अखण्ड-ज्योति की प्रकाश प्रेरणा से अनेकों महत्वपूर्ण और दर्शनीय सेवा संस्थाओं की निर्धारण हुआ है। वे अपने-अपने प्रयोजन को आशातीत सफलता के साथ सम्पन्न कर रहे हैं। उनमें से मथुरा में विनिर्मित गायत्री तपोभूमि युग निर्माण योजना से प्रज्ञा परिवार का हर सदस्य परिचित है। आचार्य जी की जन्मभूमि में स्थित शक्तिपीठ से जुड़े लड़कों के इण्टरमीडिएट कालेज लड़कियों के इण्टर महाविद्यालय तो अधिकाँश ने देखे है। इसके अतिरिक्त देश के कोने-कोने में विनिर्मित चौबीस सौ प्रज्ञा संस्थानों की गणना होती है। इन सभी को दूसरे शब्दों में “चेतना विस्तार केन्द्र” कहना चाहिए। इन सभी में प्रधानतया जन-मानस के परिष्कार को प्रशिक्षण ही अपनी-अपनी सुविधा और शैली से अनुशासन में बद्ध रहकर चलता है।
हरिद्वार का शांतिकुंज-गायत्री तीर्थ और ब्रह्मवर्चस देखने में इमारतों की दृष्टि से अपनी स्वतंत्र इकाई जैसे दीखते है। पर यदि कोई इनके निर्माण का मूलभूत आधार गहराई में उतरकर देखे तो वे सभी अखण्ड-ज्योति के अण्डे-बच्चे दिखाई पड़ेंगे। यहाँ यह समझ लेना भी आवश्यक होगा कि वह पत्रिका मात्र नहीं है, उसमें लेखक का सूत्र संचालक का दिव्य प्राण भी आदि से अन्त तक घुला है अन्यथा मात्र सफेद कागज को काला करके न कहीं किसी न इतनी बड़ी युग-सृजेताओं की सेवा वाहिनी खड़ी की है और न इतने ऊँचे स्तर के इतनी बड़ी संख्या में सहायक-सहयोगी अनुयायी ही मिले है। फिर इन अनुयायियों की भी यह विशेषता है कि जिस लक्ष्य को उनने हृदयंगम किया है। उसके लिए निरन्तर प्राणपण से मरते-खपते भी रहते है। देश के कोने-कोने में बिखरी हुई प्रज्ञा पीठें, हरिद्वार और मथुरा की संस्थाएँ जो कार्य करती दीखती है उनके पीछे इन्हीं सहयोगियों का रीछ-वानरों जैसा भी और अंगद-हनुमान, नल-नील जैसा पराक्रम एवं त्याग काम करता देखा जा सकता है। यह सब अनायास ही नहीं हो गया। उन्हें बनाने, पकाने और शानदार बनाने में कोई अदृश्य ऊर्जा काम करती देखी जा सकती है। उसकी तेजस्विता और यथार्थता हजारों बार हजारों कसौटियों पर कसी जाती रही है और सौ टंच सोने की तरह खरी उतरती रही है। चमत्कार उसी का है। कौतूहलवर्धक कौतुक तो मदारी, बाजीगर भी दिखा लेते है पर व्यक्तित्व को साधारण से असाधारण बनाकर उन्हें कठिन कार्य क्षेत्र में उतार देना ऐसा कार्य है जिसकी तुलना करने के लिए किसी सामयिक प्रजापति की ही कल्पना उठती है; बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन और गान्धी के सत्याग्रह आन्दोलन का स्मरण दिलाती है। इन दोनों की सफलता का श्रेय समर्पित प्रतिभाओं को ही दिया जाता है। वे अपने आप ही नहीं उपज पड़ी थीं, वरन किन्हीं चतुर चितेरों द्वारा गढ़ी गई थीं। अपने को कुछ बना लेना एक बात है, किन्तु अपने समकक्ष सहधर्मी-सहकर्मी विनिर्मित कर देना सर्वथा दूसरी। ऐसी संस्थापनाएँ यदा-कदा ही कोई विरले कर पाते है। उन्हीं को देखकर सर्वसाधारण को यह अनुभव होता है कि परिष्कृत व्यक्तित्वों की कार्य क्षमता किस स्तर की कितनी सक्षम होती है और वह जनमानस के उलटी दिशा में बहते प्रवाह को किस सीमा तक उलट सकने में समर्थ होती है।
