शान्ति कुंज-गायत्री तीर्थ

January 1988

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भारत की देव संस्कृति में तीर्थों का, तीर्थ यात्रा का असाधारण महत्व है। धार्मिक प्रथा परम्पराओं को इसी कारण सर्वोपरि महत्व मिला हुआ है। हर साल करोड़ों यात्री तीर्थ यात्रा पर निकलते हैं और इस हेतु अरबों-खरबों रुपया खर्च करते हैं। समय लगने की दृष्टि से भी हर यात्री को औसतन एक सप्ताह इसी निमित्त लग जाता है। लौकिक मनोकामनाएँ पूर्ण करने से लेकर, पापों का क्षय, पुण्य का उदय, स्वर्ग और मुक्ति की प्राप्ति, देवता की प्रसन्नता अनुकम्पा जैसे अनेकों मनोरथ लेकर जाते है। श्रद्धा या अन्धश्रद्धा से वे अपनी मान्यता के फलित होने की भी आशा करते है।

विचार करने पर मात्र देव-दर्शन, नदी स्नान, दान दक्षिणा, छुट-पुट कर्मकाण्ड की शारीरिक क्रिया कर लेने भर से कोई कारण समझ में नहीं आता कि इतने सत्परिणामों का पिटारा इतने सस्ते मोल में किसी के हाथ लग सकता है। क्योंकि पुण्य तो सघन श्रद्धा, पवित्रता और उदारता पूर्वक किये गये परमार्थ के सहारे ही उपलब्ध हो सकता है। इससे कम में अध्यात्म क्षेत्र की कोई विभूति हस्तगत नहीं होती। फिर लोगों में तीर्थों के इतने उच्चस्तरीय प्रतिफल प्राप्त करने की मान्यता क्यों कर बनी और वे क्यों कर इस सीमा तक अपनाने के लिए तत्पर हो गये? तीर्थयात्रियों की संख्या हर साल हर तीर्थ में बढ़ती ही जाती है। इसका एक कारण पर्यटन के प्रति लोगों की सहज उत्सुकता भी हो सकती है और यह भी कहा जा सकता है कि सर्वसाधारण के लिए सैरगाहों की आवश्यकता पूरी होने जैसी कोई स्वतंत्र व्यवस्था नहीं है, उन्हें तीर्थ का ही एकमात्र अवलम्बन मिलता है। वहाँ जाकर दैनिक जीवन के व्यस्त और नीरस क्रियाकलाप से ऊबा हुआ व्यक्ति कुछ समय के लिए राहत पाता है। पर्यटन का आनंद लेता है और साथ के अनेकानेक लौकिक और पारलौकिक प्रतिफलों की आशा अपेक्षा भी करता है।

इस प्रचलन का आरम्भ किस प्रकार हुआ? इसका पुरातन आधार ढूंढ़ने पर यहाँ पहुँचने पर पैर टिकते हैं कि पुराणों में महात्म्य ग्रन्थों में अनेकानेक तीर्थों का आश्चर्यजनक इतिहास एवं पुण्यफल बताया गया है। इसी को आधार मानकर भावुक-जनों की धर्मश्रद्धा अन्यान्य कठोर साधनाओं की अपेक्षा इसी सरल उपाय की ओर मुड़ गई। अनुकरण प्रियता के लिए मानवी दुर्बलता प्रसिद्ध है। एक को किसी नूतन कार्य में प्रवृत्त होते देख कर उसके साथ अनेकों कौतूहल–प्रिय लग लेते हैं। यह बात स्वभाव तो है ही, बड़े भी इसका अपवाद नहीं है। विशेषतया ढलती आयु में जब सर्वथा निठल्ले रहना और नीरस जीवन बिताना पड़ता है, तब तो कहीं जाने आने की इच्छा और भी तीव्र होती है। वे अपनी अभिलाषा घर वालों पर व्यक्त करते हैं और उन्हें वह दबाव इच्छा या अनिच्छा से स्वीकार करना पड़ता है। कुछ की उत्सुकता इस हेतु अन्यान्य अनेकों पर उत्साह का अतिरेक बन कर सवार हो जाती है और रेल के डिब्बों, बसों की कतारों का मुख निकटवर्ती, दूरवर्ती तीर्थों की ओर मुड़ जाता है। यह है आज तीर्थों में जमा होती और दिन-दिन बढ़ती जा रही भीड़ का प्रधान कारण।

