सर्वांगपूर्ण स्वास्थ्य की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम

January 1988

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यदि किसी भवन की नींव कमजोर हो, तो वह अधिक समय तक अपना अस्तित्व नहीं रख पाता। शहतीर में घुन लगा हो तो वह शीघ्र ही खोखला हो टूटकर आ गिरता है। लगभग यही तथ्य आज मनुष्य समाज पर भी लागू होता है, जब हम सर्वांगपूर्ण स्वस्थ समुदाय की परिकल्पना करते है। जीवनी-शक्ति के क्षीण होते चले जाने एवं चिन्तन की विकृति के कारण मनुष्य निरन्तर खोखला होता चला जा रहा है। मौसम में तनिक-सा बदलाव भी उसे अस्वस्थ कर चिकित्सक की शरण में जाने को विवश कर देता है। चाहे कितनी ही बहुमूल्य औषधियाँ प्रयुक्त की जाय, खोये स्वास्थ्य को लौटाने की कोई सूरत नजर आती नहीं। रोग हेतु जीवाणु, विषाणु को दोष देना व्यर्थ है। जब अपना भीतर का ढाँचा ही जीर्ण-शीर्ण है तो कितने ही एंटीबायोटिक्स प्रयोग कर लिये जायँ, टॉनिक ले लिये जायँ, कुछ परिवर्तन नहीं आने वाला। उल्टे संश्लेषित रसायनों के घातक परिणाम और दृष्टिगोचर होते है।

ऐसा क्यों हुआ व स्वास्थ्य को लौटाने के निमित्त क्या कुछ किया जाय? इस पर विचार करते है तो लगता है प्रगति की इस घुड़दौड़ में आपाधापी में हमसे कहीं कुछ भूल हुई है। वह है- चिरपुरातन आयुर्विज्ञान पद्धति की वनौषधि चिकित्सा पद्धति की अवहेलना-अवमानना। ब्रह्मवर्चस ने गतवर्षों में यही प्रयास-पुरुषार्थ किया है कि सर्वोपलब्ध अपने प्राकृतिक रूप में विद्यमान वनस्पतियों के द्वारा साध्य एवं असाध्य सभी रोगों के उपचार पक्ष पर आज की परिस्थितियों को सामने रखते हुए शोध-अनुसंधान किया जाय। आधुनिक यंत्र उपकरणों द्वारा औषधीय पौधों का रासायनिक विश्लेषण कर उनकी विशिष्टताओं को जानने एवं रोगों का निदान कर विभिन्न व्याधियों के लिये भिन्न-भिन्न वनौषधियों के एकौषधि एवं सम्मिश्रण प्रयोग यहाँ किये गये है कि रुग्ण मानव जाति के लिये एक सुरक्षित चिकित्सा पद्धति को अभी भी पुनर्जीवित किया जा सकता है।

वृक्ष-वनस्पतियों को आर्ष ग्रन्थों में मध्ययोनि प्राप्त देव पुरुष कहा गया है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में ऋषि कहते है कि “जो परमात्मा जल में है, अग्नि में हैं, समस्त लोकों में समाविष्ट है, जो औषधियों में है, सभी वृक्ष-वनस्पतियों में है, उस परमात्मा को हमारा नमस्कार है।”

वस्तुतः वनस्पतियाँ अपने आप में पूर्ण है। उनमें विद्यमान यौगिक, क्षार, रसायन, खनिज उन्हें इस तरह परिपूर्ण बनाते है कि उन्हें किसी रोग विशेष में दिए जाने पर अपने गुण-कर्मों के आधार पर वे लाभ ही दिखाती है, किसी प्रकार का दुष्परिणाम देखने को नहीं आता। वैज्ञानिकों ने पाया है कि औषधीय पौधों के अंग-अंग में जो कार्यकारी घटक विद्यमान होता है, वह अपने साथ दुष्प्रभावों को निरस्त करने वाले यौगिक भी साथ लिये होता है। इस तरह “प्रोटागोनिस्ट” एवं “एण्टागोनिस्ट” दोनों एक ही औषधि में विद्यमान होते है। किसी तरह के साइट इफेक्ट्स के होने की आशंका हो तो यह सम्मिश्रण उसे निरस्त कर देता है। पत्तियों, त्वक, फलों, पुष्पों, बीज, जड़ों व कन्द आदि के रूप में जहाँ-जहाँ जो घटक अधिक मात्रा में सक्रिय रूप में हों, उनका उपयोग आयुर्वेद में वर्णित चिकित्सा-पद्धति के अनुसार किया जाता है।

