आन्दोलन का महत्व एवं अभियान की सार्थकता

January 1988

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लेखनी और वाणी का अपना महत्व है। उनसे स्वाध्याय और सत्संग की आशिक आवश्यकता पूरी होती है फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि इन दो के सहारे ही नव-निर्माण की समस्त आवश्यकताएँ पूरी हो जायेगी। यदि ऐसा होता तो रेडियो, दूरदर्शन जैसे याँत्रिक माध्यम ही लोक-शिक्षण की आवश्यकता पूरी कर लेते। लेखक ओर प्रकाशकों में से भी कितने ही ऐसे है जिनके द्वारा सदाशयतापूर्ण साहित्य ही सृजन किया जाता है। इतने पर भी वे अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति इसलिए नहीं कर पाते कि उनके साथ व्यक्तिगत ऐसा संपर्क नहीं जुड़ पाता जो क्रमिक एवं प्रखर हो। दीप से दीप जलते है। व्यक्ति के प्रभाव से आदर्शवादी प्रतिभाएँ उभरती है। उन्हीं के द्वारा बड़े रचनात्मक एवं आन्दोलनपरक क्रिया-कलाप चल पड़ते है। उस प्रगतिशीलता से ही वे प्रयोजन पूरे होते है जिनका उद्देश्य अवांछनियताओं का उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों को जन-जीवन में उतारना है। इस प्रकार का लोक शिक्षण हमेशा चलते रहने की आवश्यकता है।

प्राचीनकाल में साधु और ब्राह्मणों वर्ग के लोग व्यक्तिगत चरित्रनिष्ठा का सम्पादन, व्यक्तिगत का प्रामाणिक विस्तार घूमने के साथ-साथ समूचा समय जन-संपर्क और लोक कल्याण के प्रत्यक्ष क्रिया-कलापों का ढाँचा खड़ा करने में सतयुगी वातावरण बनने में कठिनाई उत्पन्न नहीं होती थी व्यक्तित्वों के प्रखर और गतिविधियों के उत्कृष्ट रहने पर प्रकृति भी साथ देती है प्रेरणाप्रद वातावरण भी बनता है और उज्ज्वल भविष्य विनिर्मित करने वाला प्रगति-क्रम भी सहज चल पड़ता हैं।

अखण्ड-ज्योति के सूत्र संचालक ने इस वस्तुस्थिति पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया और ऐसी सुव्यवस्थित .... बनायी जिससे युग परिवर्तन के स्वप्न साकार होने का व्यावहारिक ढाँचा खड़ा हो सके। इनमें प्रथम निर्धारण था धर्मतंत्र से लोक-शिक्षण, जिसके आधार पर ऐसी अनेक गतिविधियाँ विनिर्मित और अग्रसर की गई जो व्यावहारिक भी हो बोधगम्य भी ओर गति पकड़ने की दृष्टि से लोक-प्रिय एवं सर्वसुलभ भी।

सर्वविदित है कि भौतिक क्षेत्र पर शासन का प्रमुख अधिपत्य है। सुविधा-संवर्धन के लिए सुरक्षा शिक्षा स्वास्थ्य व्यवस्था, विकास आदि कार्यों के लिए राजतंत्र से ही आशा की जाती है। कार्यकर्ताओं और साधनों की विपुलता के कारण वह उस प्रकार के दायित्व वहन भी कर पाता है। इस क्षेत्र में प्रवेश पाने के लिए उसके लाभों को देखते हुए कितने ही लोग उत्सुक भी रहते हैं।