अब प्रश्न उठता है कि आखिर शास्त्रकारों को क्या सूझा कि उन्होंने इस भाग दौड़ के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया और उनके धन, श्रम, समय का सदुपयोग नष्ट न होने के सम्बन्ध में कुछ भी विचार नहीं किया? इतना तो वे भी जानते होंगे कि पुण्य परमार्थ के लिए आत्म शोधन और पुण्य परमार्थ यह दो ही अवलम्बन है, जिन्हें अपनाये बिना किसी आत्मिक क्षेत्र की विभूति का उपलब्ध हो सकना सम्भव नहीं। कर्मकाण्ड तो उस दिशा में प्रतीकात्मक मार्गदर्शन ही करते है।

ऋषियों और शास्त्रकारों के सम्मुख उन दिनों तीर्थ यात्रा का स्वरूप दूसरा था। जिसे आज की भगदड़ से सर्वथा भिन्न ही माना जाता है। उन दिनों तीर्थ प्राकृतिक सौंदर्य वाले जलाशयों की निकटता वाले और भूतकालीन प्रेरणाप्रद प्रसंगों के साथ जुड़े हुए तो थे ही उनकी स्थापना के लिए चयन ऐसे ही स्थानों की किया गया था। पर यह तो चयन और स्थापना की बात रही, उपयोगिता का समावेश इसकी तुलना में और भी अधिक बुद्धिमता ओर श्रम साधना के आधार पर हुआ था।

तीर्थों के देवालय-जलाशय एक शारीरिक उत्साह की ही अभिवृद्धि करते है। मूल लाभ तो उस भावनात्मक उत्थान परिष्कार से होता है, जिसके कारण व्यक्ति अपने दोष-दुर्गुणों को छोड़ता है। भ्रान्तियों से ऊपर उठता है। उत्कृष्ट जीवन की रीति-नीति अपनाता है। यह सब कुछ अनायास ही नहीं हो जाता। इसके लिए उच्चस्तर का ऐसा दबाव पड़ना चाहिए, जो कच्ची धातुओं को गलाने ढालने जैसा ज्वलंत एवं ऊर्जा सम्पन्न हो। यह भूमिका उन दिनों तत्वज्ञानी, तपस्वी एवं महामनीषी ही निबाहते थे। तीर्थों में उनके कई-कई आश्रम रहा करते थे, जिसमें विभिन्न वर्गों के, स्तरों के, व्यक्तियों के प्रशिक्षण की सुनियोजित व्यवस्था मात्र शिक्षा ही पर्याप्त नहीं समझी जाती थी, साथ में साधना प्रक्रिया भी जुड़ी रहती थी। साधना प्रक्रिया में संयुक्त होकर ही उच्च स्तरीय प्रशिक्षण भावना क्षेत्र में उतरता है और जीवन में चरितार्थ होने की स्थिति में पहुँचता है। इस दुहरी प्रक्रिया को सम्पन्न करा सकने में समर्थ थे वे आश्रम, वे शिक्षण संस्थान जिन्हें तीर्थ प्रक्रिया की जीवन-प्राण सार तत्व कहा जा सकता है।

उन दिनों तीर्थ यात्री इन दिनों की तरह देहली छूने के लिए दौड़ते और उलटे पैरों लौटने की उतावली में नहीं होते थे। वरन लम्बी पद यात्रा की थकान उतारने से लेकर संजीवनी विद्या घोट कर पिलाने वाले आश्रमों में कुछ अधिक समय वहाँ रहते थे। वहाँ के दिव्य वातावरण से प्रभाव और प्रेरणा ग्रहण करते थे। साधना चलती थी। संस्कृति के साथ घनिष्ठतापूर्वक जोड़ने वाले उपनयन, वानप्रस्थ और अन्य संस्कार कराये जाते थे। इसके अतिरिक्त बन पड़े पाप कर्मों के प्रायश्चित, आत्म-परिष्कार की तपश्चर्याएँ तथा उलझी हुई गुत्थियों का समाधान करने वाले प्रवचन-प्रशिक्षण एवं परामर्श का लाभ मिलता था। जो सुधार परिवर्तन घर के सामान्य वातावरण में बहुत प्रयत्न करने पर भी सम्भव नहीं होता था, वह वहाँ थोड़े ही समय के तीर्थ सेवन से सम्पन्न हो जाता था।

