वनौषधि विज्ञान का पुनर्जीवन!

January 1988

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शरीर वनस्पतियों का ही रूपांतरण है। अन्न, शाक, फल, दूध, शहद, शक्कर आदि वनस्पतियों से ही बनते है। वायु में पोषक आक्सीजन वनस्पतियों का ही उत्पादन है। इन्हीं के आधार पर मनुष्य जीवित रहता है। यहाँ तक कि माँस भी शाकाहारी प्राणियों के ही खाने योग्य होता है। जिन वनस्पतियों से शरीर बना है उनमें कतिपय प्रकार के रासायनिक तत्व होते है। उनमें कतिपय प्रकार के रासायनिक तत्व होते है। इनका संतुलित मात्रा में बने रहना सुदृढ़ स्वस्थता का आधार है। आहार-विहार मौसम चोट असंयम आदि के कारण जब रुग्णता आ घेरती है तो विश्लेषण करने पर पता चलता है कि शरीर में कहीं रासायनिक संतुलन बिगड़ गया। विषाक्तता इसी कारण उत्पन्न होती है। विकृतियों के लक्षण उभरने का यही कारण है।

गड़बड़ियों को सुधारने के लिए बिगड़े हुए रासायनिक संतुलन को बनाना पड़ता है। इसमें निष्कासन और अभिवर्धन के दोनों ही पक्ष कार्यान्वित करने होते है। इन प्रयोजनों के लिए वनस्पतियों का आश्रय लेना ही कारगर सिद्ध होता है। यों शरीर में खनिज, लवण, तरल, स्निग्ध, प्रोटीन आदि कई प्रकार के पदार्थ पाये जाते है; पर वे अवयवों में टिकते, रमते तभी है जब वनस्पतियों से उन्हें उपलब्ध किया जाय। यदि इन्हें अन्य माध्यमों द्वारा शरीर में प्रवेश कराया जाय तो वे टिकते नहीं। संरचना उन्हें खदेड़ कर बाहर फैंक देती है। उदाहरण के लिए अन्न-शाक आदि में रहने वाला क्षार ही पचता है। यदि उसे खनिज रूप में प्राप्त करके शरीर ठूँसा जाय तो वह मल, द्वारों से स्वेद साँस आदि से होकर बाहर निकल जायेगा। अवयवों पर उन्हें खदेड़ने का अनावश्यक भार पड़ेगा। खनिज लवण पचता नहीं। यही बात अन्य रसायनों के सम्बन्ध में भी है। यदि उन्हें रोग निवारण अथवा पौष्टिकता अभिवर्धन के लिए प्रयुक्त किया जाता है, तो सही मार्ग यही है कि उन्हें वनस्पतियों के माध्यम से ही प्राप्त किया जाय। सफाई और पुष्टाई के सम्बन्ध में उन्हीं का उपयोग कारगर सिद्ध होता है। अन्य माध्यमों से अपनाई गई चिकित्सा प्रणाली क्षणिक चमत्कार भले ही दिखा दे। उनका स्थाई एवं उपयोगी प्रभाव नहीं हो सकता। अस्तु शारीरिक दुर्बलता एवं रुग्णता का निवारण करने के लिए ऐसी वनस्पतियाँ ढूंढ़नी पड़ती है जो कमियों को पूरा कर सकें। विषाणुओं का दमन कर सके।

प्रकृति की यह महत्ती कृपा है कि हर प्राणी को उसकी आवश्यकताओं को पूरा कर सकने वाले माध्यम उसी के निकटवर्ती क्षेत्र में उपस्थित कर दिये है साथ ही वे ऐसे भी है जिन्हें थोड़े श्रम से आसानी के साथ ढूंढ़ा जा सके। अन्य प्राणी तो धन कहाँ खर्च कर सकते हैं? उनके पास तो मात्र श्रम की ही सम्पदा है। इसी के सहारे जीवधारी शरीर संकट खड़ा होने पर अपना उपचार आप कर लेते है। उन्हें किन्हीं चिकित्सकों का भी आश्रय नहीं लेना पड़ता।

