देवात्मा हिमालय में ऋषि कल्प ऊर्जा

January 1988

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प्रमुख ऋषियों के नाम से यों अनेक युग कल्पों में अनेक ऋषियों की नामावली जुड़ती, घटती और परिवर्तित होती रही है। पर उनमें से जिनके आदर्शों की स्थिति को देखते हुए कार्यान्वित किया जा सकना सम्भव हो सका है, उन्हीं के लक्ष्य सामने रखकर उनकी गतिविधियों को कार्यान्वित करने का प्रयत्न किया गया है। इसी को महासागर कह सकते है, जिसमें अनेक नदियों का संगम-समागम हुआ है।

गंगा गोमुख से निकलती है और गंगा सागर में विलीन होती है। इस सुदूर मार्ग में सर्वत्र उसे गंगा ही कहा जाता है। यद्यपि उसमें बीच-बीच में अनेकों छोटी-बड़ी नदियाँ मिलती गयीं है। उसे उन सबकी सम्मिलित सम्पदा भी कहा जा सकता है। अखण्ड-ज्योति को ज्ञान गंगा कहा जाय तो मानना पड़ेगा कि वह किसी व्यक्ति या शक्ति का एकाकी प्रयास नहीं है उसके साथ अनेक मूर्धन्य शक्ति केन्द्रों की दिव्य चेतना जुड़ती चली गयी है।

हिमालय का उत्तराखण्ड क्षेत्र ‘देवात्मा’ शब्द से सम्बोधित किया जाता है। यों हिमालय अत्यन्त सुविस्तृत है। वह अनेक देशों की सीमाएँ छूता हुआ एक सुविस्तृत भूखण्ड घेरे हुए है। पर वह सभी ऋषि भूमि के रूप में जाना, माना नहीं जाता। मात्र वह खण्ड ही देवभूमि है जिसमें ऋषियों ने तप साधना की थी। गहन चिन्तन-मनन से ऐसा नवनीत निकाला था जो भू-लोक निवासियों के लिए अमृतोपम सिद्ध हो सके। उनकी तपश्चर्याएँ व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति के लिए नहीं, वरन विश्व-कल्याण के लिए सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए थी। इन्हीं दोनों में उन्होंने स्वर्ग और मुक्ति का दर्शन किया था। आज देवपूजा तो बहुत है किन्तु ऋषियों द्वारा प्रतिष्ठित मानवी गरिमा की अभ्यर्थना करने का किसी का मन नहीं है। वस्तुतः देव विभूतियाँ ऋषि कल्पों में होकर ही अपना आलोक प्रकट करती और संपर्क साधने वाले को निहाल करती है। देवताओं से प्रत्यक्ष संपर्क साधना कठिन है, पर मनुष्य रूप में अवतरित हुए ऋषियों का जीवित होने पर स्थूल शरीर और दिवंगत होने पर उनका सूक्ष्म शरीर ओर भी अधिक समर्थता के साथ काम करता रहा है। इतिहास साक्षी है कि देवात्माओं के अनुदान मनुष्यों को ऋषियों के माध्यम से ही उपलब्ध होते रहे है। इसीलिए गुरु को गोविन्द से भी बढ़कर माना गया है। वस्तुतः ऋषि परम्परा ही अविनाशी गुरु सत्ता है। उसी को ब्रह्मा-विष्णु-महेश की उपमा दी जाती रही हैं। मंत्रदाता जीवित गुरु तो ऋषि परम्परा के प्रतीक मात्र होते है। ऋषियों की तपोभूमि होने के कारण ही उस क्षेत्र को ‘देवात्मा हिमालय’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है। शान्ति-कुंज की स्थापना के पीछे उसी महान परम्परा को पुनर्जीवित करने का संकल्प है। इसी संकल्प के अंतर्गत उन सभी प्रवृत्तियों का इस एक स्थान में केंद्रीकरण किया गया है, जिसके लिए ऋषियों की समस्त सत्ता सर्वतोभावेन समर्पित हुई थी।

