीछे यह उद्देश्य सन्निहित है कि उस परिवार की बहुमुखी प्रगति के लिए परिस्थितियों के अनुरूप पथ-प्रदर्शन किया जा सके। इसमें व्यक्ति और समाज निर्माण के सभी पक्षों पर प्रकाश डाला जाना सम्भव है। परिवार वस्तुतः व्यक्ति और समाज की मध्यवर्ती कड़ी है। यदि परिवार को सुसंस्कृत और प्रगतिशील बनाया जा सके तो उसके दोनों सिरे स्वयमेव सभ्य सुसंस्कृत एवं समुन्नत बनते चले जायेंगे। अग्निहोत्र के अवसर पर उपस्थित रहने वाले हर किसी को एक अभ्यस्त बुराई छोड़ने और एक अधूरी सत्प्रवृत्ति को पूर्ण-परिपक्व करने का व्रत लेना पड़ता है। यही है वह कारगर कदम जिसके सहारे पतन को निरस्त और उत्थान को गतिशील परिपुष्ट बनाया जा सकता है।

आशा की गई है उपरोक्त दीप यज्ञ माध्यम को अपना कर सामूहिक आयोजन और परिवार गोष्ठी आयोजन समर्थ बनाये जा सकेंगे। घर-घर में अलख जगाने का गाँव-गाँव नवयुग का संदेश पहुँचा सकने का उद्देश्य थोड़े ही समय में पूरा किया जा सकेगा। इस आधार पर आदिवासियों के झोपड़ों से लेकर सुसम्पन्नों के घर-बँगलों तक पहुँचा जा सकेगा। उन्हें समय की चुनौती से अवगत कराने-उसे स्वीकार करने के लिए सहमत किया जा सकेगा। शिक्षण की यह एक नवीनतम दिशा धारा है।

प्रौढ़शिक्षा बाल -संस्कारशाला श्रम सेवा स्वास्थ्य-संवर्धन कुरीति उन्मूलन के लिए खड़ा किये जाने वाले रचनात्मक, कार्यक्रम अपने साथ एक सशक्त विचार धारा भी भरे रहते है। जिसे क्रिया करते-करते साथ संक्षेप में, किन्तु अतिप्रभावशाली ढँग से समझा-समझाया जा सकता है।

रेडियो-टेलीविजन की इन दिनों बड़ी धूम है। उनके प्रसारण करोड़ों लोग सुनते है, किन्तु विवशता यह है कि उन पर पूरी सरकारी नियंत्रण है। वहाँ तक पहुँच बनाना और युग-चेतना के प्रसारण की आवश्यकता समझाना कठिन है। ऐसी दशा में अपने स्वल्प साधनों पर सीमित रहने के अतिरिक्त फिलहाल कोई और चारा है नहीं। वर्षा बरसने की प्रतीक्षा में नियत कर्म किये बिना बैठा रहता है। अपने उपलब्ध साधनों से ही हर कोई काम चलाता है। महँगे थियेटरों और सिनेमाघरों का बोलबाला होते हुए भी कठपुतलियों का तमाशा अभी भी जीवित है। करोड़ों की लागत वाले सरकस अपनी जगह मुबारक, पर बाजीगर मदारियों की बिरादरी अभी भी छोटे ग्रामीणों का मनोरंजन करते हुए अपना निर्वाह व्यवसाय चलाती ही रहती है। हमें भी उनसे प्रेरणा क्यों नहीं लेनी चाहिए।

रेडियो की आँशिक आवश्यकता टेप और टेप रिकार्डर पूरी करते है। उनमें प्राण फूँकने वाले युग-संगीत का समावेश किया जा सकता है। नवजीवन का संचार कर सकने वाले प्रवचन भरे जा सकते है। कभी ग्रामोफोनों की धूम थी। शक्तिशाली लाउडस्पीकर बजते थे और कर्ण भेदी कोलाहल होता था। उतना न बन पड़े, तो हर्ज नहीं। टेप रिकार्डर झोली में डाल कर घर-घर जाया जा सकता है। अलावों-चौपालों पर एकत्रित दस पाँच की भीड़ को भी इन टेप रिकार्डरों द्वारा पारंगत प्रतिभाओं का गायन एवं भाषण सुनाया जा सकता है। इस प्रक्रिया को अपनाने के लिए सभी प्रज्ञापुत्रों को उत्साहित किया गया है। टेप पुराने हो जाने पर उन्हीं पर नये अंकन करा लेने की शान्ति-कुंज में व्यवस्था बनी हुई है। इसे स्वल्प साधन वालों को छोटा घरेलू रेडियो स्टेशन कहा जा सकता है। यह युग निर्माण योजना के अंतर्गत चल रहा है और आगे उसे और भी अधिक प्रोत्साहन मिलेगा।

टिटहरी ने समुद्र से अंडे वापस लेने के लिए चोंच से बालू भर कर पाटने और अपना प्रण पूरा करने की हठ ठानी थी और समुद्र न पट सकने पर भी वह अण्डे वापस लेने में सफल हुई थी। गिलहरी का उदाहरण भी ऐसा ही है। वह अंगद-हनुमान नल-नील जैसी समर्थ तो नहीं थी, फिर भी उसने स्वल्प सामर्थ्य को दाँव पर लगा कर सेतु बाँधने के लिए अपने बालों में भर कर बालू पहुँचाई थी। युग बदलने का समय कब आयेगा? यह तो नहीं कहा जा सकता; पर यह निश्चित है कि अखण्ड-ज्योति और उसका समूचा परिकर इस प्रयास के लिए अपने आपको समर्पितों की श्रेणी में खड़ा करेगा कर रहा है।

वरिष्ठ प्रचार माध्यमों से दूसरा सशक्त माध्यम है-दूरदर्शन। अपने हाथ उतनी ऊँचाई छू सकने जितने तो नहीं है, पर सस्ता उपकरण वीडियो अपना लिया गया है। उस पर लोकशिक्षण के समस्त आवश्यक आधारों को फिल्माया गया है। गायन अभिनय संवाद, कथानक, प्रवचन, रचनात्मक कार्यक्रमों का स्वरूप उसी के कैसेटों में भर दिया गया है। अनीति अवाँछनीयता, मूढ़मान्यता, कुरीतियाँ जैसी विकृतियों के उन्मूलन का स्वरूप एवं परिणाम भी कथानक रूप में इन्हीं वीडियो कैसेटों में अंकित रहता है। मूर्धन्य लोकसेवियों के लोक संदेश भी इन्हीं कैसेटों पर टेप कर लिये जाते है, इन्हें शान्ति-कुंज के प्रवचन हाल में तो आगन्तुकों को दिखाया ही जाता रहता है।, इसके अतिरिक्त अपना वीडियो कैसेट लाने वालों के लिए उसकी नकलें उतार दी जाती है। इन दिनों वीडियो छोटे देहातों में भी पहुँच चुके है। गली-मुहल्लों में भी वी. सी. पी. मिल ही जाते है। इस प्रकार घर में बैठकर थोड़े- से आदमी भी इन्हें सुनते रहते है और दूरदर्शन प्रदर्शन की आवश्यकता छोटे रूप में पूरी करते रहते है। यही है लोक शिक्षण के अनेकानेक प्रयोग जिन्हें अखण्ड-ज्योति का पौत्र शान्ति-कुंज अपने ढंग से पूरा करता रहता है।


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