चेतना पर शासन करने वाली दूसरी शक्ति है-धर्मतंत्र। कभी उसमें साधु- ब्राह्मणों वर्ग के लोग ही आते थे, पर अब उसमें अनेक धाराऐं सम्मिलित हो गई हैं। प्रजातंत्र अपने स्थान पर सही है, पर इसके अतिरिक्त रचनात्मक प्रवृत्तियों का उभार करने वाले आन्दोलनों को भी उसमें सम्मिलित किया जा सकता है। आर्थिक सुविधा प्राप्त करने के लिए श्रमिक आन्दोलन चलते रहते है। पर भावना, विचारणा, आस्था आदत और मान्यताओं को ऊंचा उठाने वाले रचनात्मक आन्दोलन कदाचित ही कहीं चलते हैं। गान्धी का खादी आन्दोलन कदाचित ही कहीं चलते है। गान्धी का खादी आन्दोलन, विनोबा का भूदान आन्दोलन दीखते तो आर्थिक जैसे थे, पर वस्तुतः उनके पीछे सदृश्यता, उदारता, सादगी जैसी आस्थाओं को उभारने का प्रबल आग्रह छिपा हुआ था। सत्याग्रह आन्दोलन यों दीखता तो राजनैतिक था, पर उसके साथ मात्र संघर्ष ही नहीं, सृजन के भी अनेक पक्ष जुड़े हुये थे। विश्नोई सम्प्रदाय के संचालकों ने भी वृक्ष-रक्षा अहिंसा जैसे अनेक सृजनात्मक कार्य अपनी रीति-नीति में सम्मिलित किये गये थे।

धर्मतंत्र की मूर्च्छित और दिग्भ्रांत स्थिति को उबारने के लिए उस अजस्र क्षमता स्त्रोत को उत्कर्ष प्रयोजनों में लगाने के लिए अखंड-ज्योति ने युग निर्माण योजना आन्दोलन को जन्म दिया। उसे प्रकारान्तर से धर्मतंत्र माध्यम से किया जाने वाला लोक-शिक्षण एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन ही कहा जा सकता है।

इसका आरम्भ सन 1952 में गायत्री तपोभूमि को आन्दोलन की धुरी मान कर किया गया। भवन निर्माण के उपरान्त देश भर के प्रगतिशील धर्म प्रेमियों को एक स्थान पर सम्मेलन समारोह के रूप में एकत्रित करके उन्हें धर्मतंत्र माध्यम से लोकनिर्माण प्रयोजनों में लगाना था साथ ही बिखराव को एक केन्द्र पर केन्द्रीकृत करना भी।

सन् 1958 में मथुरा में सम्पन्न हुये इस आयोजन को सहस कुण्डी गायत्री महायज्ञ का नाम दिया गया। उसमें देश के कोने-कोने से प्रायः चार लाख विचारशील व्यक्ति सम्मिलित हुये। सबके आवास भोजन आदि की समुचित व्यवस्था की गई। दर्शक तो 10 लाख तक एकत्रित हो गये थे। सम्मेलन अपने ढंग का अभूतपूर्व था। उसकी विशालता व्यवस्था और भव्यता देखते ही बनती थी, पर उसकी रहस्यमय विशेषता यह थी कि सभी प्रतिभाशाली लोगों को अपने-अपने क्षेत्रों में प्रगतिशील धर्मप्रेमियों को संगठित करने का काम सौंपा गया। हिन्दू धर्म अनेक संप्रदायों-उपसम्प्रदायों में विभाजित है। उन्हें एकत्रित करने के लिए समन्वय नीति को अपनाने का भी निश्चय किया गया। साथ ही हाथों हाथ सद्भाव उभारने वाले आयोजनों की विधि-व्यवस्था करना भी। वह प्रयास सर्वथा सफल रहा और उसी के कारण धर्मतंत्र माध्यम से जन-जीवन ने आदर्शवादिता भरने वाला बहुमुखी प्रयास भी द्रुतगति से चल पड़ा। उसकी को युग-निर्माण योजना के आरम्भ या विस्तार-शुभारंभ भी कहा जा सकता है।

उपर्युक्त निर्धारण से लेकर व्यवस्था तथा कार्यान्वयन तक मूलभूत उद्गम एवं शक्ति स्त्रोत अखंड-ज्योति ही रही। योजना का स्वरूप सुनने वाले तब इसे दिवास्वप्न ही समझते थे और उपहास ही करते थे, पर जब संकल्प शक्ति अपने विकराल रूप में प्रकट हुई और उद्देश्य पूर्ति के लिए सहस्र भुजाओं से दसों दिशाओं में लपकी तो जाना गया कि पत्रिका छपे कागजों का पैकेट भर नहीं है इसमें प्रचण्ड प्राण ऊर्जा काम करती है और वह संयोजन के .... है।

