चाहिये कुछ और ही आराध्य को (Kavita)

January 1988

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चाहिये, कुछ और ही, आराध्य को आराधना में। पड़ गई पूजा पुरानी, और बासी भावनायें, भर रहीं कितनी उदासी, हैं रुँवासी अर्चनायें

चाहिये उपचार नूतन, आज पूजन अर्चना में। चाहिये कुछ और ही, आराध्य को आराधना में,

फूल की गर्दन मरोड़ी पंखुड़ी नोंची चढ़ाई। दैव की सुषमा, उजाड़ी, हो निठुर माला बनाई।

हो गये पाषाण, निर्दय, प्राण ही, देवार्चना में। चाहिये कुछ और ही, आराध्य को आराधना में।

कल्पवृक्ष, कराहते हैं कामधेनु पछाड़ खाती, साधकों की दीनता लख, थरथराते, दीप बाती।

चाहिये कुछ और ही, आराध्य को आराधना में। बोधमय, आनन्द, उफनाता न, प्राण, उपासना में। प्रार्थनायें याचना का गीत बन कर, रो रही है। भावनायें गिड़गिड़ाती, दीनतायें दो रही है।

शान्त, मृदु मुस्कान में, उभरी न अंतस् की विमलता शील-सिक्त, स्वभाव में, निखरी न साधक की सरलता

भीगती पलकें न करतीं, दिव्य दर्शन, भावना में। चाहिये कुछ और ही, आराध्य को आराधना में।

हो पसीना, अर्घ्य, आँसू की पिलाओ नीर पावन सर्जना में।

मंत्र हो मधुसिक्त वाणी भेंट हो, चैतन्य जीवन। हो समर्पित भक्ति जाग्रत मानवी-सम्वेदना में।

चाहिये कुछ और ही, आराध्य को आराधना में।

लाखन सिंह भदौरिया

*समाप्त*


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