सूक्ष्म शरीर का प्रतीक तेजोवलय

May 1985

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शरीर में तापमान भी होता है और हलचल भी। इन्हीं के आधार पर जीवनचर्या चलती है। इन दोनों प्रयोजनों को साधने वाली शक्ति का नाम है (वष्यो इलैक्ट्रिसिटी) जैव विद्युत। इसका भण्डार जिसमें जितना अधिक है वह उतना ही ओजस्वी, तेजस्वी माना जाता है।

इस क्षमता को प्राण भी कहा जाता है। जब तक प्राण की मात्रा विद्यमान है तभी तक जीवधारी को प्राणी कहा जाता है। जब वह तिरोहित हो जाती है तो शरीर-लाश मात्र रहा जाता है और विकृत होकर दुर्गन्ध फैलाता है। इस दुर्गति से बचने के लिए मित्र-कुटुम्बी उसका दाह संस्कार करते या दफना देते हैं। ऐसा न किया जाय तो भीतर से ही कृमि उत्पन्न हो जाते हैं और उसे चाटकर साफ कर देते हैं। बाहर के श्वान, श्रृंगाल, चील, गिद्ध, कौए आदि भी उस पर टूट पड़ते हैं और अस्ति पिंजर मात्र शेष रह जाता है। यह दुर्गति इसीलिए होती है कि प्राण निकल जाता है। यदि वह बना रहता तो शरीर के अस्तित्व को मिटाया न जाता।

प्राण विश्वव्यापी है। उसी का एक अंश जब जीवधारी को मिल जाता है तो वह प्राणियों की तरह अपनी क्षमता का परिचय देने लगता है। यह प्राण प्रत्यक्ष शरीर में तो होता ही है उसे यन्त्र उपकरणों से जैव विद्युत के रूप में आँका और मापा जा सकता है। इसकी घट-बढ़ भी विदित होती रहती है। घटने पर दुर्बलता आ दबोचती है। इन्द्रियों में तथा उत्साह में शिथिलता प्रतीत होती है। इसकी पर्याप्त मात्रा रहने पर मन और बुद्धि अपना काम करती है। उत्साह और साहस- पराक्रम और पुरुषार्थ- अपनी प्रदीप्त गतिविधियों का परिचय देने लगता है।

मरने के बाद यह प्राण शरीर छोड़कर अन्तरिक्ष में भ्रमण विश्राम करने लगता है- स्वर्ग-नरक भोगता है और संस्कार के अनुरूप नया जन्म धारण करने की तैयारी करता है। इस अवधि में उसका अस्तित्व सूक्ष्म शरीर के रूप में बना रहता है। उसकी उद्विग्नता कभी कभी भूत-प्रेत के रूप में भी प्रकट होती रहती है।

स्थूल और सूक्ष्म शरीर आपस में गुँथे रहते हैं स्थूल शरीर एक कारखाना और सूक्ष्म शरीर उसके मोटरें घुमाने वाली बिजली। शरीर के भीतर वह कितनी है किस स्थिति में है इसे शरीर विज्ञानी सरलतापूर्वक जाँच कर सकते हैं पर क्या वह शरीर से बाहर भी पाया जाता है? इसका उत्तर हाँ में दिया जा सकता है। भाप या कुहरे के रूप में उसे विद्यमान पाया जाता है वह चमकदार भी होता है। चमकीली भाप की तरह शरीर के चारों और उसे छाया हुआ देखने के लिए अब तद्विषयक यन्त्र उपकरण भी बनने लगे हैं। इसे सूक्ष्म शरीर कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी। प्राण निकल जाने पर यह चमकीला कुहरा भी समाप्त हो जाता है। सम्भवतः यही घनीभूत होकर सूक्ष्म शरीर की अनेकानेक भूमिकाएँ निभाता है।

जीवित व्यक्ति के चारों ओर इसे छाया हुआ देख सकना अब सम्भव हो गया है। यह चेहरे के इर्द-गिर्द अधिक स्पष्ट और घनीभूत होता है।

देवी देवताओं के चित्रों में उनके चेहरों के इर्द-गिर्द यह तेजस् आभा मण्डल के रूप में देखा जा सकता है। महामानवों- ऋषियों के चेहरे पर एक विशेष ज्योति छाई रहती है। इसका प्रभाव क्षेत्र दूर-दूर तक होता है। वे उसके द्वारा दूसरों को प्रभावित कर लेते हैं, आकर्षित एवं सहमत भी। विरोधियों को सहयोगी बना लेना इनके बाँये हाथ का खेल होता है। आक्रमणकारी उनके निकट पहुँचते-पहुँचते हक्का-बक्का हो जाते हैं।

रवीन्द्रनाथ टैगोर को मारने के लिए उनके विरोधियों ने एक किराये का हत्यारा भेजा वह छुरे से आक्रमण करने आया। टैगोर अपने कमरे में अकेले थे। कविता लिखने में व्यस्त थे। आंखें उठाकर देखा तो उस आक्रमणकारी का प्रयोजन समझ गये। कड़क कर कहा- “देखते नहीं मैं कितना जरूरी काम कर रहा हूँ। उस कोने में बैठ जाओ। जब मेरा काम पूरा हो जाय जब अपना काम करना। आक्रमण कारी उनके रौब में आ गया और एक कोने में बैठ गया। वे कविता लिखने में तन्मय हो गये। अब निवृत्त हुए तो सिर उठाकर उस व्यक्ति को अपना काम करने के लिए पुकारा। पर वह तो भयभीत होकर पहले ही गायब हो चुका था।