शांतिकुंज के सूत्र संचालकों ने पूरे आयुर्वेद में से मात्र वनस्पतियों काष्ठौषधियों को ही क्यों चुना? क्या रस-भस्म प्रकरण व अन्यान्य योगों के प्रयोग निरर्थक है? इस प्रश्न का उत्तर कुछ शब्दों में इस प्रकार के अस्तित्व में आने के अनुमानित सहस्त्रों वर्षों में जो भी उपचार सूत्र ऋषि-मनीषियों द्वारा दिये गए है, उनमें से नब्बे प्रतिशत में विशुद्धतः वनौषधियों का प्रयोग हुआ है। यही आयुर्वेद का प्राण है। कोई भी पौधा धरती पर ऐसा नहीं है, जिसमें औषधीय गुण न हों। चिर पुरातन काल में आधि-व्याधियों का सामूहिक उपचार वनौषधि-यजन द्वारा उन्हें सूक्ष्मीकृत कर वाष्पीकृत स्थिति में औषधीय घटकों द्वारा किया जाता था। यह वैदिक एवं वैदिकोत्तर काल की प्रमुख चिकित्सा पद्धति थी। कालान्तर में इन्हें सूक्ष्मीकृत रूप में चूर्ण रूप में मुख से भी दिया जाने लगा। ताजा स्थिति में कल्क स्वरस के रूप में प्रयोग होता था। यह तो गत दो सहस्त्राब्दियों में परिवर्तन आया है कि आयुर्वेद में मोदक पाक अवलेह आसव अरिष्ट के रूप में विभिन्न योग प्रयुक्त होने लगे। बाद में रस शास्त्र भी साथ में जुड़ा व इस प्रकार एक सर्वांगपूर्ण चिकित्सा-पद्धति की नींव डाली।

वनौषधियों की सही पहचान न होना परिपक्व स्थिति में कहाँ उपलब्ध होगी? यह जानकारी न होने से पंसारी के यहाँ से वर्षों पुरानी घुन लगी औषधियाँ प्रयुक्त होने से उनका प्रभावहीन बन जाना साध्य व असाध्य रोगों में तुरन्त लाभ इनसे नहीं होता इस भ्रान्ति का जनमानस में संव्याप्त होना- ये कुछ ऐसे कारण है जिनकी वजह से लोग सामान्यतया तत्काल परिणाम दिखाने वाली एलोपैथी की शरण में जाते है। घातक दुष्परिणाम सहन करते हुए भी वे एलोपैथी की गोलियाँ, कैप्सूल व इंजेक्शन्स पर निर्भर होते चले जा रहे है। यह चिकित्सा पद्धति महँगी भी है। हमारे देश की विपन्न परिस्थितियों को देखते हुए वनौषधियों का प्रचुर भण्डार विद्यमान होते हुए भी महँगी दवाओं की शरण में जाना न तो तर्क सम्मत कहा जा सकता है न ही व्यावहारिक। किन्तु ऐसा हो रहा है व इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता। आवश्यकता थी कि जन साधारण को इन दिव्य वनौषधियों के लाभों से परिचित कराया जाय, सही औषधि कौन सी है व कब-किस स्थिति में कब तक लाभ दिखाती है यह विज्ञान की भाषा में समझाया जाय।

