महाराज युधिष्ठिर ध्यान में मग्न हुए वन में बैठे थे। ध्यान से उठे, तो द्रौपदी ने कहा- “धर्मराज! इतना भजन आप भगवान का करते है, इतनी देर तक ध्यान में बैठे रहते हैं, फिर उनसे यह क्यों नहीं कहते कि इन संकटों को दूर कर दे? इतने वर्ष से आप और दूसरे पाँडव वन में भटक रहे है। इतना कष्ट होता है? इतना क्लेश! कहीं पत्थरों पर रात्रि व्यतीत करनी पड़ती है, कहीं काँटों में! कभी प्यास बुझाने को पानी नहीं मिलता, कभी भूख मिटाने को खाना नहीं। फिर आप भगवान से क्यों नहीं कहते कि इन कष्टों का अंत कर दें?
युधिष्ठिर जी बोले- “सुनो द्रौपदी! मैं भगवान का भजन सौदे के लिए नहीं करता। मैं भजन करता हूँ केवल इसलिए कि भजन करने में आनन्द मिलता हैं। फैली हुई उस पर्वतमाला को देखो, उसे देखते ही मन प्रफुल्लित हो जाता है। हम कुछ माँगते नहीं। हम देखते हैं, इसलिए कि देखने से प्रसन्नता होती है। इसी प्रसन्नता के लिए मैं भगवान का भजन करता हूँ।