गुरुकुल तीर्थों में ही होते थे। वहाँ पढ़ने के लिए बालक इसलिए भेजे जाते थे कि नर-रत्नों के स्तर तक विकसित करने की जो प्रक्रिया घर के अस्त-व्यस्त वातावरण में सम्भव नहीं हो पाती, उसे आश्रमों के ऊर्जा भरे आवे जैसे वातावरण में रखकर आसानी से पकाया जा सकेगा। वस्तुतः होता भी ऐसा ही था। छात्र अनुशासन पालते, श्रद्धावनत रहते और जीवन के हर पक्ष को विकसित करने का ऐसा लाभ उठाते थे जिस आधार पर उन्हें महामानवों की श्रेणी में खड़ा होने का सुयोग-सौभाग्य मिलता था। इस प्रयोजन की पूर्ति में शिक्षण का पाठ्यक्रम साधारण होते हुए भी वहाँ का दिव्य वातावरण चमत्कारी प्रतिफल उपस्थित करता था।

बालकों के लिए वर्षों तक गुरुकुल प्रणाली की शिक्षा चलती थी। जो वयस्क है, गृहस्थ है, कार्य व्यस्त है उन्हें भी आत्म-परिष्कार और उज्ज्वल भविष्य के निर्धारण का लाभ प्राप्त करना तो आवश्यक था ही। समय की कमी को देखते हुए तीर्थों में ऐसे कल्प साधना सत्रों के प्रशिक्षण की व्यवस्था थी जिसे तीर्थ सेवन सत्र के नाम से जाता जाता था। उन दिनों तीर्थ यात्री चित्र-विचित्र इमारतों को देखने दृश्य परक विनोद का मजा लूटने के लिए नहीं वरन कुछ ठोस आधार अपनाने के लिए जाते थे। इसके लिए उन्हें न्यूनतम दस दिन तो अपने को तपाने चमकाने के लिए समय देना ही पड़ता था। स्वर्णकार इससे कम समय में कोई शानदार आभूषण गढ़ भी तो नहीं सकता। इसमें एकनिष्ठ रहने की नितान्त आवश्यकता पड़ती है। तीर्थ सेवनकर्त्ता इसी तैयारी से वहाँ जाते थे।

देव धर्म को आश्रम व्यवस्था में बँधा हुआ समझा जाता था। ब्रह्मचर्य में विद्याध्ययन, शरीर संवर्धन- गृहस्थ में परिवार पोषण, आजीविका उपार्जन में जीवन का पूर्वार्द्ध लग जाता था। ढलती आयु का उत्तरार्द्ध विशेष रूप से परमार्थ प्रयोजन के लिए- लोक सेवा के लिए निर्धारित था। इस संदर्भ में आवश्यक अनुभव अभ्यास प्राप्त करने के लिए यही तीर्थ, आश्रम, वानप्रस्थ, आरण्यक के रूप में भी अपनी एक महत्वपूर्ण शाखा चलाते थे। इस प्रकार बालकों को, युवाओं को, प्रौढ़ों को, वृद्धों को, महिलाओं को अपने अपने काम आने वाली प्रेरणाएं एवं दिशाधाराएँ प्राप्त करने का अवसर तीर्थों में मिलता था। इसी उपयोग को देखते हुए शास्त्रकारों ने सर्वसाधारण को प्रेरणा दी थी कि वे जीवन के अन्यान्य आवश्यक कार्यों में ही एक कार्य तीर्थ सेवन का माने। उसके लिए समय निकालें और वह लाभ प्राप्त करें जो अन्यत्र कहीं भी किसी भी मूल्य पर प्राप्त नहीं हो सकता।

