एक महती आवश्यकता की आश्चर्यजनक आपूर्ति

January 1988

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नियमित रूप से उन्हें जन-जन के, घर-घर तक पहुँचाने और नियमित सत्संग, स्वाध्याय की आवश्यकता पूरी करने की दृष्टि से अखंड-ज्योति का मासिक प्रकाशन अपने स्थान पर ठीक है, पर उसे स्थायी और सुरक्षित रखने का उद्देश्य पुस्तकाकार पुस्तकों से ही पूरा होता है। उन्हें पुस्तकालय के रूप से घर की बहुमूल्य सम्पदा की तरह सुसज्जित रखा जा सकता है। उन्हें सुविधानुसार स्वयं पढ़ा जा सकता है और परिवार के सदस्यों को पढ़ाया या सुनाया जा सकता है। पड़ौसियों-संबंधियों को भी समय-समय पर दिया और वापस लिया जा सकता है।

पुस्तकों को भगवती विद्या का ज्ञानमंदिर माना गया है। अन्य मंदिरों में स्थूल देव प्रतिमाएँ तो मात्र भाव श्रद्धा उभारती है; पर सरस्वती का ज्ञानमंदिर विचारणा ही नहीं, भावना और जीवन की दिशाधारा को भी प्रभावित करता है। इसलिए उसका महत्व अनेक दृष्टियों से अनेक गुना बढ़ा-चढ़ा है। भले ही वह पुस्तकालय एक-दो अलमारियों तक ही सीमित क्यों न हो, छोटा होते हुए भी उसके सत्परिणामों को असाधारण ही ठहराया जा सकता है।

यह प्रयोजन पत्रिकाओं से पूरा नहीं होता है, क्योंकि वे सस्तेपन की दृष्टि से हल्के कागज पर छपती है। जबकि पुस्तकों में सफेद बढ़िया और टिकाऊ कागज लगता है। पुस्तकें सैंकड़ों वर्ष तक जीवित रह सकती है, जबकि पत्रिकाओं के अंजर–पंजर कुछ महीने में ही बिखर जाते है। आते ही एक महीने के भीतर ही इतने लोग पढ़ लेते है कि उसे मोड़-तोड़ कर ऐसा बना देते है कि फिर उसे सुस्थिर रखना कठिन हो जाता है। किसी को पढ़ने न दिया जाये तभी उसकी सुरक्षा रह सकती है। पर यह कृपणता तो अनेकों को बहु-मूल्य लाभ से वंचित करके ही कदाचित की जा सकता है जो नहीं की जानी चाहिए।

पत्रिका में छोटे-छोटे लेख रहते है। उसकी यही परम्परा है। बहुत विषयों के बहुत प्रकार की जानकारियों का सीमित उल्लेख ही उनमें रहता है। पर यदि किसी को किसी विषय की समग्र जानकारी प्राप्त करनी हो, उसका हर पक्ष समझना हो, तो फिर पुस्तकों का आश्रय लेना ही एक उपाय है।

किसी विषय के पक्ष और विपक्ष में क्या कुछ कहा और अन्ततः किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है, इसकी सुविस्तृत जानकारी प्राप्त करनी हो, तो यह कार्य शंका-समाधान या विचार-विनिमय से नहीं हो सकता। इतना खाली समय किसके पास है, जो हर किसी को उसके इच्छित विषयों पर, इच्छित समय पर सुविस्तृत जानकारी कराता रहें। यह कार्य पुस्तकों से ही सम्भव है। किसी उथले व्यक्ति ने ऐसे ही कागज काले करके उस बंडल को पुस्तक रूप में सीं दिया हो, तो बात अलग है; पर जिम्मेदार और बहुज्ञ वैज्ञानिक, मनीषी अपनी और अपने लेखन की गरिमा का ध्यान रखते है और तद्विषयक ढेरों जानकारियाँ इकट्ठा करने के पश्चात ही साहित्य सृजन आरम्भ करते है। उनकी कृतियाँ प्रायः ऐसी ही होती है जैसे कोई वैज्ञानिक किसी विषय पर शोधा प्रबंध जैसा कुछ लिख रहा हो। उस जानकारी को पढ़कर नियत विषय में पाठक भी अपनी जानकारी कुछ ही समय में इतनी बढ़ा लेता है, मानो वह साहित्य सृजेता के समकक्ष पहुँच गया हो।

ऐसी ही अनेक विशेषताओं के कारण सत्साहित्य को स्वाध्याय और सत्संग की दुहरी आवश्यकताएँ पूरी कर सकने वाला माना गया है और पुस्तकों को उच्चस्तरीय सम्मान दिया गया है। उन्हें सरस्वती की अनेक आकारों में अनेक परिप्रेक्ष्यों में विनिर्मित प्रतिमाएँ कहा गया है।

