जीवन साधना- एक सुयोग सौभाग्य

January 1988

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लोक व्यवहार में- अर्थोपार्जन में काम आने वाली शिक्षा स्कूलों में पढ़ाई जाती है। अनुभवी लोगों के संरक्षण में भी उसे सीखा जा सकता है, किन्तु व्यक्तित्व का विकास अपने आप में एक विशिष्ट विषय है। उसे यदि प्रवचन परामर्शों से सीखा गया होता तो अब तक न जाने कितने देव मानव विनिर्मित हो गये होते और उनके कारण वह समाज हर दृष्टि से समुन्नत हो गया होता। पर ऐसी शिक्षा के लिए स्वयं भी साधना करनी पड़ती है और दूसरे समर्थ लोगों का आश्रय भी लेना पड़ता है। इसके लिए उपयुक्त वातावरण और व्यक्ति की मनःस्थिति परिस्थिति के अनुरूप उपयुक्त मार्गदर्शन भी चाहिए। इससे कम में यह सम्भव नहीं कि किसी को अनगढ़ से सुसंस्कृत बनाया जा सके। गुण कर्म स्वभाव की दृष्टि से परिष्कृत स्तर का बनाया जा सकें। इसके लिए आत्म-सत्ता की .... को नये सिरे से सुधारने और सुविकसित करने की आवश्यकता पड़ती है।

मनुष्य की वास्तविक सत्ता वह नहीं है, जो शरीर रूप में चलती फिरती दीखती है। यह तो वाहन मात्र है। इसकी संचालक शक्ति अन्तराल की गहराई में सन्निहित रहती है। पेड़ की जड़ें जमीन में नीचे रहती है। खुली आँखें से दीख नहीं पड़ती। पर उन्हीं के कारण तना विनिर्मित होता है। पत्र पुष्प फल यों अलग से दीख पड़ते है, पर वस्तुतः उनकी उत्पत्ति एवं अभिवृद्धि जड़ों द्वारा पहुँचाई गई खुराक से ही होती है। दृश्य के पीछे अदृश्य काम करता है।

यों समझने को तो साधन और वैभव को ही सब कुछ समझा जाता है। उसी में लोग प्रसन्नता अप्रसन्नता अनुभव करते रहते है। उसी की साथ सफलता असफलता का सम्बन्ध भी जोड़ते है पर वस्तुतः बात ऐसी है नहीं। शरीर स्वस्थ हो तो परिधान आभूषण सज्जा श्रृंगार सुशोभित होते है। यदि शरीर रुग्ण मलीन हो सुप्त स्थिति में हो या मर गया हो तो उन वस्त्राभूषणों से सुन्दरता का प्रयोजन .... इसी प्रकार परिस्थितियों की अनुकूलता भर से ओछा व्यक्ति न तो संतोष प्राप्त कर सकता है और न सम्मान ही उसके पल्ले पड़ता है। यहाँ शरीर को प्रधान और परिधान वैभव को गौण माना गया है। पर यदि और बारीकी से कुरेदा जाय तो मन संस्थान और अन्तःकरण की अगली परतें सामने आती है। मानसिक प्रखरता शारीरिक सुडौलता से भी बढ़कर है। मन भी अपने आप में पूर्ण नहीं, उसकी कल्पना और निर्णायक बुद्धि क्षमता अन्तःकरण के स्तर से प्रभावित होती है। भावना मान्यता, आस्था की गहराई इच्छा आकाँक्षा उत्पन्न करती है। उसी के आधार पर कल्पना उठती, इच्छा जगती और बुद्धि उसे पूरा करने का ताना बाना बुनती है। अन्तिम परिपाक क्रिया के रूप में होता है। क्रिया कलापों के आधार पर परिस्थितियों का निर्माण होना सर्वविदित है।