तीर्थ यात्राएँ शास्त्रीय विधि से पैदल ही हो सकती है। वाहनों का उपयोग करने पर उनका पुण्य फल चला जाता है। इस पद यात्रा का असाधारण महत्व है। यात्री गाँव-गाँव धार्मिकता की चेतना उत्पन्न करते हुए आगे बढ़ते थे। रात्रि को जहाँ भी विश्राम करते थे, वहाँ कथा कीर्तन का आयोजन करते थे। स्थानीय लोगों को वहाँ की स्थिति के अनुरूप परामर्श देते थे। इस आधार पर निरन्तर लोक चेतना को सजीव रखने वाला सिंचन कार्य चलता रहता था। तीर्थयात्री राजमार्ग पर नहीं चलते थे, पर पगडंडियों को अपनाते और गाँव-गाँव से संपर्क साधते थे। एक मार्ग से जाते और दूसरे से लौटते थे, ताकि अधिकाधिक लोगों में अधिकाधिक गाँवों में वे नवचेतना का संचार करते चलें।

यही वे महान उद्देश्य थे जिनके आधार पर इस देश के नागरिक तैंतीस कोटि देवताओं की गणना में गिने जाते रहे। उन्हें जन्म देने वाली इसी भूमि को ‘स्वर्गादपि गरियसी’ होने का श्रेय सौभाग्य मिलता रहा। आज तीर्थों का ढोंग तो है, स्थान भी वे ही हैं, पर उनके माध्यम से जो जन कल्याण बन पड़ता था, उस महान उद्देश्य का तो कहीं दर्शन भी नहीं होता। कलेवर खड़े है, पर लगता है उनमें से प्राण तिरोहित हो गये।

अखण्ड ज्योति का विचार तंत्र इस अति महत्वपूर्ण समस्या पर गम्भीरतापूर्वक विचार करता रहा है और यह सोचता रहा है कि तीर्थ संस्था को पुनर्जीवित करने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है? जो सम्भव हो उसे समय रहते किया जाना चाहिए।

लम्बे समय के विचार मंथन के उपरान्त यह निश्चय किया गया कि इसके लिए उपयुक्त स्थान चुना जाय और पुरातन काल की तीर्थ संस्था का स्वरूप, उद्देश्य, क्रिया-कलाप और प्रभाव परिणाम इस आधार पर प्रस्तुत किया जाय कि पुरातन की झाँकी को नवीन में किया जा सके। मूर्च्छित में नवचेतना का संचार होता देखा जो सके।

हरिद्वार सप्तसरोवर पर शान्ति-कुंज की स्थापना इसी महान प्रयोजन को सामने रख कर छोटे रूप में किन्तु साँस्कृतिक पुनर्जीवन का महान लक्ष्य सामने रख कर की गयी। गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सप्त ऋषियों की तपोभूमि, सप्त धाराओं वाले क्षेत्र में इस गायत्री तीर्थ का निर्माण किया गया। संस्कारित भूमि में गायत्री के तत्व दृष्टा विश्वामित्र की पुरातन संस्कार चेतना अभी भी देखी जा सकती है। सातों ऋषि एक ही दिशा धारा के पालक थे, किन्तु उन सभी ने अपने-अपने हिस्से के अपने-अपने काम सम्भाले थे। परिवार के सदस्यों में सभी के काम बँटे होते थे। पर वे सभी परस्पर पूरक बनते और परिवार संस्था को सुविकसित बनाते थे।

अखण्ड-ज्योति की अनेक प्रेरणाओं और स्थापनाओं में से एक शान्ति-कुंज भी है, जिसे तीर्थ परम्परा का- ऋषि युग की रीति-नीति का सार संक्षेप समझा जा सकता है। यहाँ व सभी प्रवृत्तियां चलती है जिनके आधार पर इन दिनों भी इन्हीं कारणों से ऋषि युग का साक्षात्कार किया जा सकता है।


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