देखा गया है कि पेट में गड़बड़ी उत्पन्न होने पर वन्य प्राणी एक विशेष प्रकार की घास ढूंढ़ कर खाते है और कुछ ही देर में वमन कर देते है। न्यौले के सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि जब उसे विषैले साँप से लड़ना होता है तो विष नाशक बूटी ढूंढ़ कर उसे खाना और दंश का विष उतारता रहता है। अन्य प्राणी भी रुग्ण होने पर इसी विद्या को अपनाते है। वनस्पतियों में अगणित गुण तत्व भरे पड़े है। मधुमक्खियाँ फूलों से ही शहद जैसा रसायन खींचती और जमा करती रहती है।

महर्षि चरक ने अपना समूचा जीवन शिष्य मण्डली को साथ लेकर विभिन्न क्षेत्रों में पाई जाने वाली वनौषधियों का अन्वेषण प्रयोग-परीक्षण किया था। उस आधार पर उन्होंने यह प्रत्यक्ष कर दिखाया कि रुग्णता और दुर्बलता से वनौषधियों के सहारे भली प्रकार निपटा जा सकता है। वे बिना मूल्य आस-पास खोजने पर ही मिल जाती है। मात्रा प्रयोग की सीमा और अनुपान व्यवस्था ही किसी अनुभवी से जाननी पड़ती है। इस सुविधा के होते हुए भी किसी निर्धन को यह शिकायत करने का अवसर नहीं मिलना चाहिए कि वह पैसे के अभाव में उपयुक्त चिकित्सा न करा सका।

प्राचीन काल के ऐसे अनेकों उदाहरण मिलते हैं जिनमें शरीर संकट को वनस्पतियों के आधार पर हटाया जा सका। प्रसिद्ध है कि लक्ष्मण जी पर मेघनाद ने अमोघशक्ति शस्त्र का प्रहार किया था और वे प्रायः मरणासन्न स्थिति में पहुँच गये थे। उपचार के लिए सुषेण वैद्य बुलाये गये उसने बताया कि संजीवनी बूटी लाई जा सके तो प्राण बच सकते है। हनुमान जी उस पर्वत को ही उखाड़ लाये। सुषेण ने संजीवनी पहचानी और उसे पिला कर लक्ष्मण जी को प्राण संकट से बचाया। इसी प्रकार का एक उदाहरण च्यवन ऋषि का भी है। वे जराजीर्ण हो चुके थे। नेत्र ज्योति गँवा चुके थे। उन्हें पुनः यौवन प्रदान करने के लिए अश्विनी कुमारों ने एक वनस्पति योग प्रदान किया जिससे उनकी वृद्धावस्था युवावस्था में बदल गयी। उसी घटना का स्मरण दिलाते हुए तब से ही च्यवनप्राश अवलेह जनसाधारण के लिये वैद्यों द्वारा उपलब्ध कराया जाता रहा है।

कभी काया कल्प का प्रचलन था। उसमें जीर्ण कोशाओं को नवीनता में बदल दिया जाता था और उस प्रयोग को करने वाले साँप के दंश को उतार कर स्फूर्तिवान बना जाने जैसा लाभ उठाते थे। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि पड़ौस के खेत मैदानों में बिना मूल्य उपलब्ध होने वाले इस प्रकृति के दिव्य अनुदान को ठुकराया गया और इंजेक्शनों, कैप्सूलों, टॉनिकों, एन्टीबायोटिकों पर लोग बुरी तरह टूट पड़े। चकाचौंध में बुद्धि भ्रम बढ़ा और उसे डाक्टरों ने पूरे उत्साह के साथ बढ़ाया। यह नहीं समझा, समझाया गया कि इस तीव्र उत्तेजक और मारक उपचार के पीछे क्या प्रतिक्रिया होती है? रोग तो समयानुसार चला जाता है पर विषाक्त औषधियों की प्रतिक्रिया जीवन भर तक एक नई व्याधि बन कर पल्ला पकड़ लेती है। उसे छोड़ने का नाम नहीं लेती। उपचार कराने वाले नये-नये कष्ट, व्यथाएँ साथ लेकर लौटते हैं।

इस व्यापक भ्रम जंजाल से कैसे निकला जाय? रुग्णता से ही नहीं दुर्बलता से भी कैसे छुटकारा पाया जाय। इसका सरल बिना जोखिम का बिना खर्च का, उपाय क्या खोजा जाय? इसका उपाय एक ही हो सकता है कि ऋषि परम्परा का पुनर्निरीक्षण किया जाय और वनौषधि विज्ञान को पुनर्जीवित किया जाय।

