यह आलोक विश्वमानव का अन्तःकरण छुएगा

January 1988

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जिस छपे कागज के पुलिन्दे को पाठक हाथ में लिए हुए हैं वह एक अन्य पत्रिकाओं की तरह प्रकाशित होने वाली देखने में एक सामान्य पुस्तिका है। कागज, छपाई आदि की दृष्टि से उसे अग्रणी या उत्कृष्ट नहीं कहा जा सकता। न उसमें चित्रों की भरमार रहती है और न मनोरंजक मसाला। फिर भी उसका अपना एक स्थान है। 52 वर्षों का अनवरत प्रकाशन और भविष्य में उसका प्रवाह इसी प्रकार जारी रहने की सम्भावना को देखते हुए आश्चर्य ही किया जा सकता है क्योंकि कुछ अपवादों को छोड़कर अन्य सभी पत्र पत्रिकायें विज्ञापन के सहारे जीती है। उससे आमतौर से इतनी आजीविका मिल जाती है। जिससे उनकी कागज, छपाई का खर्चा चलता रहे। प्रतिस्पर्धा में मूल्य सस्ता रखना पड़ता है। बिक्री से इतनी ही आय होती है कि उनके सम्पादन, प्रबन्ध, सज्जा, पोस्टेज आदि का खर्च किसी प्रकार निकल सके। जब व्यावसायिक दृष्टिकोण और रीति-नीति अपनाकर निकलने वाले पत्रों का यह हाल है तो उन व्रतशीलों के लिए तो कहा ही क्या जाए जिनका प्रकाशन काल के बाद अपवाद रूप में कुछ वर्षों के बाद से ही विज्ञापन न लाने का संकल्प रहा है। बड़ी संख्या में छपने वाली पत्रिकाओं को अपेक्षाकृत अधिक महंगे विज्ञापन मिलना स्वाभाविक है। पर वह प्रलोभन से पाठकों के ही गले बँधता है। वे विज्ञापित वस्तुओं में से कितनी ही अनावश्यक होते हुए भी खरीदते है। उसका अधिकाधिक लाभ विक्रेता की जेब में पहुँचता है। छापने वाले को तो उसमें दलाली का एक छोटा अंश ही मिलता है। व्यावसायिक विज्ञापनों के संबंध में प्रायः यही होता रहता है। ऐसी आजीविका कमाना अखण्ड-ज्योति को अपने आदर्शों के अनुकूल नहीं लगा। इसलिए उसने उस नीति का आरम्भ से ही परित्याग कर दिया। यह जानबूझ कर आर्थिक संकट मोल लेना था। ऐसा साहस गान्धी जी जैसे महापुरुष ही कर सके है। उनने भी अपने प्रकाशित अखबारों में से किसी में भी विज्ञापन स्वीकार नहीं किया यद्यपि उनके व्यक्तिगत प्रभाव और पत्रों की विश्वव्यापी बिक्री होने के कारण उन्हें अच्छे दाम के अच्छे विज्ञापन मिल सकते थे और घाटे के स्थान पर लाभ ही रहता और उनके बन्द हो जाने का वह दुर्दिन भी न देखना पड़ता जिसके कारण उनके स्वर्गवासी होने के कुछ ही दिन बाद उनके द्वारा प्रकाशित सभी पत्र सदा के लिए बन्द हो गए।

विज्ञापनों, चित्रों की भरमार से सजधज कर निकलने वाली पत्रिकाओं में ठोस सामग्री उनके कलेवर की तुलना में बहुत ही कम रहती है। इस प्रतियोगिता में अखण्ड ज्योति कहीं आगे है। उसमें रहने वाले कवर सहित .... पृष्ठों में ठोस और ठसाठस भरी हुई इतनी सामग्री रहती है जितनी उसकी तुलना में दूना कलेवर रखने वाली पत्रिकाओं में भी नहीं रहती।

इन परिस्थितियों में अखण्ड-ज्योति जीवित कैसे है? यह व्यावसायिक दृष्टि से एक आश्चर्यचकित कर देने वाला प्रश्न है। दान अनुदान के रूप में कोई राशि स्वीकार न करने पर भी वह कागज, छपाई, पोस्टेज का खर्च किसी प्रकार निकाल लेती है। इस रहस्य की बारीकी में जाने वालों को कुछ समाधान कारक रहस्य और तथ्य हस्तगत हो सकते है। इसमें से प्रथम यह है कि उसके सम्पादन पर एक पैसा खर्च नहीं होता। सभी मिशनरी भावना से बिना मूल्य लिखें हुए होते है। यह कार्य हरिद्वार में होता है। वहाँ इस निमित्त एक पैसा भी खर्च खाते नहीं पड़ता। लेखों की उत्कृष्टता सर्वविदित है। उनमें से प्रत्येक को गहन अन्वेषण और विशाल अध्ययन के आधार पर लिखा जाता है। इसके लिए दूर-दूर के पुस्तकालय छाने जाते है। दुर्लभ पुस्तकों के फोटो प्रिन्ट देश विदेशों से मँगाये जाते है और उनके अवगाहन के उपरान्त कागज से कलम का स्पर्श कराया जाता है। इसे एक प्रकार से समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के समतुल्य ही समझा जा सकता है। इसे अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का सार संक्षेप भी कहा जा सकता है। जैसा कि उपनिषद् समुच्चय का सार गीता के छोटे कलेवर में भर दिया गया है। ऐसे शोधपूर्ण लेखों की कष्ट साध्य परिपाटी का प्रचलन अब नाममात्र ही शेष रह गया है। आमतौर से तो उथले, लोक रंजन के लिए छपने वाले लेख ही प्रकाशित होते रहते है।