जहाँ तक सांसारिक जानकारियों का सम्बन्ध है उसे कानों से सुनकर आंखों से देख कर समझा जा सकता है। अन्य इन्द्रियाँ भी इस संदर्भ में सहायता करती है। यंत्र उपकरणों के सहारे भी इस स्तर की ज्ञानवृद्धि में कुछ काम चलता है, पर व्यक्तित्व का निखार परिष्कार इतने उथले प्रयत्नों के आधार पर नहीं बन पड़ता। यदि ऐसा हुआ होता तो सभी उच्च शिक्षित प्रतिभावान चरित्रवान संकल्पशील कर्मठ और आदर्शवादी रहे होते। तब स्कूल ही महामानव गढ़ दिया करते, पर ऐसा होता नहीं देखा गया। धर्मोपदेशक तक अपने कथन के विपरीत उलटा आचरण करते देखे गये है। उनमें से कितने ही तो प्रपंची अपराधी तक पाये गये है और कड़ी सजा भुगतते देखे गये है। सम्मान और विश्वास तो उनका .... ही जाता है।

आश्चर्य की बात है कि लोग अपनी सामान्य बुद्धि के मान्यता के विरुद्ध आचरण करते पाये जाते है। नशेबाज अपनी कुटैव को आमतौर से बुरा समझते है और उनके द्वारा होने वाली हानियों को भी प्रत्यक्ष देखते है, पर समझाने बुझाने सहमत होने पर भी उस लत को छोड़ नहीं पाते। ऐसी ही बात अन्य अनाचारों-दुर्व्यसनों के सम्बन्ध में भी देखी गई है। इन कुटेवों से घिरे हुए लोग उनका समर्थन नहीं करते, पर जब अवसर आता है तो वही करने लगते है जिसको कि कुछ समय पहले स्वयं बुरा बना रहे थे।

यही है मन संस्थान की गहरी परतें जिनमें भले बुरे संस्कार जड़ जमाकर बैठ जाते है और फिर समूचे व्यक्तिगत पर कब्जा कर लेते है। इस नागपाश से छूटने का कोई उपाय भी उनकी समझा नहीं आता। इसी कठिनाई के कारण सदुपदेश इस कान से सुने जाते पर उस कान से निकल जाते है। यहाँ तक कि उपदेष्टा तक अपने कथन प्रतिपादन के विरुद्ध स्वयं अनाचरण करते देखे गये है। यह असमंजस भरी स्थिति अन्तराल की गहरी परतों में कुसंस्कारों की जड़े जमी होने के कारण उत्पन्न होती है।

व्यक्तित्व के विकास के लिए शिष्टाचार का-व्यवहार कौशल का सामान्य ज्ञान अपने समीपवर्ती वातावरण से लिया जा सकता है। आमतौर से लोग प्रचलन का अनुकरण करते पाये गये है। रिवाजें आदतें इसी आधार पर अपनाई जाती है। फैशन एक दूसरे की देखा देखी ही फैल पड़ती है। इसी प्रकार सामान्य-जन भी अपने संपर्क क्षेत्र से ही प्रभावित होते और उसी प्रकार के आचरण करने लगते है। यह तो हुई सामान्य लोक प्रचलन की बात। पर समझना यह है कि गहराई में जमे हुए कुसंस्कारों को कैसे बदला सुधारा जाय और उनके स्थान पर उच्चस्तरीय सत्प्रवृत्तियों की बीजारोपण किस प्रकार किया जाय?

यह असामान्य कार्य है। इसके लिए असामान्य उपचार ....। भावना आस्था क्षेत्र को कारण शरीर या अन्तःकरण कहते है। भली-बुरी आस्थाएँ मान्यताएँ उसी में जमी होती है। इसमें परिवर्तन करने के लिए साधनाएँ करनी पड़ती है। अघोरी कापालिक ताँत्रिक साधनाएँ करते है और इस आधार पर दूसरों पर हावी होने में सफलताएँ प्राप्त करते है। अनर्थ करते भी देखे गये है। उनकी आस्था निम्न स्तर का बन जाती है। इसके विपरीत सात्विक साधनाएँ है जो अन्तःकरण की गहराई में जमे कुसंस्कारों को उखाड़ने के साथ-साथ उस भूमि में सुसंस्कारों का उत्पादन अभिवर्धन करती है। साधनाओं में जप और ध्यान प्रधान है। उनके साथ कई प्रकार की संयम-साधनाएँ-तपश्चर्याएँ भी जुड़ती है।