उद्देश्य की प्रथम झलक झाँकी में दिग्दर्शन कराने के लिए ‘देवात्मा हिमालय’ का एक भव्य देवालय है। उसमें उस क्षेत्र के प्रमुख स्थानों का, उतार-चढ़ावों का, नदी-सरोवरों का दिग्दर्शन कराया गया है। देवालयों की दृष्टि से यह अपने ढंग का अनोखा मंदिर है जैसा अन्यत्र कहीं नहीं दीख पड़ेगा। वस्तुतः इस धरित्री का पुण्यतम और आध्यात्मिक शक्तियों से भरा पूरा क्षेत्र यही है। तपश्चर्या के लिए इसी क्षेत्र को प्रमुखता मिलती रही है।

हिमालय देवालय के समीप ही सप्त ऋषियों के छोटे-छोटे देव मंदिर है। साथ ही इस क्षेत्र के प्रमुख तीर्थों के बड़े चित्र भी सुसज्जित ढंग से लगाये गये हैं। ताकि यदि कोई एक क्षेत्र में इस दिव्य प्रकाश की दर्शन झाँकी करना चाहे तो कुछ ही क्षणों में उसके मन मस्तिष्क पर वहाँ का अक्श खिंच सकें। गणेश जी ने धरती पर राम नाम लिख कर उसकी परिक्रमा करने भर से समस्त संसार के परिभ्रमण का पुण्य लाभ प्राप्त कर लिया था।

देवता कहाँ है? कहाँ नहीं? इसके बारे में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, किन्तु हिमालय क्षेत्र में अभी भी सूक्ष्म शरीरधारी सिद्धपुरुषों की सत्ता मौजूद है। वे अपनी प्रेरणाओं को उपयुक्त सत्पात्रों तक भेजते और उनके द्वारा इच्छित प्रयोजनों की पूर्ति कराते है। जिनमें सूक्ष्म दर्शन की क्षमता है वे उनके साथ अपने प्रयत्नों से भी संपर्क साध सकते है।

अनेकानेक महान सन्त ऋषियों ने अपने जीवन काल में कुछ जानने योग्य प्रयत्न पुरुषार्थ किये थे। उनकी सशक्त गतिविधियों का सूत्र संचालन किया था। इनमें तक कुछ का वर्णन इस प्रकार है-

(1) यमुनोत्री पर भगवान परशुराम की तपश्चर्या संपन्न हुई थी। उन्हें महाकाल का काल कुठार उपलब्ध हुआ था। उन्होंने अनैतिकता अवाँछनीय अन्य विश्वास एवं कुरीति परिकर का व्यापार उन्मूलन किया था।

(2) गंगोत्री में भगीरथ ने तप किया था। उनने भगवती गंगा को स्वर्ग से धरती पर अवतरित होने के लिए बाध्य किया था। उस पुण्यतोया के गंगाजल से अनेक प्राणियों और वनस्पतियों को जीवन प्राण मिला था। सूखी धरती हरी-भरी हुई थी। इसका अध्यात्म विवेचन ज्ञान गंगा के अवतरण रूप में किया जाता है।

(3) केदारनाथ के क्षेत्र में महर्षि चरक ने वनौषधि अन्वेषण किया था। आयुर्वेद परम्परा का वही प्रमुख भाग है।

(4) बद्रीनाथ के निकट व्यास गुफा प्रसिद्ध है। महर्षि वेदव्यास ने गणेश जी की सहायता से अठारह पुराणों की संरचना की थी। साहित्य सृजन के माध्यम से उन्होंने स्वाध्याय प्रयोजन के लिए व्यापक व्यवस्था की थी।

(5) त्रियुगी नारायण क्षेत्र में महर्षि याज्ञवल्क्य ने यज्ञ विज्ञान की सुविस्तृत शोध की थी। उस आधार पर इस महाविज्ञान के माध्यम से वातावरण की पवित्रता वायुमंडल की परिशुद्धि मानसिक आत्मिक व्याधियों का निराकरण सम्भव हुआ।