यों आयुर्वेद प्रणाली के ज्ञाता न्यूनाधिक रूपों में काष्ठौषधियों का भी प्रयोग करते हैं। पर देखा गया है कि वे ऐलोपैथी की दवाओं की तुलना में ठहरती नहीं, वैसा प्रभाव नहीं दिखाती। फलतः चिकित्सकों का भी उत्साह ठण्डा होता है और रोगी भी उन्हें लेने से नाक भौं सिकोड़ते हैं। इसी उपेक्षा के बढ़ते-बढ़ते मूर्धन्य चिकित्सक आयुर्वेद को “तीर-तुक्का” तक कह गुजरते है। इस असमंजस भरी स्थिति में हर भारतीयता के प्रति स्वाभिमान रखने वाले को चोट पहुँचती है। शासन के क्षेत्र में हम स्वतन्त्र जरूर हुए, पर भाषा के क्षेत्र में, चिन्तन के क्षेत्र में विशेषतया चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान के क्षेत्र में हम अभी भी पराधीन परावलम्बी बने हुए है। अपना कुछ ऐसा बन पड़ा जिस पर सिर गर्व से ऊँचा किया जा सकता। चिकित्सा के क्षेत्र में तो यह स्थिति और भी अधिक चिन्ता जनक है। देश में 75 प्रतिशत निर्धन बसते है। देहातों में रहते है और छोटे साधन रहित गाँवों में रहकर किसी प्रकार गुजर करते है। वहाँ न अस्पताल है और डाक्टर। हों भी तो उनकी तगड़ी फीस और दवाओं की महँगी कीमत कहाँ से जुटाई जाय? इस विवशता की स्थिति में असंख्यों असहाय रह कर रुग्णता से पीछा नहीं छुड़ा पाते और मौत के मुँह में चले जाते है। इस प्रकार अकाल मृत्यु की कल्पना करने मात्र से सिहरन उत्पन्न होती है।

समस्या का समाधान क्या होना चाहिए? इस सम्बन्ध में विचार करने पर एक ही प्रकाश किरण आशा बँधाती है कि किसी प्रकार वनौषधि-विज्ञान का पुनर्जीवन हो चुका होता तो कितना अच्छा होता। जीवन-मरण जैसी एक महत्ती समस्या का समाधान निकल आता। इस संदर्भ में कठिनाई एक ही है कि शुद्ध रूप में वनौषधियाँ मिल सकना अति दुर्लभ हो गया है। पंसारियों की दुकानों पर बीसियों वर्ष पुरानी जड़ी बूटियाँ मिलती है, जबकि उनका गुण एक बरसात निकलने पर समाप्त हो जाता है। नकली शकल सूरत वाली घास पातों की भी भरपूर मिलावट होती है। पकने पर वनस्पतियों को लाया जाना चाहिए; पर नई, कच्ची, पुरानी, सूखी भी उसी ढेर में सम्मिलित करके बेचने वाले लाते है। उन्हें उपयुक्त खाद पानी न मिलने पर उपयुक्त गुणों का समावेश नहीं हो पाता इन कठिनाइयों के रहते उपलब्ध वनौषधियों में से अधिकाँश गुणहीन और अप्रामाणिक होती है। तब वे अपना प्रभाव उस स्तर का कैसे दिखाये? जैसा कि उनके सम्बन्ध में शास्त्रों में वर्णन है।

