स्वाद विजय की प्रथम साधना

May 1985

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प्रत्यक्ष से परोक्ष की ओर चलने की पद्धति सही भी है और सरल भी। आहार सबसे अधिक प्रत्यक्ष है। बच्चा जब जन्म लेता है तब सर्वप्रथम उसकी जीभ ही रोने और चूसने का काम करती है। आँखें तक बाद में खुलती हैं। साधना की दृष्टि से सर्वप्रथम आहार ही ध्यान देने योग्य है। व्रत उपवास गृहस्थों तक के लिए सरल पड़ते हैं। हिन्दू धर्म में उन्हीं का महत्व और माहात्म्य अधिक माना गया है। संख्या की दृष्टि से उन्हीं का बाहुल्य है। कोई महीना ऐसा नहीं जिसमें कई-कई व्रत पर्व न पड़ते हों और उनमें उपवास का विधान न हो। एकादशियां, अमावस्या, पूर्णमासियां, सप्ताह में कोई वार विशेष, पर्व, त्यौहार, देवताओं की जयन्तियां आदि मिलाकर अनेकों पड़ती हैं कार्तिक, मार्गशीर्ष, माघ, बैसाख, श्रावण मासों के अपने-अपने माहात्म्य बताने वाले एक-एक मास के व्रत हैं। अवतारों के जन्मदिन, कृष्ण जन्माष्टमी, राम नवमी, हनुमान जयन्ती, गंगा दशहरा आदि जन्म तिथियों का बाहुल्य है। पंचांग पढ़ने से प्रतीत होता है कि महीने में दस दिन अवश्य ही व्रत उपवासों का माहात्म्य बताने वाले हैं। यह न तो निरर्थक है न अन्धविश्वास है। इनके पीछे कथानक जो भी हो आत्म-कल्याण के लिए नितान्त आवश्यक इन्द्रिय निग्रह का तथ्य तो जुड़ा हुआ है ही। प्रत्यक्ष लाभ की दृष्टि से अपच निवारण की बात तो प्रत्यक्ष ही है। दफ्तर, कारखानों, स्कूलों में साप्ताहिक छुट्टियाँ इसीलिए होती हैं कि एक दिन का विराम मिल जाने से शारीरिक और मानसिक थकान दूर होती है और फिर शेष छः दिन समुचित उत्साहपूर्वक काम करने का नया सुयोग मिल जाता है। यह सोचना ठीक नहीं कि एक दिन की छुट्टी में काम हर्ज होगा और घाटा बढ़ेगा। रात्रि को सोया न जाय तो भी यह सोचा जा सकता है कि चौबीस घण्टे काम करने से अधिक लाभ होगा फिर सोने के लिए छुट्टी क्यों की जाय? काम की थकान विश्राम से दूर होती है और उस आधार पर उपलब्ध हुई स्फूर्ति से अधिक तत्परता और तन्मयतापूर्वक काम करने का अवसर मिलता है। पेट के बारे में भी यही बात है। उसे भी बीच-बीच में विश्राम का अवसर मिलना चाहिए। इससे पाचन तन्त्र नये सिरे से, नये उत्साह से काम करने का अवसर प्राप्त करता है। शक्ति घटने, कमजोरी आने जैसे सन्देह करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उपवास करते हरने वालों का पाचन तन्त्र, ठीक रहता है और न खाने से रक्त कम बनने जैसी कल्पना मिथ्या सिद्ध होती है। इस आश्रय के अवलम्बन से पाचन ठीक रहता है और पेट की थकान दूर होने से अपेक्षाकृत अधिक काम करने की, अधिक सामर्थ्य उत्पन्न होने की सुविधा मिलती रहती है।

उपवास का वास्तविक अर्थ है- निराहार रहना। किन्तु पानी अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में पीना जिससे सफाई का काम अधिक अच्छी तरह हो सके। नाली में अधिक पानी छोड़ देने से कचरा बह जाता है और अच्छी सफाई हो जाती है। जो लोग मात्र जलपर उपवास न कर सकें वे पेय पदार्थ इतनी स्वल्प मात्रा में ले सकते हैं जिससे भूख की जलन मात्र की कठिनाई से बचा जा सके। इस निमित्त दूध, छाछ लेना उत्तम है। फलों का रस या शाकों का रसा लेना भी ठीक रहता है। इन वस्तुओं से पेट पर दबाव भी कम पड़ता है और सर्वथा निराहार रहने की कठिनाई भी अनुभव नहीं होती। दो समय भोजन करने वाले एक समय खाकर काम चला लें तो भी ठीक है। मात्रा कम ही रखी जानी चाहिए। यदि पेय पदार्थों से काम न चले तो उबले हुए अन्न का अमृताशन सीमित मात्रा में लिया जा सकता है। खिचड़ी, दलिया जैसी उबली हुई वस्तुएं- उबले शाक भी उपवास की आंशिक पूर्ति कर देते हैं।