इसके आगे मध्यवर्ती मन संस्थान है। यही सूक्ष्म शरीर कहा जाता है। इसके लिए किन्हीं समर्थों का प्राण अनुदान चाहिए। इसी को शक्तिमान भी कहते है। इसे हर कोई नहीं कर सकता। जिसमें स्वउपार्जित प्राण ऊर्जा प्रचुर मात्रा में हो वही सम्पन्नों द्वारा निर्धनों की सहायता किये जाने की तरह सम्बद्ध अनुचरों की सहायता कर सकता है। प्राणमय वातावरण में पहुँचकर सिंह और गाय अपनी पुरानी प्रकृति भूल कर निर्भयता और मैत्री अपनाते थे। गुरुकुलों के इसी अनुदान के कारण शिक्षार्थी नर-रत्न बन कर निकलते थे। पारस से छूकर लोहे का सोना बन जाना इसी प्राण प्रक्रिया का नाम है।

अतीन्द्रिय क्षमताओं की चमत्कारी सिद्धियाँ इसी क्षेत्र से प्राप्त होती है। दूरदर्शन दूरश्रवण विचार-संचालन भविष्य-कथन सम्मोहन जैसी परामनोवैज्ञानिक सिद्धियाँ भी इसी क्षेत्र का उत्पादन है। दूरदर्शी विवेकशील इसी भूमि में उपजती है। कल्पनाओं इच्छा-आकाँक्षाओं में परिवर्तन करने के लिए इसी भूमि को सँजोना पड़ता है। व्यक्तित्व की गलाई-ढलाई प्रायः इसी परिकर में होती है। सूक्ष्म शरीर की क्षेत्र यही है।

स्थूल शरीर काय कलेवर को कहते है। आदतें इसी में निवास करती है। तरह-तरह के अभ्यास इसी क्षेत्र में किये जाते है। इसे परामर्श मार्गदर्शन से भी प्रभावित किया जा सकता है। वातावरण का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता देखा जाता है। जिस प्रकार का माहौल चारों ओर घिरा होता है। प्रायः सामान्यजन उसी प्रकार का क्रिया-कलाप अपना लेते है। यो शरीर आहार के आधार पर पुष्ट होता है पर उसका प्रभाव मन पर भी पड़ता है। इसलिए शरीर और मन दोनों को साधने के लिए आहार-विहार की सात्विकता अपनानी पड़ती है और संयम बरतना पड़ता है। तप-तितीक्षा इसी को कहते है।

आत्मोत्कर्ष के क्षेत्र में एक कठिनाई और भी है कि कुकर्मों का पाप अन्तःक्षेत्र में भारी अवरोध बनकर जम जाता है। वह सुसंस्कारों के पैर जमने नहीं देता। दुष्परिणाम भुगतने के लिए अधोगामी प्रवृत्ति पनपाता रहता है। फलतः ऊर्ध्वगमन की सत्प्रवृत्ति को पकड़ सकने की बात बन ही नहीं पड़ती। इसके लिए एक ही उपाय है प्रायश्चित जिसके आधार पर खोदे हुए गड्ढे को पाटा जा सके। धुलाई के उपरान्त रँगाई ठीक तरह बन पड़ती है। जुताई के बाद खेत में अच्छी फसल उगती है। गलाई के बाद ढलाई होने का उपक्रम सर्वविदित है।

