ध्यान साधना की वैज्ञानिक विवेचना

May 1985

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ध्यानयोग की महत्ता अध्यात्म क्षेत्र में अति महत्वपूर्ण मानी गई है। मनोयोगपूर्वक उत्सुकता के साथ जिसका भी चिन्तन किया जाता है, उसे ध्यान कहते हैं। ध्यान की विशेषता यह है कि मनोवृत्तियां उसी ढांचे में ढल जाती है। उसे प्राप्त करने के लिए भावनाएं काम करती है और प्राप्ति के लिए प्रयास चल पड़ते हैं।

भगवान के ध्यान का भी यही उद्देश्य है कि उनमें मन लगा रहे तो उत्कण्ठा, उत्सुकता उस दिशा में बढ़े और लगे। जो जिस प्रयोजन में तत्पर एवं तन्मय होता है, उसका अन्तराल उसी ढांचे में ढलने लगता है। जो जैसा सोचेगा वह वैसा करेगा और जो जैसा करेगा वह उसी ढाँचे में ढलेगा। भगवान के ध्यान में भी यही सिद्धान्त लागू होता है। ध्यान मानवी प्रयास है जो अपनी अन्तःप्रवृत्तियों को भगवान् के तद्रूप बना देता है।

बरसात के दिनों में हरियाली पर बैठने वाले टिड्डे हरे रंग के होते हैं। पर ग्रीष्म ऋतु में जब घास सूखकर पीली पड़ जाती है तब उस पर बैठने वाले वही टिड्डे हरियाली जैसे रंग के न रहकर काया को पीलेपन में बदल लेते हैं।

मृग के बारे में भी कहा जाता है कि वह झींगुर को पकड़ ले जाता है। वह उसी का गुँजन सुनता और उसी का रूप देखता है फलस्वरूप थोड़े दिनों में उसकी आकृति और प्रकृति तद्रूप बन जाती है। वह कहानी प्रसिद्ध है जिसमें एक सिंह का बच्चा भेड़ों में पलने लगा। उसे सब भेड़ें ही दीखती थी इसलिए वह अपने आप को भी उसी बिरादरी का समझने लगा और उसी प्रकार के रहन-सहन में ढल गया। जब एक सिंह ने उसे उसकी परछाई पानी में दिखाई और अपने समतुल्य होने की बात समझाई तो उसका मन बदल गया और भेड़ों के झुण्ड से हटकर शेरों के समुदाय में जा मिला।

बच्चे सभी एक जैसे होते हैं पर उन्हें जिस वातावरण में पलने का अवसर मिलता वे उसी प्रकार की भाषा बोलने लगते हैं और वैसी ही आदतों के अभ्यस्त हो जाते हैं। कसाइयों के बच्चे आरम्भ से ही काट-फाँस करने लगते हैं और पण्डित विद्वानों के बालक छोटेपन से ही पूजा-पाठ के उपचारों के खेल खेलने लगते हैं। स्वाध्याय और सत्संग की महत्ता इसीलिए बताई गई है कि उस आधार पर व्यक्ति के मस्तिष्क में कल्पना चित्र बनने लगते हैं और प्रवृत्तियों का प्रवाह उसी दिशाधारा में बहने लगता है। ध्यान एक प्रकार का स्वनिर्मित सत्संग है। जिस प्रकृति के लोगों के साथ रहते हुए मनोभूमि बनती है। उसी प्रकार जिस स्तर का इष्ट निर्धारित किया जाय और उसके साथ अपनी अभिरुचि एवं सम्भावना का तानाबाना बुना जाय तो प्रायः उसी स्तर का चिन्तन और चरित्र बनने लगता है। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखते हुए पूजा उपासना में ध्यान को अत्यधिक महत्व दिया गया है। मात्र कर्मकाण्डों की उपेक्षापूर्वक करते रहा जाय तो उसे निरर्थक चिह्न पूजा माना जाता है।

गीता में श्रद्धा की महत्ता का वर्णन करते हुए कहा है-

सत्वानिरुपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारतः। श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छद्धः स एव सः॥

-गीता 17।2

अर्थात्- मान्यता के अनुरूप लोगों की श्रद्धा ढलती है और जिसकी जैसी श्रद्धा है वह वैसा ही बन जाता है। और भी-

यं यः चापि स्मरन् भावं त्यज्ञत्यन्ते कलेवरम्। तं तमेवैति कौन्त्येय सदा तद्भाव भावितः॥ -गीता 8।6