उपवास का आध्यात्मिक प्रयोजन तब सधता है जब उसमें जो फलाहार लिया जाय वह शकर और नमक मसालों से रहित हो। यह वस्तुएं मात्र स्वाद के लिए खाई जाती हैं। खारी नमक को खाद्य पदार्थों में ऊपर से मिलाया जाता है। अनावश्यक ही नहीं हानिकर भी है। पचने योग्य तथा स्वाभाविक नमक फल, शाक, अन्न आदि में स्वभावतः विद्यमान रहता है। वही पचता है और वह घुलकर शरीर का अंग बनता है। जिस नमक को हम खाद्य पदार्थों में मिलाकर जायकेदार बनाते हैं वह सोडियम क्लोराइड नमक मन्द विष है। उसकी परिणति बीमारियाँ उत्पन्न होने के रूप में सामने आई हैं। रक्तचाप, हृदय रोग, सूजन आदि रोगों में तो चिकित्सक नमक सर्वथा बन्द कर देने की सलाह देते हैं। यदि जीभ न माने तो नमक की मात्रा जितनी कम रखी जा सके उतनी घटा तो देनी ही चाहिए। यही बात शकर के बारे में भी है। आवश्यक और उपर्युक्त मात्रा हमारे साधारण खाद्य पदार्थों में विद्यमान रहती है। वही पचती भी ठीक से है। ऊपर से मिलाई हुई शक्कर भी नमक की तरह है। गुर्दे खराब करती और पेशाब आदि के रास्ते बाहर निकल जाती है। शकर को हजम करने के लिए कैल्शियम की आवश्यकता पड़ती है। जो हड्डियों में से खिंचता है। उससे दाँत खराब होते हैं। पेट में कीड़े उत्पन्न होने की शिकायत भी शकर खाने से उत्पन्न होती है। पकवानों और मिष्ठान्नों में काम आने वाली चिकनाई भी दुष्पाच्य होती है। तिल, मूँगफली, सोयाबीन, दूध, दही आदि में रहने वाली चिकनाई उनके स्वाभाविक रूप से खाई जाय तो ही ठीक पड़ती है। घी और तेल में तलने भुनने से हर पदार्थ दुष्पाच्य हो जाता है और पेट खराब करता है। उपरोक्त हानिकार पदार्थों से कम से कम उपवास काल में तो बचा ही जाना चाहिए। स्वाद के लिए जो अनुपयुक्त वस्तुऐं आहार में मिलाई जाती हैं। उनका बचाव तो इस अवसर पर किया ही जाना चाहिए। फलों की जिन्हें सुविधा हो वे फलों की मिठास पर सन्तोष करें। भुने आलू में नमक बढ़ जाता है उससे स्वाद की ललक एक सीमा तक बुझाई जा सकती है।

गाँधी जी ने अपनी “सप्त महाव्रत” पुस्तक में सात महाव्रतों का उल्लेख किया है। उनमें प्रथम व्रत ‘अस्वाद’ को गिनाया है। स्वाद जप के साथ अध्यात्म साधना की वर्णमाला आरम्भ की जानी चाहिए। आत्मनिग्रह का शुभारम्भ इन्द्रिय दमन से आरम्भ होता है। इन्द्रियों में स्वादेंद्रिय प्रथम एवं प्रमुख है। उसके निग्रह में भूख से कम खाने का स्वल्पाहार का विधान तो है ही। सुपाच्य और मिलावटी स्वादों से रहित भी उसे होना चाहिए।