कई सोचते है कि वर्तमान विभूतियाँ सफलताएँ गुरु जी-माताजी की प्रचण्ड जीवन साधना और प्रबल पुरुषार्थ को दिशाबद्ध रखने का प्रतिफल है। जबकि बात दूसरी है। शरीर ही प्रत्यक्षतः सारे क्रियाकृत्य करते दीखता है, पर सूक्ष्मदर्शी जानते है कि यह उसके भीतर अदृश्य रूप से विद्यमान प्राण चेतना का प्रतिफल है। जिन्हें मिशन के सूत्र संचालक की सराहना करने का मन करें उन्हें एक क्षण रुकना चाहिए और खोजना चाहिए कि क्या एकाकी व्यक्ति बिना किसी अदृश्य सहायता के लंका जलाने, पहाड़ उखाड़ने और समुद्र लाँघने जैसे चमत्कार दिखा सकता है। उपरोक्त घटनाएँ हनुमान के शरीर द्वारा भले ही सम्पन्न की गई हो; पर उनके पीछे राम का अदृश्य अनुदान काम कर रहा था। निजी रूप से तो हनुमान वही सामान्य वानर थे जो बालि के भय से भयभीत जान बचाने के लिए छिपे हुए सुग्रीव की टहल चाकरी करते थे और राम-लक्ष्मण के उस क्षेत्र में पहुँचने पर वेष बदल कर नव आगन्तुकों की टोह लेने पहुँचे थे।
बीज के वृक्ष बनने का चमत्कार सभी देखते है, पर अनेक बार क्षुद्र को महान, नर को नारायण, पुरुष को पुरुषोत्तम बनते भी देखा जाता है। ऐसे कायाकल्पों में किसी अदृश्य सत्ता की परोक्ष भूमिका काम करती पाई जाती है। शिवाजी और चन्द्रगुप्त किन्हीं अदृश्य सूत्र संचालकों के अनुग्रह से वैसा कुछ करने में समर्थ हुए, जिसके लिए उन्हें असाधारण श्रेय और यश मिला। विवेकानन्द की कथा-गाथा भी ठीक ऐसी ही है।
अखण्ड-ज्योति का कलेवर छपे कागजों के छोटे पैकेट जैसा लग सकता है, पर वास्तविकता यह है कि उसके पृष्ठों पर किसी की प्राण चेतना लहराती है और पढ़ने वालों को अपने आँचल में समेटती है, कहीं-से-कहीं पहुँचाती है। बात लेखन तक नहीं सीमित हो जाती, उसका मार्गदर्शन और अनुग्रह अवतरण किसी ऊपर की कक्षा से होता है। इसका अधिक विवरण जानना हो, तो एक शब्द में इतना ही कहा जा सकता है कि यह हिमालय के देवात्मा क्षेत्र में निवास करने वाले ऋषि चेतना का समन्वित अथवा उसके किसी प्रतिनिधि का सूत्र संचालन है, अन्यथा साधना विहीन एकाकी, व्यवहार कुशलता की दृष्टि से पिछड़ा हुआ व्यक्ति बड़े सपने तो देख सकता है; पर बड़े कामों का भार अपने दुर्बल कंधों पर नहीं उठा सकता। विशेषतया उन कामों का जिनकी कल्पनाएँ करते रहने वाले, योजनाएँ बनाते रहने वाले थोड़े बहुत कदम बढ़ाते रहने पर भी हवा में उड़ने वाले गुब्बारों की तरह कुछ ही समय में ठण्डे होते और अपने अस्तित्व को समाप्त करते देखे गये।