शांतिकुंज में 9-9 दिन के साधना सत्र निरन्तर चलते है। 1 से 9, 11 से 19, 21 से 29 का क्रम हर महीने चलता है। इन्हें जीवन साधना सत्र कहते है। जीवन विद्या ही पुरातन काल की संजीवनी विद्या है। इसमें शरीर तो पूर्ववत ही रहता है। पर व्यक्तित्व को परिष्कृत विकसित करने का उद्देश्य बहुत हद तक पूरा हो जाता है। कारण कि इस शिक्षण में मात्र परामर्श प्रवचन तक ही सीमित नहीं रहा जाता वरन शिक्षार्थी के तीनों शरीरों को स्वस्थ समुन्नत बनाने का प्रयत्न किया जाता है। इसी के अनुरूप दैनिक कार्यक्रम रहता है और साधनात्मक अनुशासन में इस अभीप्सा की बहुत हद तक पूर्ति होती है। वातावरण इस क्षेत्र का पहले से ही सुसंस्कारित है। वर्तमान प्रयत्नों से उसे और भी अधिक प्रखर बनाया जाता है।

गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सप्त ऋषियों की तप वाली सप्त धाराएँ यहीं है। यह पुरातन है। आधुनिक यह है कि यहाँ लम्बे समय से जलती आ रही अखण्ड ज्योति की स्थापना है, नित्य लाखों की संख्या में गायत्री जप होता है। 9 कुण्ड की यज्ञशाला में प्रतिदिन दो घण्टा यज्ञ होता है। कथा कीर्तन सत्संग आदि का दैनिक क्रिया-कलाप चलता है। इस सबके सहारे आश्रम के वातावरण में दिव्य तत्व भरे रहते है। तीर्थ सेवन अन्न क्षेत्र, अतिथि सत्कार गुरुकुल दातव्य चिकित्सालय जैसे पुण्य कार्यों से इस भूमि की पवित्रता निरन्तर बढ़ती ही जाती है।

आश्रम के संचालकों की सूक्ष्म सता को प्रखर प्रज्ञा और सजल श्रद्धा के रूप में जाना जाता है। उन्हें वशिष्ठ और अरुन्धती का युग्म भी माना जाता है। इनका प्राण प्रवाह आश्रम के कण-कण में छाया रहता है। आश्रमवासी जीवन दानी कार्यकर्ताओं की संख्या 250 के लगभग है। इनका साधु-ब्राह्मण स्तर का जीवन-यापन क्रिया-कलाप हर शिक्षार्थी को आदर्शवाद की प्रत्यक्ष प्रेरणा बनकर आँखों के सामने खड़ा रहता है।

यही सब आधार है जो जीवन साधना सत्रों में सम्मिलित होने वालों को अनायास ही प्रभावित करते है। प्रशिक्षण के जितने भी तंत्र है, उनमें वातावरण की प्रभावशीलता को सर्वोपरि माना गया है। शांतिकुंज का वातावरण ऐसा ही है। जिसमें व्यक्तित्व के परिष्कार की साधना ठीक प्रकार बन पड़ती है। यह कार्य घर के लोग व्यवहार सम्बन्धी उतार-चढ़ावों के बीच रहकर सम्भव नहीं हो सकता।

मानव जीवन भगवान का सबसे बड़ा वरदान है। जीने को तो जीव-जन्तु और पशु पक्षी भी मौत के दिन पूरे करते है। पर मनुष्यों को शरीर ही नहीं, अद्भुत मन संस्थान और दिव्य अन्तःकरण भी मिला हुआ है। इन तीनों के मिलन को त्रिवेणी संगम कहा जा सकता है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश का प्रत्यक्ष अवतार भी। यह इस विश्व ब्रह्माण्ड का अनुपम वरदान एवं सुयोग है। यदि इस सम्पदा का सही प्रकार उपयोग किया जा सके तो बहुमुखी सफलताएँ-सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती है। स्वस्थ समुन्नत, प्रतिष्ठित, सम्पन्न एवं सफल जीवन जीने का अवसर मिल सकता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में सर्वोपरि समझी जाने वाली स्वर्ग और मुक्ति जैसी विभूतियाँ भी जीवन को सही रूप से जी लेने की कला जानने पर इसी लोक में इसी शरीर में उपलब्ध हो सकती है। जीवन साधना से बढ़कर और कोई सुयोग सौभाग्य है नहीं। इन्हीं की झलक झाँकी शांतिकुंज के जीवन साधना सत्रों में उपलब्ध होती है।


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