जहाज सान फ्राँसिस्को बन्दरगाह पर रुका। जहाज खड़ा होते ही सभी यात्री जल्दी-जल्दी अपना सामान सँभालने लगे। सबमें उतरने की जल्दी और उत्सुकता दिखाई देने लगी। जहाज में एक तरफ एक व्यक्ति शान्तिभाव से डैक पर खड़ा था। उसे कुछ देर तक एक अमेरिकन व्यक्ति देखता रहा और अन्त में बोला- “क्यों महाशय, आपको यहाँ नहीं उतरना है क्या? अपना सामान क्यों नहीं सँभालते?”
व्यक्ति स्वाभाविक मुस्कराहट की मुद्रा में प्रत्युत्तर देते हुए बोला- मेरे पास कोई सामान नहीं है। तो पास में पैसे तो होंगे ही, जिससे खाने-पीने का काम चलता है? यह तुरन्त दूसरा प्रश्न हो उठा। “मैं अपने पास पैसे भी नहीं रखता।” तब तो यहाँ कोई आपका मित्र होगा, जिसके यहाँ ठहरना होगा? यह उस व्यक्ति का तीसरा प्रश्न था।
स्वामीजी युवक को प्रत्युत्तर देते हुये बोले- “हाँ यहाँ हमारा एक मित्र है, जिसके यहाँ हमें रुकना है और जो हमारी सब सहायतायें करेगा। वह व्यक्ति कौन है? सच्चे वेदान्ती रामतीर्थ जी हँसे और उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए बोले- “आप ही मेरे मित्र है।”
प्रेम की पवित्रता से भीगता हुआ वह व्यक्ति सचमुच ही उनका परम मित्र बन गया।