ब्राह्मी चेतना का विस्तार कार्य व्यवहार

May 1985

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अपने सूर्य जैसे लगभग 500 करोड़ ताराओं, सौर मण्डल तथा अकल्पनीय विस्तार वाले धूल तथा गैस वर्तुलों के मेघों के मिलने पर एक आकाश गंगा बनती है। ऐसी 10 करोड़ से अधिक आकाश गंगाओं तथा उनके मध्य के अकल्पनीय आकाश को एक ब्रह्मांड कहा जाता है। यह ब्रह्मांड कितने हैं? इस प्रश्न के उत्तर में प्रश्न कर्ता से ही उल्टा प्रश्न पूछना पड़ेगा। आपके नगर में रेत के कण कितने हैं? मनुष्य की बुद्धि एवं कल्पना इस स्थान पर थक जाती है। इसलिए दर्शन वे उसे ‘नेति’‘नेति’ एवं विज्ञान ने उसे ‘अनन्त’ कहा है। अध्यात्मवाद ने इस समस्त रचना को ही नहीं उसके स्वामी, नियन्ता, रक्षक को भी ‘अनन्त’ नाम से सम्बोधित किया है।

खगोल विज्ञानियों के अनुसार अपनी पृथ्वी को एक गैस बादल से समुद्र का, विष गोलक का, रूप धारण प्रायः 11 अरब वर्ष हुए हैं। सौर मण्डल के अन्य सदस्यों का जन्म भी प्रायः एक साथ हुआ इससे उनकी आया भी वही मानी जायेगी इसके अपवाद भिन्न-भिन्न ग्रहों में भिन्न-भिन्न संख्या में देखे गये। चन्द्रमा हो सकते हैं जो बाद में बनते रहे हैं। पृथ्वी के चन्द्रमा के सम्बन्ध में कहा जाता है कि समुद्र वाले गड्ढे से टूट कर अन्तरिक्ष में विचरण करने वाला पदार्थ भर है। जो गिर तो पड़ा पर पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण परिधि को लांघ न सकने के कारण उसी के इर्द-गिर्द परिभ्रमण करने लगा। यही बात अन्य ग्रहों के चन्द्रमाओं के सम्बन्ध में भी लागू होती है।

पृथ्वी की परिधि भूमध्य रेखा पर 4076 कि.मी. और ध्रुवों पर 40000 कि.मी. है। उसका व्यास भूमध्य रेखा पर 12753 कि.मी. है। धरातल क्षेत्रफल 51 करोड़ 2 लाख वर्ग कि.मी. है। सूर्य की परिक्रमा करते हुए उसकी गति 100191 कि.मी. प्रति घण्टा है। इतनी विशाल हमारी पृथ्वी सौर मण्डल के मध्य में नहीं है वरन एक कोने में पड़ी है। ठीक इसी प्रकार अपना सौर मण्डल भी मन्दाकिनी आकाश गंगा के ठीक मध्य में अवस्थित न होकर एक कोने में पड़ा है। सूर्य प्रति सेकेंड 220 किलोमीटर की गति से अपने सौर मण्डल सहित आकाश गंगा केन्द्र की परिक्रमा करता है। इस संदर्भ में समझा जा सकता है कि जब से धरती पर मनुष्य का जन्म हुआ है तक से लेकर अब तक उस केन्द्र की एक परिक्रमा भी पूरी नहीं हो पाई है। अपनी आकाश गंगा केन्द्र से यह सौर मण्डल 30 हजार प्रकाश वर्ष हटकर है।

अपनी आकाश गंगा ध्रुव द्वीप की 19 आकाश गंगाओं में से एक है। पर ऐसे ध्रुव द्वीप भी विराट् में असंख्य बिखरे पड़े हैं। माउण्ट पैलोमर पर लगी हुई 200 इंच व्यास के लैंस वाली संसार की सबसे बड़ी हाले दुर्बीन से पता लगाया गया है कि विराट् में कम से कम एक अरब आकाशगंगाऐं हैं।