(6) देवर्षि नारद ने गुप्तकाशी में तप किया। उनने संगीत के तत्वज्ञान और प्रत्यक्ष विज्ञान का आविर्भाव किया। उस आधार पर भावना क्षेत्र की संवेदनशीलता को प्रेम रस से सराबोर करने में असाधारण सफलता पायी।

(7) ज्योतिर्मठ- आद्य शंकराचार्य की तपस्थली है। वहाँ शक्ति अर्जित करके उन्होंने चार मठों और अनेकानेक तीर्थों की संस्थापना एवं उनका पुनरुद्धार किया।

(8) महर्षि जमदग्नि का साधनाश्रम उत्तरकाशी था। उनका सुविस्तृत गुरुकुल आरण्यक चलता था। जिसमें अगणित नर-रत्न महामानव विनिर्मित होते थे।

(9) रुद्र प्रयाग में महर्षि पातंजलि का चिरकाल तक साधनात्मक पुरुषार्थ चला। योगविज्ञान की अनेक शाखा-प्रशाखाओं का अनुभव अभ्यास एवं प्रतिपादन किया। विश्व के अनेकानेक साधना विधान पातंजलि के सूत्रों की व्याख्या स्वरूप प्रकट हुए है।

(10) लक्ष्मण झूला में महर्षि पिप्पलाद ने आहार के आधार पर कायाकल्प जैसी विधियों का निर्माण किया था।

(11) महर्षि वशिष्ठ ने देव प्रयाग में राम बन्धुओं को अपने समीपवर्ती क्षेत्र में रखकर वेदान्तपरक अध्यात्म की शिक्षा दी थी। जिसका योगवाशिष्ठ में विस्तारपूर्वक वर्णन है।

(12) महर्षि कणाद ने परमाणु विज्ञान की खोज की थी। उनकी तपस्थली हरिद्वार के सप्तधारा क्षेत्र में थी जहाँ आज ब्रह्मवर्चस की अनुसंधानशाला खड़ी है। जिस अणुशक्ति को आज विश्व की सर्वोपरि शक्ति माना जा रहा है। उसका कणाद ने अध्यात्म उपयोग समझा और उपयुक्त प्रयोजनों में उसके प्रयोग की रूपरेखा तैयार की थी।

(13) महर्षि विश्वामित्र भी हरिद्वार के सप्तधारा क्षेत्र में ही अपना अधिकाँश साधना काल बिताते रहे। उन्होंने गायत्री का तत्वदर्शन प्रकट किया और नाद ब्रह्म-शब्द-ब्रह्म से संबंधित सामगान की रूप रेखा बनाई अभिनव विश्व की संरचना उन्हीं का स्वप्न था। जो कारणवश कभी पीछे के लिए टल गया।

यह संकेत रूप सार संक्षेप है। ऐसे अनेक ऋषि देवात्मा हिमालय के क्षेत्र में असाधारण तप अनुसंधान करते रहे है। वे एक प्रकार के अध्यात्म क्षेत्र की शोध करने वाले वैज्ञानिक ही थे। वे ऐसे उपाय सोचते और निकालते रहे जिससे समस्त विश्व के हर क्षेत्र में शालीनता, सद्भावना, सम्पन्नता एवं सुव्यवस्था का उत्पादन अभिवर्धन होता रहे। उन्हें अपने लक्ष्य में आशातीत सफलता भी मिली। इसी आधार पर इस .... चक्रवर्ती शासक और स्वर्ण सम्पदाओं एवं दिव्य विभूतियों का अधिपति कहलाने का श्रेय उपलब्ध हुआ।

उपरोक्त ऋषि परम्परा के क्रिया-कलापों को यथा-सम्भव शाँति-कुंज में कार्यान्वित करने का प्रयत्न किया गया है जो अब तक आशाजनक परिमाण में सफल एवं अग्रगामी होता रहा है। इनके पीछे ऋषि तत्व का प्रकाश मार्गदर्शन एवं सहयोग रहने के कारण इस उपक्रम की और भी अनेक परतें खुलने वाली है और प्रगति के उच्चशिखर पर पहुँच कर लोकमंगल में महायोगदान दे सकने की स्थिति में पहुँचने वाली है।