शान्ति-कुंज-ब्रह्मवर्चस की प्रयोगशाला में विभिन्न उपकरण वनौषधियों की जाँच पड़ताल, शुद्धा–शुद्ध परीक्षा एवं रासायनिक विश्लेषण हेतु लगाये गए है। वनस्पति विज्ञान में एक ही जाति-प्रजाति की परस्पर मिलती जुलती कई औषधियाँ होती है। इनमें से कौन सी प्रभावकारी है एवं जिस नाम से प्रचलित है उसमें सही की पहचान क्या है इसके लिये विशद अध्ययन की आवश्यकता है साथ ही अनुभव की भी। इसके लिये संसार भर में वनौषधियों पर की जा रही शोध से सतत संपर्क बनाये रख विभिन्न ग्रन्थों विश्वकोषों एवं पत्रिकाओं को मँगाते रहने का यहाँ प्रबन्ध है। “स्टीरियोमाइक्रोस्कोप” “डिसेक्िटग माइक्रोस्कोप”, “माइक्रोटोम” इत्यादि उपकरणों द्वारा वनौषधि-पंचांगों का विस्तार से अध्ययन किया जाता है। प्रयोग परीक्षण हेतु इन्हें यहीं उगाया जाता है तथा चिकित्सा प्रयोग हेतु वितरण के लिये हिमालय एवं शिवालिक पर्वत की तलहटी एवं ऊँचाई पर उगने वाली औषधियों को एकत्रकर शुद्ध गंगाजल से धोकर छाया में सुखाया जाता है। किस मौसम में किस औषधि को एकत्र किया जाना चाहिए। इसका पूरा ध्यान रखते हुए औषधियों को वाँछित समय में एकत्रकर छाया में सुखाकर सूक्ष्मीकृत चूर्ण के रूप में आर्द्रतारहित स्थान पर रख कर सुरक्षित कर लिया जाता है। इस समय से लेकर इनके गुण, कर्म प्रभाव की क्षमता मात्र 6 माह से 12 माह तक की होती है। यह पहला ऐसा स्थान है जहाँ आयुर्वेद की औषधियों पर पैकिंग का दिनाँक एवं उनके गुणहीन हो जाने की तिथि उनके लेबिल पर अंकित कर दी जाती है। इस मामले में एलोपैथी वाले ही ईमानदार हैं जो कि हर औषधि की “एक्सपायरी डेट” लिख देते है। इस प्रामाणिकता को यदि आयुर्वेद में प्रयुक्त किया जा सका होता तो इस पर जो आक्षेप उठाया जाता है वह न उठता। इस दिशा में यह महत्वपूर्ण कदम शोध संस्थान द्वारा उठाया गया है।

“गैस-लिक्विड क्रोमेटोग्राफी” उपकरण द्वारा वनौषधियों को सूक्ष्मीकृत स्थिति में वाष्पीकृत तथा चूर्ण के जल-सत्व भाग का विश्लेषण कर यह जाना जाता है कि इनमें कौन-कौन से कार्यकारी घटक है। जो गुण शास्त्रों में विभिन्न संहिताओं में वर्णित हैं क्या उनकी .... घटकों के प्रभाव से मेल खाती है? यह इस प्रयोगशाला में देखा जाता है। कम्प्यूटर युक्त इस यंत्र में एक चार्ट पर विभिन्न एल्केलॉइड्स क्षार खनिजतत्व तैलीय तत्वों की उपस्थिति का अनुपात अंकित होता चला जाता है। इस परीक्षण से सही औषधि के चुनाव में बड़ी मदद मिलती है। “थिन लेयर क्रोमेटोग्राफी” एवं “कालम क्रोमेटोग्राफी” द्वारा भी औषध पौधे के विभिन्न अंशों में कार्यकारी घटक की स्थिति देखी जाती है।