सोचा जाता है कि गुरुजी 80 वर्ष का आयुष्य पूरा करना चाहते है। इस दृष्टि से माताजी भी उतनी आयु का लाभ ले सकेंगी, जितनी कि गुरुदेव। इस महाप्रयाण का समय अब बहुत दूर नहीं है। हाथ के नीचे वाले वाले अनिवार्य कामों को जल्दी-जल्दी निपटाने की बात बनते ही चार्ज दूसरों के हाथों चला जायगा। सन्देह है कि उस दशा में वर्तमान प्रगति रुक सकती है और व्यवस्था बिगड़ सकती है। ऐसे लोग व्यवस्था में आने वाले उतार–चढ़ावों के आधार पर अनुमान लगाते है। उनमें ही प्रतिभावान व्यक्तियों के हट जाने पर भट्ठा बैठ जाता है और सरंजाम बिखर जाता है; पर यहाँ वैसी कोई बात नहीं। न व्यक्ति विशेष ने कुछ असाधारण किया है, और न ही उसे भूतकाल पर गर्व है। न वर्तमान को देखते हुए उत्साह और न भविष्य की गिरावट सम्बन्धी कोई आशंका। कारण स्पष्ट है। कठपुतली न अपने अभिनय पर गर्व करती है, और न पिटारी में बन्द कर दिये जाने की शिकायत। यदि वह समझ होती, तो निश्चित ही उसकी सोच यही होती कि वह बाजीगर की उँगलियों में बँधे हुए धागों से हलचल करने वाली लकड़ी की टुकड़ी मात्र है। उसे गर्व किस बात का होना चाहिए और अपने भविष्य की चिन्ता क्यों करनी चाहिए? यह काम बाजीगर का है। वही कोई गड़बड़ी होते देखेगा और तत्परतापूर्वक सुधारेगा। आखिर लाभ-हानि तो उसी का है। लकड़ी के टुकड़े तो निर्जीव एवं निमित्त मात्र है। मिशन के भविष्य के सम्बन्ध में भी हर किसी को इसी प्रकार सोचना चाहिए और निराशा जैसे अशुभ चिन्तन को पास भी नहीं फटकने देना चाहिए।
जहाँ तक हम दोनों की भावी नियति के बारे में भविष्य बोध कराया गया है, वह सन्तोषजनक और उत्साहवर्धक है। कहा गया है कि पिछले पचास वर्ष से हम दोनों “दो शरीर-एक प्राण” बनकर नहीं, वरन एक ही सिक्के के दो पहलू बनकर रहे है। शरीरों का अन्त तो सभी का होता है; पर हम लोग वर्तमान वस्त्रों को उतार देने के उपरान्त भी अपनी सत्ता में यथावत बने रहेंगे और जो कार्य सौंपा गया है, से तब तक पूरा करने में लगे रहेंगे, जब तक कि लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। युग परिवर्तन एक लक्ष्य है जनमानस की परिष्कार और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन उसके दो कार्यक्रम। अगली शताब्दी इक्कीसवीं सदी अपने गर्भ में उन महती सम्भावनाओं को संजोये हुए है, जिनके आधार पर मानवी गरिमा को पुनर्जीवित करने की बात सोची जा सकती है। दूसरे शब्दों में इसे वर्तमान विभीषिकाओं का आत्यंतिक समापन कर देने वाला सार्वभौम कायाकल्प भी कह सकते है। इस प्रयोजन के लिए हम दोनों की साधना स्वयंभू मनु और शतरूपा जैसी वशिष्ठ-अरुन्धती स्तर की .... जिसका इन दिनों शुभारम्भ किया गया हैं पौधा लगाने के बाद माली अपने उद्यान को छोड़कर भाग नहीं जाता। फिर हमीं क्यों यात्रा छोड़कर पलायन करने की बात सोचेंगे और क्यों उस के लिए उत्सुकता प्रदर्शित करेंगे?