विशालता की माप का पैमाना लगा लिया जाय, यह मानवी बुद्धि की समझ में सहज ही नहीं आता। 13000 किलोमीटर व्यास वाली हमारी पृथ्वी के मुखिया सूर्य का स्वयं का व्यास 13,90,000 किलोमीटर है। एवं उसकी कुल परिधि 2700000 मील है। अनुमानित भार 19 करोड़ 98 लाख महाशंख टन। वह अपनी धुरी पर 25 दिन 7 घण्टे 48 मिनट में एक चक्कर लगाता है। उसकी सतह पर 600 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान है और मध्य गर्भ में 1500000 डिग्री सेंटीग्रेड। वह दो सौ मील प्रति सेकेंड की उड़ान उड़ता हुआ महा ध्रुव की परिक्रमा में निरत है। यह परिक्रमा 25 करोड़ वर्ष में पूरी होती है। इस परिक्रमा में उसके साथी और भी कई सूर्य होते हैं जिनके अपने-अपने सौर मण्डल भी हैं।

पृथ्वी से सूर्य 109 गुना बड़ा है। दोनों के बीच की दूरी 93000000 मील है। यदि हम 600 मील प्रति घण्टे की गति से उड़ने वाले अपने तीव्रतम वायुयानों में बैठकर लगातार उड़ें तो उस दूरी को पार करने में 18 वर्ष लगेंगे।

एक और उदाहरण बृहस्पति का लें। बृहस्पति का व्यास 88 हजार मील है। उस पर हजारों मील गैस के बादलों की परत छाई हुई है। सूर्य से 48 करोड़ 30 लाख मील दूर होने के कारण वहाँ गर्मी पहुँचाने वाली किरणें बहुत स्वल्प मात्रा में पहुँचती हैं इसलिए वह अत्यधिक ठण्डा है। अन्य ग्रह सूर्य के समीप हैं। हमारी पृथ्वी मात्र सवा नौ करोड़ मील दूर है। मंगल 14॥। करोड़ मील, शुक्र 6॥। करोड़ मील और बुध 3॥। करोड़ मील है। अत्यधिक दूरी होने कारण सूर्य साम्राज्य में रहते हुए भी बृहस्पति बहुत बातों में आत्म निर्भर है। उसे पूरा औपनिवेशिक स्वराज्य मिला हुआ है कॉमनवेल्थ का वह सम्मानित सदस्य होते हुए भी अपने बलबूते पर ही अपना क्रिया-कलाप चलाता है।

हमारे सौर परिवार में 9 ग्रह, 61 उपग्रहों के अतिरिक्त 1500 छोटे-छोटे ग्रह पिण्ड और भी हैं जिन्हें मध्य ग्रह अथवा एरटेराइड्स कहते हैं। पुच्छल तारे, उल्काएँ एवं अन्तरिक्षकीय इन्हीं के अंतर्गत आते हैं। इस समूचे सौर-मण्डल का व्यास 1 शंख, 18 अरब किलोमीटर है। ये सभी मन्दाकिनी आकाश गंगा से प्रकाश पाते हैं।

जिसे आकाश कहा गया है, जिसमें ब्रह्माण्ड समाया हुआ है, उसे समझने-समझाने की दृष्टि से चार मूल विभाजनों में बाँटा जा सकता है।

प्रथम क्षेत्र में तो हमारी धरती, उसका वायुमण्डल, चुम्बकीय क्षेत्र आता है। ऊपरी वायुमण्डल का अधिक भाग आवेशित परमाणुओं, अणुओं और इलेक्ट्रोनों से बना हुआ है। आकाश के इस क्षेत्र में पदार्थ के अस्तित्व का पता आसानी से चल जाता है।

दूसरा क्षेत्र है- सौर-मण्डल के ग्रहों के बीच में फैला हुआ भाग। यह क्षेत्र सूर्य के बाहरी परि-मण्डल (कोरोना) से निरन्तर खिसकने वाली पतली और फैलने वाली गैस से भरा हुआ है। इसे ‘प्लाज्मा’ या सौर वायु कहते हैं। इसी हवा के कारण पुच्छल-तारों की पूंछें सदा सूर्य से विपरीत दिशा में रहती हैं। यही हवा पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र को भी पूँछ की शक्ल का पुच्छलतारा बना देती है।

तीसरा क्षेत्र है- पृथ्वी और सूर्य के बीच की, दूरी से प्रायः 50 गुना- सौर मण्डल से आगे हमारी आकाश-गंगा में जुड़े तारों के बीच का भाग, यहां भी तारों के बीच के भाग में पदार्थ के उदासीन और आवेशित कणों से बनी हुई पतली गैस है।

चौथा क्षेत्र वह आकाश है- जिसमें हमारी आकाश गंगा जैसी अन्य अगणित आकाश-गंगाऐं और उनसे सम्बद्ध असंख्यों चित्र-विचित्र ग्रह-नक्षरेत्रभ पड़े हैं। तारे व नक्षत्र दोनों भिन्न-भिन्न हैं। जहां तारे अपनी रोशनी से चमकते हैं, वहाँ नक्षत्रों में अपनी रोशनी नहीं होती। वहाँ तारकों की धूप के प्रकाश में आते हैं, तभी प्रकाशवान होते हैं एवं हमें वैसे टिमटिम करते दिखाई पड़ते हैं।