अभी तक शान्ति-कुंज की प्रयोगशाला ने लगभग 100 औषधियों को उनके प्रयुक्त होने वाले अंश के रूप में उपलब्ध कराया है। यह या तो चूर्ण रूप में है या तैल-तत्व के रूप में। अब इन्हें आयुर्वेद के आसव-अरिष्ट-अवलेह के रूप में भी उपलब्ध कराने की योजना है। इससे एक महत्वपूर्ण लाभ यह है कि औषधि की कार्यक्षमता 1 वर्ष से बढ़कर 3 से 5 वर्ष तक की हो जाती है। जन-साधारण को मुखमार्ग से लेने में भी सुविधा होगी।

“रिजनल रिसर्च लेबोरेट्री” (जम्मू एवं भुवनेश्वर), “फाँरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट” देहरादून एवं “सेण्ट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट” तथा “सेण्ट्रल इंस्टीट्यूट फॉर मेडिसिन एण्ड एरोमेटिक प्लाण्ट्स (सिमप)” लखनऊ ने पौधों के विश्लेषण में महत्वपूर्ण कार्य किया है। किन्तु रासायनिक विश्लेषण के बाद उन्हें किस रूप में जन-साधारण के प्रयोग हेतु बनाया जाय। इस सम्बन्ध में सभी दिग्भ्रांत है। 2800 से लेकर 3000 पौधों की परिपूर्ण जाँच के बाद भी ये सभी विशुद्ध आयुर्वेदिक रूप में कोई औषधि जन-साधारण को उपलब्ध नहीं करा पाये है, जो कि इन्हें स्थापित किये जाने के पीछे प्रमुख प्रयोजन था। यदि रसायनों को अलग कर उन्हें संश्लेषित कर एलोपैथी फार्म में बनाया जाने लगे तो उसके वही दुष्परिणाम होंगे जो कि आज लगभग सभी आधुनिक औषधियों के साथ देखे जाते हैं। वही हो भी रहा है।

रस-भस्मों का शोधन-एवं निर्माण एक विशिष्ट समय साध्य क्रिया-पद्धति द्वारा सम्भव हो पाता है। उतना समय आज किसी के पास नहीं है। सभी प्रगति की घुड़ दौड़ में द्रुतगति से भाग रहे है। ऐसे में शुद्ध हानि रहित रूप में रस-भस्म उपलब्ध कराना तो दूर की बात है। जो बाजार में विभिन्न योग उपलब्ध है, उन्हें लिये जाने पर गुर्दे त्वचा एवं लीवर को जो हानि पहुँचती है, उसके सैंकड़ों केस प्रतिवर्ष एलोपैथी के चिकित्सकों के पास पहुँचते देखे जाते है। इस विडम्बना से बचने के लिए ही नितान्त सुरक्षित वनौषधि विधा को ही “अखण्ड-ज्योति” द्वारा हाथों में लिया गया है क्योंकि वे सर्व सुलभ हैं जाती स्थिति में कल्क के रूप में सूखी स्थिति में चूर्ण के रूप में कभी-भी ली जा सकती हैं।

अभी तक मधुमेह मिर्गी चिंता अवसाद उच्चरक्तचाप हृदयरोग, रक्तावरोध त्वचा के विकारों पेट की व्याधियों तपेदिक एवं दमा जैसी विभिन्न आधि-व्याधियों के लिए विभिन्न औषधियों पर अनुसंधान यहाँ सम्पन्न किया गया है। वनौषधियों का भांडागार विशाल है। अभी तो और भी औषधियों व रोगों पर प्रयोग किये जाने है। शान्ति-कुंज एक सेनेटोरियम नहीं है। यहाँ तो मात्र प्रयोग परीक्षण कर शास्त्रोक्त औषधियों को शुद्ध रूप में जन साधारण को उपलब्ध करा दिया जाता है। अभी तक लक्षाधिक व्यक्ति लाभान्वित हुए है। मूल उद्देश्य है आयुर्वेद का पुनर्जीवन एवं जन-जन की जीवनी शक्ति का अभिवर्धन। इसे कितनी सफलता मिली है। इसे स्वयं अपनी आँखें से देख कर स्वयं तथा औरों को लाभान्वित किया जा सकता है।


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