छात्रों में आरुणी वशिष्ठ मेधावी था और आज्ञाकारी भी। वह तत्त्वज्ञानी बनना चाहता था। कुलगुरु उद्यालक भी उसके उत्सुक थे। उचित मूल्य पर उचित उपलब्धि का सिद्धान्त अपनाया गया। सस्ते में बहुमूल्य पाने का कोई प्रचलन इस संसार में है भी तो नहीं।
आरुणी को सौ दुर्बल गौएं दी गयीं, और कहा वह एक हजार तक बढ़ाये और तगड़ी करके दिखाये। उसके उपरान्त ही दीक्षा मिलेगी।
आरुणी झुण्ड को लेकर चल पड़ा। घास-पानी की उपयुक्त जानकारी प्राप्त करना। झुण्ड को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना सुरक्षा का प्रबन्ध करता और आये दिन की समस्याओं से जूझता। यही क्रम चलता रहा और दस वर्ष में गौएं सौ से बढ़कर हजार हो गईं। झुण्ड को लेकर वह गुरुकुल को वापस लौट आया।
आरुणी के चेहरे पर ज्योतिर्मान ब्रह्मतेजस् उभरा हुआ देखकर आचार्य ने हर्ष भी व्यक्त किया और उसके पुरुषार्थ प्रयास को मुक्त कण्ठ से सराहा भी। कुछ ही दिन गुरु सान्निध्य में रहकर वह अद्वितीय ब्रह्म ज्ञानी घोषित किया गया।
लम्बे समय से ग्रन्थ परायण छात्रों ने कुछ भी समय में आरुणी को निष्णात घोषित किये जाने का कारण पूछा तो कुलपति ने इतना ही कहा- ‘ज्ञान की पूर्णता अनुभव, अभ्यास और आदर्श को जीवन में घुला लेने पर ही उपलब्ध होती है। मात्र पठन-पाठन उसके लिए पर्याप्त नहीं माना जाता।’