अर्थात्- मनुष्य जिस-जिस भावना का स्मरण करते हुए शरीर त्यागता है वह उसी भाव के अनुरूप गति पाता है।

डाक्टर हेनरी लिंडन हर ने अपनी पुस्तक ‘प्रैक्टिस आफ नेचुरल थेरो प्यूटिक्स’ में मनुष्य के विचारों का उसके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। वे कहते हैं कि महान् व्यक्ति अथवा महान गुणों के साथ एकात्मता स्थापित करने से मनुष्य की अनेकों शारीरिक एवं मानसिक व्यथाऐं दूर हो जाती हैं। शरीर पर मन का असाधारण प्रभाव है।

मनोविज्ञान वेत्ता डा. उपटन सिंकलेयर ने अपने ग्रन्थ ‘मेन्टल रेडियो’ में लिखा है। यदि मनुष्य के मस्तिष्क में उच्चकोटि के विचार विद्यमान रहें तो वह उनका प्रसारण करता रह सकता है और अनेकों के मस्तिष्क को अपने जैसा बना सकता है। साथ ही एक बात और भी है कि संसार में जो श्रेष्ठ विचार कहीं भी किसी के पास भी विद्यमान हैं उन्हें वह अपने लिए आकर्षित करके भण्डार कर सकता है।

डाक्टर मुकर्जी की पुस्तक ‘सिकनेस आफ सिवेलेजेशन’ में लिखा है- सभ्यता पर जो संकट आया हुआ है। उसी को हम चारित्रिक पतन के रूप में देखते हैं। वह सब विचारों के स्तर में गिरावट आ जाने के कारण है। सुख-शान्ति का जमाना हो तो भी उसका श्रेय आदर्शवादी विचारों के बाहुल्य को जायेगा और यदि संसार में संकट एवं विग्रहों की भरमार होती है तो भी उनका कारण जन-मानस के विचारों का स्तर पतनोन्मुख होने के कारण और कुछ नहीं हो सकता।

डाक्टर चार्ल्स जुंग ने फ्रायड के विचारों को काटते हुए कहा है- मनुष्य में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता बाहर से थोपी हुई नहीं है। यह उसका मौलिक गुण है। जब तक वह अपने इस गुण को सावधानी से अपनाये रहता है तब तक स्वयं भी सुखी रहता है और अपने समाज को भी सुखी बनाता है। यह उसके अपने हाथ की बात है कि अपने को गिराये या उठाये। साथ ही अपने समय को शान्तिपूर्ण रखे अथवा विग्रह से भर दे।

आधुनिक मनोविज्ञान के जन्मदाता फ्रायड ने मनुष्य के पास सबसे बड़ी सम्पदा एवं शक्ति विचारणा को कहा है और साथ ही अनेक ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया कि इसी सामर्थ्य का सदुपयोग करते हुए लोग सफलता सम्पन्न एवं अपने साथियों की तुलना में कही अधिक सामर्थ्य सम्पन्न बने हैं। जिसके विचारों में बल है वह बड़ी कठिनाइयों का सामना कर सकता है और प्रतिकूलता की अनुकूलता में बदल सकता है।

डा. यूथेस ने अपनी पुस्तक “साइकोलॉजी आफ रिलीजन” में ऐसे अनेकों उदाहरण दिये हैं जिनसे प्रकट होता है कि मनुष्य की विचारणा जिस भी प्रयोजन में तादात्म्य हो जाती है। उसके मानसिक संस्थान तथा अवयव तद्नुरूप कार्य करने लगते हैं।

ध्यान आध्यात्मिक हो या लौकिक उनमें जिस प्रकार का प्रवाह होगा वे व्यक्तित्व को तद्नुरूप ढालेंगे। यह नहीं हो सकता कि हेय विचारों को मन में ठूंसे रहें और समुन्नत स्तर का बन सके। विचारों का अपना स्वतन्त्र चुंबकत्व है वह सहायक और साधनों को अपने अनुरूप वातावरण में से घसीट लाता है। इस विश्व ब्रह्माण्ड में सब कुछ विद्यमान है। चुनाव करना मनुष्य का काम है कि वह किधर चलना और किस ढाँचे में ढलना चाहता है। इस चुम्बकत्व को जिस भी प्रयोजन के लिए प्रयुक्त किया जायेगा उसी में सफलता मिलेगी।

