अपना गौरव तथा अपनी शक्ति प्रदर्शित करने के अनेक मार्ग लोगों ने खोज निकाले है। पर यह समझना चाहिए कि जो वस्तु अपने लिए दुःखदायी और हानिप्रद हो सकती है उसे दूसरों पर आरोपित करना उचित नहीं है। जिससे किसी का अहित हो और पीड़ा पहुँचे, उसे ही अधर्म कहा जाता है। अधर्म जीवन की आवश्यकता नहीं है। उसमें कुछ शक्ति भी नहीं है। वह तो पराभूत है।
धर्म की शक्ति ही जीवन की शक्ति है। शक्ति का अर्थ है संरक्षण अर्थात् जिसमें प्राणीमात्र के हितों की सुरक्षा होती है वह धर्म है। इसी की मनुष्य जीवन में अपेक्षा की जाती है। धर्म समाज की अंतः चेतना है। सुख-शान्ति का आधार है। इसी रूप में वह ग्राह्य भी है। धर्म में ही सब की भलाई है। धर्म की दृष्टि ही जीवन की दृष्टि है।
डॉ. राधाकृष्णन