मनुष्य की शक्ति सीमित है। उसका शरीरबल एवं बुद्धिबल नगण्य है। साधन और सहयोग भी वह एक सीमा तक ही अर्जित कर सकता है। आकांक्षाओं और संकल्पों की पूर्ति बहुत करके परिस्थितियों पर निर्भर है। यदि प्रतिकूलताओं का प्रवाह चल पड़े तो बनते काम बिगड़ सकते है। इसके विपरीत ऐसा भी हो सकता है कि राई को पर्वत होने का अवसर मिले। ‘मूक होंहि वाचाल, पंगु चढहिं गिरिवर गहन’ वाली रामायण की उक्ति प्रत्यक्ष प्रकट होने लगे और दर्शकों को आश्चर्यचकित कर दे।

जिनने कठपुतली का काम देखा है वे जानते है कि बाजीगर पर्दे के पीछे बैठा हुआ अपनी उँगलियों के साथ बंधे हुए तारों को इधर-उधर हिलाता रहता है और मंच पर एक आकर्षक अभिनय लकड़ी के टुकड़ों द्वारा सम्पन्न होने लगता है। हवा के झोंके तिनके एवं धूलि कणों को आकाश में उड़ा ले जाते है। पानी के प्रवाह में पड़कर झंखाड़ और कचरे के गट्ठर नदी-नालों को पार करते हुए समुद्र तक का लम्बी यात्रा कर लेते है। समझना चाहिए कि देवात्मा हिमालय क्षेत्र में स्थूल शरीरधारी और सूक्ष्म शरीर धारी ऋषि कल्प देव शक्तियों के संयुक्त मार्गदर्शन और अनुदान के सहारे शाँति-कुंज की बहुमुखी गतिविधियां चल रही है। इसी की एक शाखा अखण्ड-ज्योति से निस्सृत होने वाली सप्त रंगों वाली सात किरणों की समुचित भूमिका निभा रही है।

षडानन कार्तिकेय को छै अग्नियों ने मिलकर पाला था। उन्हें प्रमुख छै देवताओं ने अपने -अपने अंश देकर सर्व शक्तिमान बनाया था। कुन्ती को भी सूर्य, धर्मराज, इन्द्र .... की अनुकम्पा से देव पुत्र प्राप्त हुए थे। एक बार पराजित देवताओं ने प्रजापति के तत्वावधान में अपनी-अपनी शक्तियों का महत्वपूर्ण अंश सम्मिलित कर महाकाली का सृजन किया था। उसी संघ ने मधु–कैटभ महिषासुर, शुँभ-निशुँभ, रक्तबीज जैसे दानवों को परास्त किया था। आसुरी आतंक से मुक्ति पाने के लिए ऋषियों ने अपना रक्त एक घड़ा भर कर एकत्रित किया था- और सीता ने जन्म लेकर धरती से दानवता का समापन ओर रामराज्य का संस्थापन किया था। समझा जा सकता है कि दिव्य विभूतियों से सुसम्पन्न ऋषिकल्प देवात्मा हिमालय के सिद्ध पुरुषों का संयुक्त वरदान सम्मिलित अनुदार गायत्रीतीर्थ शान्ति-कुंज की पुण्य-प्रक्रिया है। उसकी अखण्ड-ज्योति अपने दिव्य आलोक से युग चेतना का आलोक दसों दिशाओं में विकीर्ण कर रही है। उसकी प्रस्तुत गतिविधियों में यह देखा जा सकता है कि ऋषियों के भूत कालीन क्रिया-कलापों की मुखाकृति इन दिनों किस सरलता और सफलता के साथ सम्पन्न हो रही है।

युग अवतरण का तात्पर्य है- मानवी गरिमा का पुनरुत्थान। चरित्र और व्यवहार का पतन से उत्थान की ओर अभिगमन। जहाँ जिस मात्रा में यह प्रयास चल रहा होगा वहाँ समर्थता, सम्पन्नता, सुसंस्कारिता और प्रगतिशीलता की कमी रह ही नहीं सकती।


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