.... जन-समारोह करने सबके द्वारा सृजन और सुधार की दोनों प्रवृत्तियों को गतिशील बनाने के रूप में किया गया। देश भर में छोटे-बड़े सहस्रों गायत्री यज्ञ किये गये। उनमें मितव्ययता का तो पूरा ध्यान रख ही गया साथ ही सुधार प्रयोजनों को अविच्छिन्न रूप से जोड़े रखना भी अभीष्ट था। अग्निहोत्र पर बैठने वाले प्रत्येक याजक को एक बुराई छोड़ने और एक श्रेष्ठ अपनाने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी, साथ ही उसे आजीवन निबाहते रहने की अग्नि साक्षी में शपथ भी उठानी पड़ती थी। परित्याग की शपथों में नशा निषेध छूत-अछूत की, ऊंच-नीचपरक भेदभाव, पर्दा प्रथा, दहेज महँगी फैशन परस्ती आदि को प्रमुख रखा गया था। सत्प्रवृत्तियों में प्रौढ़ शिक्षा बाल–संस्कारशाला का स्थान-स्थान पर प्रबन्ध करना व्यायामशाला चलाना वृक्षारोपण परिवार-नियोजन जैसी प्रवृत्तियों को प्रमुखता दी गई। इस प्रकार गायत्री यज्ञ आन्दोलन की लहर में लाखों व्यक्तियों ने सृजन-संवर्धन और अनौचित्य उन्मूलन के व्रत लिये। इसे विचार-क्रान्ति अभियान का दूसरा चरण कहा जा सकता है।

तीसरे चरण में ऐसे शक्ति केन्द्रों की स्थापना को लक्ष्य बनाया गया, जिनमें कुछ लोक सेवकों स्थायी रूप से निवास करें, निर्वाह प्राप्त करे और समीपवर्ती दस गाँवों को कार्य क्षेत्र बनाकर उनमें सृजनात्मक प्रवृत्तियां का संस्थापन एवं अभिवर्धन करते रहें। इन छोटे-बड़े केन्द्रों की संख्या देश भर में दो हजार से ऊपर निकल गई। इनमें रहने के लिए वानप्रस्थ स्तर के कार्यकर्ताओं को नये सिरे से उत्पन्न करना पड़ा, उन्हें युगशिल्पी के रूप में प्रशिक्षण देना पड़ा। शान्ति-कंज में ऐसे लोग प्रशिक्षण प्राप्त करने निरन्तर आते रहें और उपयुक्त चरित्र एवं कौशल निखरने पर वे अपने समीपवर्ती शक्ति केन्द्रों में काम करने जाते रहें। इनके प्रयासों से नवसृजन का अभियान इतना व्यापक एवं सफल हुआ, जिसे अपने ढंग का अनोखा ही कहा जा सकता है।

समस्या इन लोकसेवियों के ब्राह्मणोचित निर्वाह की थी, उसे मुट्ठी फण्ड से पूरा किया गया। प्रत्येक घरों में एक मुट्ठी अनाज या दस पैसा नित्य जमा करने वाले घटों का स्थापना कराई गई। कार्यकर्ताओं का उपयोगी प्रयत्न देखते हुए जिनने अपने यहाँ अन्न घट रखें, उन सभी ने उदारतापूर्वक अंशदान दिया। व्यक्ति-निर्माण की यह योजना लम्बे समय से चल रहीं है और भविष्य में भी यथावत् चलती रहेगी। दो हजार शक्तिकेन्द्रों के प्रायः दस हजार कार्यकर्ताओं का युग अवतरण के प्रयत्नों में निरन्तर संलग्न रहना एक ऐसा आयोजन है, जिसकी योजना बनाने से लेकर कार्यान्वयन की लम्बी मंजिल पूरी करने का श्रेय अखण्ड-ज्योति के हिमगिरि को दिया जा सकता है जिससे अनेकों पुण्य धाराएँ निकली और सुविस्तृत भूभाग को सींचती रहीं।