इस बीच छोटे से व्यवधान की आशंका रहती है, जो यथार्थ भी है। प्रकृति के नियम नहीं बदले जा सकते। पदार्थों का उद्भव, अभिवर्धन और परिवर्तन होते रहना एक शाश्वत क्रम है। इस नियति चक्र से हम लोगों के शरीर भी नहीं बच सकते। बदन बदलने के समय में अब बहुत देर नहीं है। पर वस्तुतः यह कोई बड़ी घटना नहीं है। अविनाशी चेतना के रूप में आत्मा सदा अजर-अमर है। परिजन हम लोगों का संयुक्त जीवन अखण्ड-दीपक का प्रतीक मानकर उसे आत्म सत्ता की साकार प्रतिमा मानते रहे। वही हम लोगों के लिए मत्स्य बेध जैसा लक्ष्यबेध करने वाले शब्दबेधी बाण की तरह आराध्य बनकर रही है। साथ ही साधना का सम्बल भी। शरीर परिवर्तन की बेला आते ही यों तो हमें साकार से निराकार होना पड़ेगा; पर क्षण भर में उस स्थिति से अपने को उबार लेंगे और दृश्यमान प्रतीक के रूप में उसी अखण्ड दीपक की ज्वलन्त ज्योति में समा जायेंगे, जिसके आधार पर अखण्ड-ज्योति नाम से सम्बोधन अपनाया गया है। शरीरों के निष्प्राण होने के उपरान्त जो चर्म चक्षुओं से हमें देखना चाहेंगे, वे इसी अखण्ड-ज्योति की जलती लौ में हमें देख सकेंगे। दो शरीर अब तक द्वैत की स्थिति में रहे है। भविष्य में दोनों की सत्ता एक में विलीन हो जायगी और उसे तेल-बाती की पृथक सत्ताओं की एक ही लौ में समावेश होने की तरह अद्वैत रूप में गंगा-यमुना के संगम रूप में देखा जा सकेगा। इसे .... श्रद्धा का एकीकरण भी समझा जा सकेगा।
अभी हम लोगों के शरीर शान्ति-कुंज में रहते हैं। पीछे भी वे इस परिकर के कण-कण में समाये हुए रहेंगे। इसकी अनुभूति निवासियों और आगन्तुकों को समान रूप से होती रहेगी। पर इसका अर्थ यह न समझा जाय कि यह युग चेतना किसी क्षेत्र विशेष में सीमाबद्ध होकर रह जायगी। जब स्थूल शरीर ने समस्त विश्व की प्रतिमाओं को झकझोरा है और उन्हें प्रसुप्ति से उबार कर कर्म क्षेत्र में कुरुक्षेत्र में ला खड़ा किया है, तो यह हम लोगों की तृप्ति-तुष्टि और शान्ति का केन्द्र क्यों अपनी कक्षा छोड़कर किसी अन्य मार्ग को अपनायेगा। स्थूल शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म की शक्ति हजारों-लाखों गुनी अधिक होती है। हम लोग कुछ आगे-पीछे एक ही मोर्चे पर एकत्व अपनाकर कार्यरत बने रहेंगे। अपनी अपेक्षा कार्यक्षेत्र को हजारों गुना बढ़ा लेंगे। सफलता भी अत्यन्त उच्चस्तरीय अर्जित करेंगे। हमारी प्रवृत्तियाँ मरेंगी नहीं, वरन् अखण्ड-ज्योति की बढ़-चढ़ कर अभिनव भूमिका सम्पन्न करेगी। इसलिए शरीर परिवर्तन की बात सोचने पर न हमें कुछ खिन्नता होती है और न हम लोगों का वास्तविक स्वरूप समझने वाले अन्य किसी स्वजन, परिजन को होनी चाहिए मिशन तीर की तरह सनसनाता हुआ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ेगा। हम लोगों की स्थिति प्रत्यंचा की तरह अभी भी तनी है और भविष्य में भी वैसी ही बनी रहेगी। अखण्ड-ज्योति की ज्योति ज्वाला प्रेरणाप्रद लेखों में अबकी ही तरह भविष्य में भी प्राणवान बनी रहें, इसके लिए अगले बीस वर्षों के लिए अभी से सुनिश्चित संग्रह करके रख दिया गया है। सूत्र संचालकों ने इसमें पूरा सहयोग दिया है।