वैज्ञानिक, साहित्यकार, कलाकार, अपनी आकाँक्षा और तादात्म्यता के अनुरूप अविज्ञात और आश्चर्यजनक वस्तुओं को ढूँढ़ निकालते हैं। इसमें उन्हें कोई अलौकिकता कहीं से हस्तगत नहीं हुई होती। मात्र अभीष्ट के प्रति तन्मयता और उपलब्धि की उत्कृष्ट आकांक्षा ही काम कर रही होती है। इसी सहारे सामान्य मनुष्यों ने सामान्य परिस्थितियों और सामान्य साधनों में ऐसा कुछ ढूंढ़ निकाला है जिसे लोग जादू चमत्कार से बढ़कर मानते हैं।

किस स्तर के विचारों में मनुष्य अपने को तन्मय करे और ध्यान लगावे यह उसकी इच्छा पर निर्भर है। अपना मन न हो तो दूसरों का सिखावन या दबाव कुछ अधिक कारगर सिद्ध नहीं होता।

जो अपने लिए इष्ट हो उसका ढाँचा या स्वरूप खड़ा करना चाहिए और अवकाश के समय में उन्हीं को कार्यान्वित करने की योजना बनाने में संलग्न करना चाहिए।

भगवान का ध्यान भी इसी सिद्धान्त के आधार पर अपना सत्परिणाम प्रस्तुत करता है। भगवान को इतना अवकाश नहीं कि वे किसी की पूजा उपासना या ध्यान धारणा का लेखा जोखा रखे। यह मनुष्य का अपना इच्छित विषय है कि वे भगवान को किन्हीं गुणों का समुच्चय माने और किसी ऐसे रूप की कल्पना करे जिनमें अभीष्ट महानताऐं विद्यमान हो।

भगवान निराकार है। आस्तिकजनों ने अपनी मान्यता के अनुरूप उनकी आकृतियाँ गढ़ी है। उनमें से कोई भी चुनी जा सकती है या और नई गढ़ी जा सकती है। यह प्रयोजन किसी महामानव को अपनी श्रद्धा और तन्मयता के आधार पर भी पूरा हो सकता है।

किन्तु यदि भगवान को ऐसा गुणों वाला माना गया है जो अनुचित या अनैतिक माने जाते हैं तो उनकी भक्ति से लाभ नहीं हानि ही उपलब्ध होगी। कामुक, विलासी स्त्रैण यदि भगवान की कल्पना की गई है तो उस ध्यान से अपने मन में भी वैसी ही हेय प्रवृत्तियां उठेंगी। किसी दो ऐसे देवता को आराध्य बनाया गया है जो जीवों का रक्त माँस खाता-पीता है तो वे दुर्गुण उपास्य के स्वभाव तथा चरित्र में भी प्रवेश करेंगे। इसलिए अच्छा यह है कि भगवान को सद्गुणों का समुच्चय माना जाय और उसके साथ ऐसा इतिहास न जोड़ा जाये जिसमें अवांछनीयता की गन्ध आती हो। इस दृष्टि से प्रकाश पुँज का उदीयमान सूर्य को सदाशयता के प्रतीक रूप में ध्यान करना श्रेष्ठ है। पवित्र नदी बादल जैसे निर्दोष एवं उपकारी तत्वों का भी ध्यान किया जा सकता है। ध्यान के लिए इस प्रकार के प्रतीकों का निर्धारण करना चाहिए और उसके साथ सत्प्रवृत्तियों का आरोपण करना चाहिए। ऐसी देवी देवताओं को आराध्य नहीं बनाना चाहिए जिनकी जीवन गाथा के साथ ऐसे हेय कृत्य जुड़े हुए हों जिन्हें मानव समाज में हेय या अनुचित माना जाता है। ऐसे ध्यान से वे दुर्गुण भी उपासक में बढ़ते हैं जिन्हें इष्ट देव की जीवनचर्या में सम्मिलित माना जाता है। इसकी अपेक्षा तो आदर्शवादी महान मानवों का ध्यान करना अच्छा है जिनने अपने कृत्यों से जन-साधारण के लिए अनुकरणीय मार्गदर्शन किया हो। बुद्ध, गाँधी, ईसा, हनुमान, दधीचि, भागीरथ, हरिश्चन्द्र जैसों को उपास्य बनाया जाय और उनका ध्यान किया जाय तो उसका लाभ भी सन्देहास्पद भगवानों को प्रतीक बनाने की अपेक्षा कहीं अच्छा है।


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