स्वाध्याय को आत्मिक क्षेत्र का भरण पोषण माना गया है। जिस प्रकार शरीर को आहार की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार बुद्धि क्षेत्र को स्वाध्याय की। कभी यह कार्य सत्संग द्वारा भी सम्भव होता था, पर अब विचारशीलों का सत्संग समयाभाव के कारण अथवा उनके दिवंगत हो जाने पर सम्भव नहीं रहता। सत्संग के नाम पर जो बकवादी ऊल–जलूल बकते रहते है। उससे तो हर किसी का समय ही खराब होता है साथ ही अनगढ़ अन्ध मान्यताएँ दिमाग में घुस पैठ करती है। भोले-भावुकों को तो चंगुल में ही जकड़ लेती है। इसलिए कभी जो सत्संग प्रक्रिया सम्मानित थी। उसका स्तर गिर जाने से, ऊँचा सत्संग उपलब्ध न होने से तद्विषयक निराशा ही शेष रह गई है। स्वाध्याय और सत्संग का पुरातन द्विपक्षीय प्रयोजन अब अकेले स्वाध्याय को ही पूरा करना पड़ता है।

आप्तजनों ने स्वाध्याय को मानस क्षेत्र का नित्य कर्म माना है और उसमें कभी प्रमाद न करने का, नियमितता बनाये रहने का, निर्देश किया है। जिस प्रकार शरीर वस्त्र, घर, बर्तन आदि पर नित्य मैल जमने से उनकी नित्य सफाई करनी पड़ती है। उसी प्रकार चिन्तन पर अवाँछनीय वातावरण और अनुपयुक्त संपर्क से पड़ने वाले दुष्प्रभावों को दूर करने के लिए स्वाध्याय रूपी साबुन से नित्य परिशोधन किया जाना चाहिए। उससे बुहारी का भी काम लिया जाता है। स्वच्छता का सर्वत्र आदर होता है। सम्पन्नता सर्वत्र प्रभावोत्पादक होती है। सद्ज्ञान के आधार पर चिन्तन की स्वच्छता का भी ऐसा ही महत्व है। उसे बौद्धिक क्षेत्र की इतनी बड़ी सम्पन्नता कहा जा सकता है, जिस पर कुबेर जितने धन को भी निछावर किया जा सकें। धन मात्र शारीरिक सुख साध नहीं जुटाता है, पर सद्ज्ञान से चेतना निखर पड़ती है। बुद्धि में समग्रता आती है और भाव-संस्थान को सुसंस्कृत किये जाने की सम्भावना स्पष्ट होती है।

मात्र साक्षरता सम्पादन को शिक्षित होना नहीं कहते। चिट्ठी-पत्री लिखना-पढ़ना आने से भी शिक्षा का उद्देश्य पूरा नहीं होता। मुनीमों, क्लर्कों की योग्यता प्राप्त कर लेने से भी उस श्रेणी में प्रवेश नहीं पाया जा सकता। इसके लिए जीवन क्षेत्र की अनेकानेक गुत्थियों को सुलझाना तथा समाधान सुसंस्कृत रूप में प्रस्तुत करना चाहिए। इसी का बहुज्ञता कहते है। ज्ञानवान कहलाने वालों की चिन्तन चेतना इसी स्तर की बढ़ी-चढ़ी होना चाहिए। इन उपलब्धियों का हस्तगत कर सकना स्कूली पढ़ाई पूरी कर लेने मात्र से सम्भव नहीं होता। इसके लिए बहुमुखी ज्ञान-सम्पदा का गहराई तक अवगाहन होना चाहिए। इसके लिए सत्साहित्य के निरन्तर अध्ययन के अतिरिक्त और कोई उपाय है नहीं।

भौतिक जानकारियों का अर्थोपार्जन का पथ प्रशस्त करने वाली, चतुरता के दाँव-पेंच सिखाने वाली, प्रतिपक्षी को छकाने वाली, विधा बताने में समर्थ अनेकानेक पुस्तकें बाजार में बिकती है। उनमें भ्रान्तियाँ उत्पन्न करने वाली और अन्ध विश्वासों की पुष्टि करने वाली भी कम नहीं है। अनेकों का उद्देश्य हास-परिहास का मनोरंजन का प्रयोजन करना भी होता है। इनकी बिक्री भी खूब होती है। लेखक प्रकाशक, विक्रेता सभी उस लाभ में हिस्सा बंटाते है। यह व्यवसाय अपने ढँग से बढ़ता और सफल होता रहता है, प्रेस से साहित्य सृजन की सुविधा का असाधारण रूप से विकास-विस्तार हुआ है। पर दुर्भाग्य एक ही है कि व्यक्तित्व विकास एवं प्रतिभाओं के निखार करने से संबंधित अनेकानेक समस्याओं पर नगण्य जितना ही ऊहापोह हुआ है। व्यक्ति का अंतरंग वस्तुतः उसकी सर्वांगीण प्रगति का मूल आधार है, उसी के सहारे भौतिक सफलताएँ हस्तगत होती है। वही प्रामाणिकता और प्रतिष्ठा का अर्जन करता है। सहयोग-समर्थन पाने के लिए सशक्त चुम्बकत्व भी वहीं है। लोक व्यवहार में शालीनता का समन्वय करके श्रद्धा और सद्भावना की स्वर्गीय उपलब्धियां भी उसी अवलम्बन को अपनाकर पूरी की जाती है। सद्ज्ञान को जीवन-प्राण कहा गया है और उसी को प्रगति-प्रतिष्ठा का मेरुदण्ड माना गया है। सेवा साधना उसी प्रेरणा के प्रोत्साहन पर बन पड़ती है। नर-पशु को देव मानव बनाने में धरती पर रहते हुए स्वर्गीय आनन्द लेने में इसी की प्रमुख भूमिका रहती है। इसलिए होना यह चाहिए था कि जीवन विज्ञान की संजीवनी विद्या की साँगोपाँग शिक्षा के लिए तीन चौथाई साहित्य का सृजन होता और शेष एक चौथाई मनचले लोगों के लिए छोड़ दिया जाता।