प्रश्न स्तर का नहीं, उसके आर्थिक मेरुदण्ड का है। वह सीधा किस प्रकार खड़ा है? अन्यथा उतनी उत्कृष्टता के अभाव और इतनी न्यून आजीविका में उसका मेरुदंड ही टूट जाना चाहिए था।

बात लगभग 45 वर्ष पुरानी है। हिन्दी के एक मूर्धन्य पत्रकार के पास अखण्ड ज्योति के सत्र संचालक आरम्भिक वर्षों की दो तीन प्रतियाँ लेकर गये। उचित उद्देश्य और स्तर की बातें की और पूछा कि इसे किस प्रकार आगे बढ़ाया जा सकता है? उतने .... थोड़ी देर में ही वस्तुस्थिति भाँप ली और .... ही कहा- यह न पूछे कि इसे किस प्रकार चलाया जा सकता है, वरन् यह कहें कि इसे किस प्रकार जीवित रखा जा सकता है। उनने उदाहरण में भी कितनों के नाम गिनाये, उनके प्रकाशकों ने अपने जोश को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया- और अपनी पैतृक सम्पत्ति को क्रमशः इसी में खपाते हुए पत्रिका चलाने का निश्चय किया और अपने जीवन काल में उस प्रण को पूरा करते रहे। इन मूर्धन्य पत्रकार का कहना था कि ऐसा ही कुछ आप भी सोचें, अन्यथा इतने गम्भीर विषय के पाठक तो मिलेंगे नहीं। समय का रुझान हल्के मनोरंजन का है, आपका तत्व दर्शन ऊँचा और रूखा होने के कारण लोकप्रिय न बन सकेगा और विज्ञापन के अभाव में पाठकों के अभाव में उसे अपना दम तोड़ना पड़ेगा। कोई अतिरिक्त स्त्रोत आजीविका का बना पाये तो बात अलग है। जब उन्हें ऐसी कोई सम्भावना सामने न होने की बात कही तो उसका एक ही उत्तर था “अर्थशास्त्र के विपरीत दिशा में चलने के कारण आपको अपनी भूल माननी पड़ेगी और बड़ा सा घाटा देकर इसे बन्द करना पड़ेगा।”

अखण्ड-ज्योति प्रकाशन के पीछे पत्रिका निकालने भर के शौक काम नहीं कर रहा था वरन् उसके साथ लोक-मानस के परिष्कार का अत्यन्त विशाल और कष्ट साध्य लक्ष्य था। उसे पूरा करने के लिए ऋषियों की तरह द्वार-द्वार जाने और जन संपर्क साधने का एक उपाय तो सामने था। पर वह भी समय से पीछे रह गया। उस आधार पर कुछ सौ या कुछ हजारों तक ही अपनी विचारणा पहुँचाने में सफलता मिल सकती है, पर उसे धरती पर रहने वाले विभिन्न भाषा-भाषी विभिन्न धर्मावलम्बी 500 करोड़ मनुष्यों के मानस और जीवन में कायाकल्प जैसी क्रान्ति लाने की उमंग और योजना हो, वहाँ घर घर अलख जगाने और अपनी बात गले उतारने तक रगड़ करते रहने की बात इतनी बेतुकी है कि उसमें एक व्यक्ति को हजार लाख जन्म खपा देने के बाद ही कदाचित कुछ कहने लायक सफलता हस्तगत हो सके, तब विकल्प क्या हो? इसका उत्तर साहित्य सृजन के रूप में सामने आया। प्रेस के आविष्कार ने ज्ञान प्रसार की प्रक्रिया को भी अपेक्षाकृत सरल बना दिया है। आज की स्थिति में बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक क्रान्ति का-व्यक्तित्व के परिष्कार उत्कर्ष का मार्ग अपनाने वाले को अपनी योजना के अनुरूप साहित्य सृजन का काम करना चाहिए। साम्यवाद प्रजातंत्रवाद से लेकर अधिनायकवाद तक के प्रवक्ताओं ने अपनी बात जन-जन तक लेखनी के माध्यम से ही पहुँचाई है।