मात्र चिन्ता करना और दुर्भाग्य को कोसना पर्याप्त नहीं। इसके लिए कारगर उपाय करने की आवश्यकता थी। उसके लिए साहसिक कदम शान्ति-कुंज ने उठाया है। अपने निजी उद्यान में इसका प्रयोग आरम्भ किया है। देश के विभिन्न क्षेत्रों से दुर्लभ किन्तु अतीव गुणकारी औषधियों .... और इस स्थिति तक पहुँचाया गया है जिसमें से इस संदर्भ में हुए ऋषि प्रतिपादनों को सत्य सिद्ध करके दिखा सकें। इस दिशा में उठे कारगर कदमों से महर्षि चरक जैसों को सच्ची श्रद्धांजलि भी हो सकती है और उसे आयुर्वेद के पुनर्जीवन जैसा नाम भी दिया जा सकता है। यों अभी शान्ति-कुंज और ब्रह्मवर्चस का वनौषधि उद्यान छोटा है, पर प्रयत्न यह चल रहा है कि उसके लिए किसी बड़े फार्म की व्यवस्था की जा सकें। जहाँ से पौध और बीज समूचे देश में भेज सकने और गाँव-गाँव जड़ी-बूटी उद्यान उगाने का प्रबन्ध हो सके। इस प्रयत्न की सफलता पर देशवासियों की स्वास्थ्य रक्षा का एक अति महत्वपूर्ण आधार खड़ा हो सकेगा। तब निर्धनता किसी को भी अकाल मृत्यु का ग्रास न बनने देगी और न किसी को साधनों के अभाव में रुग्णता की व्यथा लम्बे समय तक सहन करते रहने के लिए विवश होना पड़ेगा। वनौषधियों के चमत्कारी गुणों से अवगत होने और उसका सही रीति से उपयोग कर सकने की सुविधा होने पर अपना निर्धन देश चिकित्सा क्षेत्रों में परदेशी पराधीनता से भी मुक्ति पा सकेगा और आरोग्य संवर्धन स्वास्थ्य संरक्षण के सम्बन्ध में महत्ती सफलता प्राप्त कर सकेगा। शुद्ध सही सार्थक और जीवन्त वनस्पतियाँ यदि बोई, बढ़ाई और उपलब्ध की जा सकें तो समझना चाहिए कि देश आरोग्य के सम्बन्ध में स्वावलम्बी हुआ। इसे भी स्वतंत्रता संग्राम का एक पक्ष माना जा सकता है। उन लाभों से भी लोकहित साधन का एक महत्वपूर्ण द्वार खुल सकता है।

अस्पताल-दवाखाने खोल देना एक बात है। उन्हें अर्थ सुविधा के आधार पर सरकारी गैर-सरकारी तौर पर कहीं भी खोला और साज-सज्जा से भरपूर बनाया जा सकता है। किन्तु यदि औषधियाँ उपयुक्त गुण वाली न हुई तो उन भव्य भवनों से भी क्या बात बनी। इसी प्रकार यदि तथाकथित उच्च शिक्षा प्राप्त चिकित्सकों की भर मार तो हुई, पर उनके खर्चीले ठाट-बाट को पूरा करने के लिए उपयुक्त फीस चुकाने का प्रबन्ध न हो सका तो उसका लाभ मात्र धनिकों को ही मिलेगा। निर्धन तो उनके इर्द-गिर्द चक्कर काटते, हसरत भरी निगाहों से देखते और निराश ही वापस लौटते है। आवश्यकता इसी वर्ग को राहत देने की है। दरिद्रनारायण कहलाने वाले बहुमत वाला वर्ग ही ऐसा है, जिसे भारत का वास्तविक रूप समझा और उसके लिए गम्भीरतापूर्वक प्रयत्न किया जाना चाहिए।

अखण्ड-ज्योति के पौत्र शान्ति-कुंज ने वनौषधि अनुसन्धान का जो कार्य हाथ में लिया है उसकी अपनी विशेषता है। इसलिए उसे अपने ढंग का अनोखा भी कह सकते है। कारण कि यहाँ इस उत्पादन के साथ प्रयोग परीक्षण भी चलता रहता है। अभी बाहर के रोगियों की बहुत बड़ी सेवा कर सकने की व्यवस्था तो नहीं बनी है। पर आरम शिविरार्थियों और स्थाई कार्यकर्ताओं की प्रायः एक हजार जितनी उपस्थिति से भरा रहता है। उन्हें सुयोग्य चिकित्सकों के तत्वावधान में रुग्णता निवारण के लिए जड़ी-बूटी उपचार से लाभान्वित किया जाता है। जो परिणाम सामने आये है, उन्हें देखते हुए यह विश्वास पूर्वक कहा जा सकता है कि यदि इस दिशा में अधिक कार्य हो सका तो देश की ही नहीं विदेशों की भी समस्त मानव जाति की रोग निवारण समस्या का समाधान हो सकेगा। इसे एक शब्द में आरोग्य का पुनर्जीवन भी कर सकते है।


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