किन्तु गाड़ी ठीक उल्टी दिशा में चल रही है। जीवन साहित्य की तलाश में निकला जाय, तो मुद्दतों बुकसेलरों की दुकानें छानते रहने पर कहीं दस-बीस पुस्तकें हाथ लगती है। वे भी निर्धारित विषय का आधा-अधूरा काना-कुबड़ा ही .... करती है। यह अभाव इतना बड़ा है कि कई बार तो निराशा होती है कि मात्र सम्पन्नता, चतुरता और विनोदप्रियता को बढ़ाना ही कहीं मनुष्यता का लक्ष्य तो नहीं बन गया है। यदि ऐसा न होता तो जीवन कला की, संजीवनी विद्या की जानकारी देने वाली साहित्य-संरचना को प्रमुखता मिली होती। निर्धन देशवासियों को क्रय शक्ति का ध्यान रखते हुए उनकी कीमतें वाजिब रखी जानी और उनका विक्रय तंत्र ऐसा होता कि पिछड़े क्षेत्रों में भी उसे उपलब्ध कराया जाता। विद्यालयों के साथ-साथ पुस्तकालय भी चलते। विद्यार्थी सरकारी पाठ्यक्रम स्कूलों में पढ़ते और जीवन कला में प्रवीणता प्राप्त करने के लिए ठीक उसी के समकक्ष पुस्तकालय भी अपनी भूमिका निभाते। यहाँ स्मरण रखने योग बात एक ही है कि पुस्तकालयों में कचरे का अम्बार जमा करके उनका कलेवर फुलाने मात्र को प्राथमिकता न मिलती। वहाँ ऐसा चुना हुआ साहित्य रहता, जिसमें बाल, वृद्ध, किशोर प्रौढ़ और लड़कियां-महिलाएँ अपने प्रत्यक्ष और परोक्ष जीवन को समुन्नत सुसंस्कृत, बनाने के लिए अनुभव, परामर्श दर्शन प्राप्त करते। युग मनीषियों का इस दिशा में हुआ अभिनव चिन्तन सर्वसाधारण के लिए उपलब्ध रहता।

इस महती आवश्यकता की पूर्ति के लिए कोई सुनियोजित सर्वांगपूर्ण प्रयत्न न होता देखकर अखण्ड ज्योति तंत्र ने ही अपनी स्वल्प सामर्थ्य के अनुरूप कदम उठाने का निश्चय किया। सहायकों का अभाव, पूँजी का अभाव, अन्याय सेवाकार्यों की व्यस्तता में लेखन के लिए स्वल्प समय बच पाना जैसे अनेक अवरोध थे। जिनके कारण समय की महत्ती माँग को पूरा करने में एक निष्टभाव से युग साहित्य का सृजन न हो सका। फिर भी बूँद-बूँद से घट भरने की उक्ति सार्थक होती रही। इस ज्योति परिकर का सूत्र-संचालक अपनी निर्धारित उपासना क्रम को पूरा करने के अतिरिक्त चार घण्टा नित्य युग साहित्य के सृजन में लगाता रहा। इसी का परिणाम है कि कछुआ खरगोश से आगे पहुँचा। चीलों ने गरुड़ों से पहले मंजिल पूरी कर ली।

अब तक जो उद्देश्यपूर्ण साहित्य सृजा और छला है उसे देखते हुए सामान्य बुद्धि के लिए यह समझ सकना कठिन हो सकता है कि क्या एकाकी साधनहीन व्यक्ति इतना कुछ कर सकता है। एक ही कलम क्या एक हजार से अधिक पुस्तकें लिख सकती है। सो भी इतनी उच्चकोटि की, जिनका अनुवाद अन्यान्य भाषाओं में होता चला गया और उसने लाखों की सीमा पार करके करोड़ों का मानस झकझोरा। योजनाबद्ध सत्साहित्य का सृजन अखण्ड ज्योति के प्रकाश पुँज की एक जाज्वल्यमान किरण है। इसका चमत्कारी प्रभाव तो अगले दिनों युग सृजन के रूप में देखने को मिलेगा।


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