साहित्य का सामान्यतः अर्थ पुस्तक लेखन से लिया जाता है पर उसका सरल तरीका यह नहीं है कि लिखी छपी पुस्तक बुकसेलरों की दुकानों पर ग्राहकों की प्रतीक्षा में मुद्दतों सड़ती रहें और अन्त में .... चूहों की खुराक बन कर रद्दी खरीदने वालों के यहाँ पहुँचे। इसका सरल तरीका सामयिक पत्रों के रूप में ही बनता है। दैनिक, साप्ताहिक पत्र बड़ी पूँजी, बड़ी व्यवस्था, बड़ी सामग्री चाहते है। उनके लिए कम पूँजी से कम सहयोग होने से काम नहीं चल सकता। मात्र मासिक पत्रिकाएँ ही ऐसी विद्या है जो धीमीचाल से चलते हुए अपनी गाड़ी किसी प्रकार घसीटती रह सकती है। अखण्ड-ज्योति ने अपने लिए यही मार्ग अपनाया।

स्थिर ग्राहक होने पर उन तक हर महीने पहुँचना और एक समझदार श्रद्धास्पद की तरह उस व्यक्ति को, उसके संपर्क क्षेत्र को अपनी चेतना से सचेतन बनाने का प्रयोजन पूरा होता है। वही हो भी रहा है। अखण्ड-ज्योति बड़ी संख्या में छपनी है, वह हर महीने लाखों, करोड़ों का अन्तराल नियमित रूप से झकझोरती है। इसका प्रभाव परिणाम भी हाथों सामने आता रहा है। लोकसेवियों का, युग शिल्पियों का, प्रज्ञापुत्रों का एक बड़ा समुदाय उभर कर दूध की मलाई की तरह ऊपर आया है। गायत्री तपोभूमि, युगनिर्माण योजना, शान्ति कुंज ब्रह्मवर्चस 2400 शक्ति पीठों के सम्भालने वाले प्रचण्ड प्रतिभावान ऊँची योग्यता के कार्यकर्ताओं ने मिशन को अपने कंधों पर उठाया हुआ है। वे ही उसको अश्वमेध के घोड़े की तरह दसों दिशाओं में घुमाते फिरते है। उनका संख्या विस्तार और साहस पौरुष जिस क्रम से उभरा है, उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि अब तक 52 वर्ष पूर्व देखा गया सपना अधूरा नहीं रहेगा। वह निर्धारित समय से पूर्व ही पूरा होकर रहेगा। उलटे को उलटकर सीधा करने की बात कभी उपहासास्पद लगती थी। नवयुग का नवीन चेतना का अवतरण कभी असंगत लगता था। पर इन पाँच दशकों की कार्यविधि देखकर सफलता ने यह विश्वास दिलाया है कि असम्भव दिखने वाली बातों को भी प्रचण्ड संकल्प, प्रचण्ड प्रयास और प्रामाणिक व्यक्तित्व द्वारा निश्चित रूप से पूरा किया जा सकता है।

अखण्ड-ज्योति का कलेवर, स्तर और उसका प्रसार तेजी से हो रहा है। इसका कारण एक ही है- उसके पाठकों ने यह विश्वास किया है कि इस सुधा धारा को अपने तक सीमित नहीं रहने देना चाहिए, वरन् अपने साथी, सहचरों को यह लाभ उठाने के लिए अपने प्रभाव और आग्रह का दबाव डालकर इसे मँगाते रहने के लिए विवश करना चाहिए। यही वह तथ्य और सत्साहस है जिसके कारण अखण्ड-ज्योति अपने पैरों खड़े रह सकने की स्थिति तक पहुँच गई है और यह योजना बन रही है कि भारत की सभी भाषाओं में उसी विचारणा और साज-सज्जा के साथ प्रकाशित किया जाय। इसमें से गुजराती, मराठी, उड़िया, बंगला, तमिल एवं अंग्रेजी में प्रकाशन का कार्य हाथों में है जो अगले ही दिनों नई सज धज के साथ अपने-अपने क्षेत्रों की जनता की भावनात्मक प्यास बुझाने में उत्साह वर्द्धक मात्रा में सफल हो सकेगा।

मशीनों, इमारत आदि बढ़ाने के इस प्रयोजन के लिए आवश्यकता पड़ और बढ़ रही है। इस सम्बन्ध में बैंकों के साथ ताल-मेल बिठाया गया है। उनके सहारे जब बड़े-बड़े कारखाने चल रहे है तो इस बढ़ते हुए बहुमूल्य प्रकाशन के लिए उस माध्यम से पूँजी क्यों न जुटाई जा सकेगी? लेख तो जो हिन्दी में छपते है, उन्हीं का यथावत अनुवाद अन्य भाषाओं में होता रहेगा। कुछ ही समय में आशा यह है कि देश की सभी भाषाओं में होता रहेगा। कुछ ही समय में आशा यह है कि देश की सभी भाषाओं में अखण्ड-ज्योति छपने लगेगी और इस सीमा को पारकर वह विश्व भाषाओं की परिधि में भी प्रवेश करेगी।

पाठकों की सुरुचि ने “अखण्ड-ज्योति” को जागृत रखा है। उसके अभिवर्धन में उनका यह प्रयास ही प्रमुख रूप से सराहा गया है कि हर पाठक हर वर्ष न्यूनतम एक-एक दो-दो ग्राहक नए बनायें। इस आधार के स्थिर रहने पर ही अखण्ड-ज्योति अपने निर्धारित महान लक्ष्य तक पहुँच सकेगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118