इस तेजस् को अध्यात्मवादी साधक अपनी खुली आँखों से भी देख सकते हैं और उसका स्तर देखकर किसी के व्यक्तित्व एवं मनोभावों का पता लगा लेते हैं। अब नई वैज्ञानिक खोजों के आधार पर इस तेजोवलय के आधार पर मनुष्य की शारीरिक और मानसिक रुग्णता का पता लगाने और तद्नुरूप उपचार करने लगे हैं। अध्यात्मवादी इसी तेजोवलय को देखकर उसके चिन्तन, चरित्र एवं स्तर का पता लगा लेते हैं।

चेहरे के इर्द-गिर्द विशेष रूप से और समस्त शरीर के आसपास सामान्य रूप से फैले रहने वाले इसे तेजोवलय या आभा-मण्डल को वैज्ञानिक भाषा में ‘औरा’ कहते हैं। यह चेहरे की तरह उँगलियों के पौरों में भी अतिरिक्त मात्रा में पाया गया है। हाथ का स्पर्श करके योगीजन दूसरों को कष्ट मुक्त करते हैं। इस प्रक्रिया के साथ अन्य प्रकार के आशीर्वाद भी देते हैं।

शरीर शास्त्री अब इस ‘औरा’ के सम्बन्ध में तरह-तरह की खोजें कर रहे हैं और ऐसे उपकरण बना रहे हैं जिनसे उसे देख सकना सम्भव हो सके। इस संदर्भ में हार्वर्ट एडल मैन की खोजें प्रख्यात हैं और वे प्रामाणिक भी मानी जाती हैं। उनने अपनी खोजों को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है।

वाल्टर जान किलनर लन्दन के सेंट थामस अस्पतालों में सर्जन थे। उन्होंने अस्पताल के काम से छुट्टी लेकर इलैक्ट्रोथेपी पर काफी खोजबीन की और इसी संदर्भ में “औरा” परीक्षण को एक सशक्त माध्यम पाया।

जर्मन के वैज्ञानिक कार्लवान राइखन वाल ने तथा अमेरिका के डाक्टर एडविन वाविट ने भी इस खोज में बहुत समय लगाया और श्रम किया। उनके प्रयास से न केवल ‘औरा’ का देख सकना सम्भव हुआ वरन् मनुष्य को व्यक्तित्व सम्बन्धी अनेकों जानकारियों का प्रकटीकरण सम्भव बनाया।

डा. किलनर ने ये विधियाँ आविष्कृत की, जिनके आधार पर ‘औरा’ को अधिक अच्छी तरह सरलतापूर्वक देख सकना सम्भव हो सके। इस सम्बन्ध में अपनी खोजों का निष्कर्ष उन्होंने ‘दि ह्यूमन एटमासफियर’ पुस्तक के रूप में विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।

थियोसोफिकल सोसाइटी के मान्य ग्रन्थ “सीक्रेट डॉक्टरिन’ में इस तेजोवलय को “ एथरिक डबल” के रूप में प्रतिपादित किया है। उसमें इसे मनुष्य के सूक्ष्म शरीर का आभास बताया गया है।

हार्वर्ड एडल मेन तो शारीरिक मानसिक रोगियों की जाँच-पड़ताल इस तेजोवलय का निरीक्षण परीक्षण करके किया करते थे। तद्नुसार चिकित्सा करते जो बहुत सफल रही। उनके अतिरिक्त अब अन्य विज्ञानवादी भी औरा की वास्तविकता और उपयोगिता पर सुविस्तृत शोध प्रयास करने में संलग्न हैं।

भौतिक विज्ञान में तेजोवलय की भिन्नता उसमें मिले पाये जाने वाले रंगों के आधार पर करते हैं। जिस प्रकार हर व्यक्ति के चेहरे की बनावट में भिन्नता होती है। उँगलियों के पौरों की लकीरें भी किसी की किसी से नहीं मिलती। उसी प्रकार आभा-मंडल के रंगों की गहराई हलकापन, मिश्रण आदि की भिन्नता रहती है और उस आधार पर व्यक्ति का वर्गीकरण विश्लेषण किया जाता है।

अध्यात्मवाद की एक धारा में मनुष्य के पसीने की गन्ध सूँघ करके भी उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति की जाँच पड़ताल की जाती है। पहने हुए कपड़े में भी यह गंध रहती है। जब तक उसे धोया न गया हो तब तक उसे परीक्षण का माध्यम बनाकर कई योगाभ्यासियों को उपचार करते देखा गया है। यह भी तेजोवलय के साथ जुड़ा होता है। कृत्रिम गंध शरीर पर लगी होने या साबुन आदि से उसे धो डालने के उपरान्त वह प्रभाव समाप्त हो जाता है तब परीक्षण सम्भव नहीं रहता।


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