उस आकाश जिसमें हम ब्रह्माण्ड को संव्याप्त मानते हैं, अर्से से भिन्न-भिन्न मान्यताओं के कारण भिन्न रूपों में देखा जाता रहा है। आज यदि उन्हें हम सुनें तो हँसी आ जायेगी। आकाश के बारे में अतीतकाल के यूनानी लोगों की मान्यता थी कि बादलों में निवास करने वाले देवताओं का सारे आकाश पर राज्य है। वह लोहे की तरह कड़ा है और धरती के केन्द्रों पर टिका है।

मैक्सिकोवाली 22 आकाश मानते थे धरती से ऊपर 13 आकाश स्वर्ग है जिनमें से सिर्फ पहला ही आँखों से दिखता है। धरती के नीचे 9 आकाश हैं जो नरक हैं।

दक्षिण अमेरिका के रैड इण्डियन सात आकाश मानते हैं जिनमें से पाँच पृथ्वी के ऊपर दो नीचे हैं। वे इनके रंग भी भिन्न बताते हैं क्रमशः नीला, हरा, पीला, लाल, सुनहरा, बैगनी और सफेद। इन सबके अधिपति अलग-अलग आकृति-प्रकृति के देवता लोग हैं।

इसी प्रकार धरती व उसका अन्यान्य ग्रहों से क्या सम्बन्ध है, यह भी विवाद का विषय रहा है। प्रतिपादन के विरोध में भांति-भांति के आन्दोलन हुए हैं, प्रतिपादन वार्ताओं को यातनाएँ भी करनी पड़ी थी। कोपर्निकस अन्यान्यों की अपेक्षा प्रत्युत्पन्न मति होने के कारण बच गए परन्तु मरणोपरान्त उन पर अनेकों अभियोग लगाए गये। पहली बार पृथ्वी के भ्रमणशील होने का प्रतिपादन पोलैंड निवासी कोपर्निकस ने किया और इसके प्रमाण तर्क का प्रतिपादन उसने अपने ग्रन्थ ‘आकाश मण्डल में भ्रमण पथ पर’ नामक ग्रन्थ में किया। उसे अनुमान था कि इस प्रतिपादन से पुरातन पंथी ईसाई समाज उसका घोर विरोध करेगा इसलिए उसने चतुरता से काम लिया, उस रोम के पोपपाल तृतीय को समर्पित किया और ऊपर से ऐसी लीप-पोती की, प्राचीन प्रतिपादन का खण्डन होते हुए भी कटुता उत्पन्न नहीं हुई। पोप की आड़ में कुछ दिन तो वह चाल सफल रही पर पीछे जैसे ही उसे लोगों ने बारीकी से पढ़ा वैसे ही ईसाई धर्म के दोनों ही वर्ग प्रोटेस्टेंट और रोमन कैथोलिक उसके विरोध में हाथ धोकर पीछे पड़ गये। अन्ततः पोप के आदेश से उस पुस्तक को जब्त कर लिया गया। प्रतिपादन कर्ता पर वे अपराध लगाये गये जिनका फल उसे मृत्यु दण्ड ही भुगतना पड़ सकता था। अच्छा इतना ही हुआ अपराध लगाये जाने से 73 वर्ष पूर्व ही कोपर्निकस मर चुका था। अन्यथा उसे भी धरती को भ्रमणशील बताने वाले एक अन्य खगोलज्ञ बूनी की तरह जीवित जला दिया जा सकता था। ऐसे ही प्रतिपादनों पर गैलीलियो को भारी उत्पीड़न सहने पड़े थे। ऐसे अनेकों वैज्ञानिकों ने सोलहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी तक ज्योतिर्विज्ञान सम्बन्धी अपनी मान्यताओं पर प्रतिवाद के थपेड़े सहे हैं, पर अन्ततः इस विकास क्रम में ब्रह्मांड भौतिकी का ढाँचा भली प्रकार उभरकर आ सका। इसका श्रेय पूरी तरह मानवी अन्वेषण बुद्धि को जाता है जो विराट् के दर्शन अनुसन्धान में सतत् लगी रही।