लोकसेवी शिक्षण के साथ-साथ यह भी आवश्यक समझा गया कि इस बुद्धिवादी युग में अध्यात्म विचारणा को तर्क, तथ्य, प्रमाण एवं प्रत्यक्षवाद के आधार पर प्रस्तुत किया जाना चाहिए। इसके लिए एक समर्थ प्रयोगशाला एवं शोध संस्थान बनना चाहिए। हरिद्वार शान्तिकुँज और ब्रह्मवर्चस उसी की देन है। इनकी विशाल इमारतें कार्य की आवश्यकता के अनुरूप बनानी पड़ी। आवश्यक साधन उपकरण जुटाने पड़े। इससे भी बड़ी बात थी लगनशील और उच्च शिक्षित कार्यवाहकों का बड़ी संख्या में उपलब्ध करना। यह कार्य भी अखण्ड-ज्योति ने ही सम्पन्न किया। उसके पाठकों में ही ऐसे प्रतिभावान भावनाशील निकल पड़े। जिनने हरिद्वार संस्थानों में आजीवन सेवा करके लिए संकल्प लिये और जीवनदानी के रूप में सदा-सर्वदा के लिए आ गये एवं अहर्निश सौंपे काम को करने में जुट गये। इन्हीं कर्मवीरों का चमत्कार है .... दी जाती है। 250 के करीब कार्यकर्ता ब्राह्मणोचित जीवन जीकर निर्वाह कर अपनी महत्वकाँक्षाओं को पैरों तले कुचल दे ऐसे उदाहरण कठिनाई से ही कहीं अन्यत्र देखने को मिलेंगे। यह चौथा चरण हुआ जिसके माध्यम से हर वर्ष लाखों व्यक्ति प्राण-प्रेरणा ग्रहण करते है।

पांचवां चरण है-धर्मतंत्र के समस्त क्रिया-कलापों कर्मकांडों का अत्यंत सरलीकरण कर देना, यह है द्वीप यज्ञ योजना। इनमें खर्च जो उँगलियों पर गिनने जितने रुपयों का ही आता है, पर इस माध्यम से बड़ी संख्या में लोग सहज हो जाते है। चंदा नहीं करना पड़ता। कार्यकर्ता मिलजुल कर ही उस आवश्यकता को पूरा कर लेते है। जहाँ माँग होती है, वहाँ शान्ति-कुँज की प्रचार गाड़ियां भी सभी आवश्यक उपकरणों समेत पहुँच जाती है। बुलाने वालों को अगले पड़ाव तक के लिए ईंधन भर देना पड़ता है। पाँच प्रचारकों से इन छोटे आयोजनों में भी समा बँधा जाता है।

गत वर्ष एक हजार स्थानों पर राष्ट्रीय एकता सम्मेलन हुए है जिससे साम्प्रदायिक जातिगत सद्भाव का वातावरण बना था। इस बार सद्भाव सम्मेलन हो रहे है जिनमें चार बातों पर प्रधान रूप से जोर दिया जाता है और उपस्थित जनों को इन प्रयासों में संलग्न होने के लिए उत्साह और साहस भरा जाता हैं। इस वर्ष चार कार्यक्रम हाथ में लिये गये है -

प्रौढ़ शिक्षा। हर शिक्षित पाँच अशिक्षितों को प्राथमिकशाला स्तर की पढ़ाई पूरी कराये। स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए दो घण्टे नित्य की बाल संस्कारशाला चलायी जाये, जिसमें स्कूली पढ़ाई को पक्का कराया जाय।

बिना खर्च की, बिना दहेज-दिखावे की शादियों का प्रचलन। लड़के वालों से प्रथम प्रतिज्ञा करना। वयस्क लड़की-लड़कों से खर्चीली शादी न करने का संकल्प कराना। धूम-धाम वाली शादियों में सम्मिलित न होने का प्रचार करना।

नशा पीने वालों से छुड़ाना। जो नहीं पीते है, उन्हें उसकी चपेट में न आने के लिए सावधान करना।

हरीतिमा संवर्धन। वृक्षारोपण बीज तथा पौध का आवश्यकतानुसार वितरण। घरेलू शाक-वाटिका तथा तुलसी पौधों का आरोपण।

यह चारों प्रवृत्तियों इस वर्ष के दीप-यज्ञ आन्दोलन के साथ जुड़ गयी है। भविष्य में ऐसे-ऐसे अनेकों अभियान-आन्दोलन चलाने और प्रचलित दुष्प्रवृत्तियों को उलट कर सीधा करने की विशाल योजना है। अखण्ड-ज्योति का उन भावी सम्भावनाओं का प्रेरणा-स्त्रोत समझा जा सकता है।


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