संसार के प्रमुख चिकित्सकों का मत है कि जितने आदमी भूख या कुपोषण से मरते हैं उससे कई गुने अधिक खाने तथा स्वादों की भरमार करने से मरते हैं। नमक, मसाले, शकर एवं चिकनाई यह शरीर के लिए किसी भी दृष्टि से आवश्यक नहीं। यह स्वास्थ्य पर सीधा आक्रमण करते हैं। इतना ही नहीं मनःक्षेत्र में राजसिक तामसिक वृत्तियाँ उभारते हैं। इन्द्रियों की श्रृंखला परस्पर एक दूसरे से जुड़ी हुई है। जीभ के चटोरे व्यक्ति कामुकता के वशीभूत हुए बिना रह नहीं सकते। उनके मन में ब्रह्मचर्य विरोधी विचार निश्चित रूप से उठेंगे। यौनाचार का प्रत्यक्ष अवसर कम मिले तो भी मस्तिष्क में वे कल्पना चित्र छाये रहेंगे और स्वप्न दोष आदि होते रहेंगे। इसके बाद नेत्रों से अनुपयुक्त देखने, कानों से उत्तेजना सुनने आदि की प्रवृत्तियां उत्तेजित होकर उस प्रकार की गतिविधियाँ अपनाने की प्रेरणा देती हैं जो सतोगुण घटाती और तमोगुण बढ़ाती हैं। आध्यात्मिक प्रगति में उनके कारण निश्चित रूप से क्षति पहुँचती है।

कई साधु भिक्षाटन में जो भोजन प्राप्त करते हैं उन्हें आपस में मिलाकर एक जगह कर लेते हैं ताकि उनके अलग-अलग स्वाद न रहें। अस्वाद व्रत का एक तरीका यह भी है कि किसी प्रिय स्वाद का अस्तित्व न रहे और सबके मिल जाने पर किसी स्वाद की पृथक पहचान ही न रहे और इन्द्रिय लिप्सा का अभ्यस्त स्वाद प्रयोजन पूरा न हो। अच्छा तो यही है कि बिना स्वाद का प्राकृतिक भोजन ही किया जाय। कई फल और शाक ऐसे हैं जो कच्चे ही खाये जा सकते हैं। फल आजकल महंगे हैं। शाक कच्चे खाने की पेट को आदत न हो तो उन्हें उबाला जा सकता है। अन्न लेना आवश्यक हो तो खिचड़ी दलिया के रूप में लेना हलका रहता है। दाल रोटी, शाक भाजी, लेनी हो तो वह भी इसी रूप में लेनी चाहिए कि उसमें प्राकृतिक स्वाद के अतिरिक्त कोई बाहरी स्वाद मिला हुआ न हो।

यह निर्धारण स्वास्थ्य की दृष्टि से निश्चित रूप से उपयोगी है। घी के स्थान पर दूध दही, तेल के स्थान पर तिल, मूँगफली आदि पीस कर लिये जा सकते हैं। शकर की जो बहुत जरूरत समझे, खजूर, मुनक्का, गन्ना आदि ले सकते हैं।

मानसिक अस्वाद में एक बात विशेषज्ञ रूप से ध्यान रखने योग्य है कि स्वादों के सेवन या विरोध में से एक भी बात मन में न जमने दी जाय। उसे साधारण और महत्वहीन समझा जाय। किसी वस्तु का विरोध भी एक प्रकार का आग्रह है और उससे भी मन घूमघामकर वहाँ पहुँचता है। ब्रह्मचर्य पर अत्यधिक जोर देने वाले और ब्रह्मचर्य भंग की हानियों को बहुत गम्भीरतापूर्वक पढ़ने या मनन चिन्तन करने से भी मनःक्षेत्र की प्रतिक्रिया यही होती है कि काम कौतुक के चित्र समर्थन की तरह ही खण्डन रूप भी छाये रहते हैं और मन उसी प्रवंचना में उलझा रहता है। इसलिए उस सम्बन्ध में इतना करना ही उपयुक्त है कि उसकी उपेक्षा की जाय और व्यर्थ का सिर दर्द माना जाय। यही बात अस्वाद के सम्बन्ध में भी है। स्वाद अपनाने की तरह ही अस्वाद का पालन करेंगे यदि यह प्रसंग गम्भीरतापूर्वक मन में भरने का प्रयत्न किया जाय तो वह पालन करते हुए भी खण्डन जैसा हो जायेगा। अर्थात् स्वाद उलट-पलट कर मस्तिष्क में छाये रहेंगे और इन्द्रिय जय का प्रयोजन पुरा न होने देंगे।

मनोनिग्रह की सीढ़ियां हैं। उनमें इन्द्रिय संयम प्रथम है। इन्द्रियों में स्वादेन्द्रिय की प्रबलता मानी जाती है। इन्द्रिय जय का प्रथम अभ्यास पूरा होने लगे तो वासना के उपरान्त अगली दो मंजिलों को भी पार करना चाहिए। वे हैं तृष्णा और अहन्ता। वैभव और ठाट-बाट का प्रदर्शन। साधक को जीतने यह भी पड़ते हैं।


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