ब्रह्माण्ड का 99 प्रतिशत भाग शून्य है। एक प्रतिशत भाग को ही ग्रह-नक्षत्र घेरे हुए हैं। अनुमान है कि आकाश में सूर्य जैसे अरबों तारकों का अस्तित्व है। वह तारे आकाश गंगाओं से जुड़े हैं। वे उसी से निकले हैं और उसी से बंधे हैं। मुर्गी अण्डे देती है उन्हें सेती है और जब तक बच्चे समर्थ नहीं हो जाते उन्हें अपने साथ ही लिए फिरती है। आकाश गंगाऐं ऐसी ही मुर्गियां हैं जिनके बच्चों की गणना करना पूरा सिर दर्द है। हमारी आकाश गंगा एक लाख प्रकाश वर्ष लम्बी और 20 हजार प्रकाश वर्ष मोटी है। सूर्य इसी मुर्गी का एक छोटा चूजा है, जो अपनी माता से 33000 प्रकाश वर्ष दूर रहकर उसकी प्रदक्षिणा 170 मील प्रति सेकेंड की गति से करता है। आकाश गंगाऐं भी आकाश में करोड़ों हैं। वे आपस में टकरा न जायें या उनके अण्डे-बच्चे एक-दूसरे से उलझ न पड़े इसलिए उनने अपने सैर-सपाटे के लिए काफी-काफी बड़ा क्षेत्र हथिया लिया है। प्रायः ये आकाश गंगाऐं एक-दूसरे से 20 लाख प्रकाश वर्ष दूर रहती हैं।

अनन्त आकाश में गतिशील आकाश गंगाओं में एक अपनी-अपने सौर मण्डल की भी है, जिसकी चाल 24,300 मील प्रति सेकेण्ड नापी गयी है। इस तरह ब्रह्माण्ड चेतन तो है ही, निरन्तर फैल भी रहा है, इसकी हर इकाई गतिशील है। निष्क्रियता कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती।

इसी कारण वैज्ञानिक कहते हैं कि अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों की तरह ही अपने इस सौर-मण्डल का भी सृजन हुआ है। वाष्पीय महामेघ न केवल अपने केन्द्र में फटा वरन् उसके टुकड़े भी उसी क्रम से फटते चले गये। अपने-अपने उद्गम केन्द्र के इर्द-गिर्द उसकी आकर्षण शक्ति के कारण परिभ्रमण करने की स्थिति में फँसते चले गये। विस्फोट के जिस क्रम से वितरण फैलना है उसी अनुपात से आकर्षण भी उत्पन्न होता है। वह अपने परिकर को एक सीमा तक ही बिखरने देता है। इसके बाद सभी को एक सूत्र में समेट लेता है और परिवार क्रम के अनुरूप निर्वाह करने लगता है। ब्रह्माण्ड में विद्यमान अनेकानेक सौर-मण्डलों के सम्बन्ध में यह घटना क्रम घटित हुआ है।

इसका स्पष्टीकरण देते हुए वैज्ञानिक कहते हैं कि परमाणु के इलेक्ट्रान जिस प्रकार चक्कर लगाते-लगाते स्थान बदलते रहते हैं, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड में भी जो गतिशीलता के साथ-साथ परिवर्तन क्रम दृष्टिगोचर होता है, वह “ला आफकाजेशन” से परे होता है। अर्थात् विद्युत जहाँ एकवद्ध तत्व है, वहाँ उसकी अपनी इच्छा और चेतनता भी है, भले ही वह विद्युत तत्व से कोई सूक्ष्मतर स्थिति हो और अभी उसका अध्ययन एवं जानकारी वैज्ञानिकों को नहीं हो पाई हो। इस मौलिक स्वाधीनता को “ला आफ इन डिटरमिनेसी” के नाम से पुकारा जाता है और उसी के आधार पर अब वैज्ञानिक भी कहने लगे हैं कि विश्व की सभी वस्तुयें एक-दूसरे में सम्बद्ध परस्पर अवलम्बित और एक ही संगठन में पिरोई हुई हैं। सारा संसार अर्थात् पृथ्वी से लाखों दूर के नक्षत्र तक गणित के सिद्धाँतों से बंधे हुए हैं, वैज्ञानिक तब यह मानने को विवश हुए कि सम्पूर्ण जगत एक ही रेशनल सिस्टम के द्वारा संचालित है। प्रकृति में पूर्ण व्यवस्था और नियमबद्धता है और वह सब किसी विश्वव्यापी, स्वयं-भू, शक्ति मानव सत्ता के ही अधीन है।


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