धनवान और बलवान से बड़ा आत्मवान्

May 1985

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जीवन की प्रगति और अवगति पर विचार करते हुए उसे तीन भागों में विभक्त करना होगा। एक बहिरंग जिसे वैभव और ठाट-बाट कहते हैं। अहंकारी अपना ध्यान इसी पर केन्द्रीभूत किये रहते हैं और सफलता असफलता का मूल्याँकन इसी आधार पर करते हैं।

जीवन का दूसरा पक्ष है शरीर, जिससे स्वास्थ्य संबंधित है। शारीरिक भी और मानसिक भी। आये दिन अस्वस्थता के शिकार रहने वाले- खीझते और झल्लाते रहने वाले व्यक्ति सम्पन्न हैं या निर्धन। इसकी सही स्थिति भुक्त भोगी में ही पूछ कर जानी जा सकती है। जिनका पेट ठीक तरह काम नहीं करता- जिन्हें अपच का धीमा-धीमा दर्द होता रहता है। जुकाम बना रहता है। शिर भिन्नता है। नींद पूरी नहीं आती ऐसे व्यक्तियों की धनवानों से तुलना करने पर बाहरी व्यक्ति यही कह सकते हैं कि मालदार को क्या कमी है। बड़ा भाग्यवान है। लक्ष्मी आगे-पीछे फिरती है। दस आदमी रौब मानते हैं। बाहर की आंखें इतना ही देख पाती हैं सो उनका कहना भी ठीक है। पेट की बात, शिर की बात, उन्हें क्या मालूम? उसे समझने के लिए कुछ गहराई तक देखने वाली आंखें चाहिए। साथ ही समीक्षा करने के लिए ऐसी यथार्थवादी बुद्धि चाहिए जो यह निर्णय कर सके कि दोनों में से एक छिन जाय तो किसके बिना काम चल जायेगा। निरोग, बलिष्ठ, गहरी नींद होने वाला, अलमस्त व्यक्ति यदि सम्पत्तिवान न हो तो भी काम चलता रहेगा। बाहर के आदमी कुछ भी कहते रहें पर अपने आप में प्रसन्न रहेगा। किसी से परिचर्या न करनी पड़ेगी। वैद्य डॉक्टरों के दरवाजे चक्कर न लगाना पड़ेगा। बीमार रहने से कमाई में जो हर्ज होता है वह भी न पड़ेगा।

सम्पत्ति की कमी या अधिकता बाहर वालों की आँखों में चकाचौंध उत्पन्न करती है। उससे वे भी प्रभावित होते हैं। संपत्तिशाली भाग्यवान गिनना और रौब मानना उन्हीं का काम है। जहाँ तक निजी जीवन का सम्बन्ध है वह स्वास्थ्य पर निर्भर रहता है। उसे अपनी आंखें देखती हैं, अपनी बुद्धि परखती है। अपनी अनुभूति अनुभव करती है।

इन पंक्तियों में जिन जीवनों का विवेचन हुआ, एक वह जो दूसरों की आँखों में दीखती है और जिससे अहंकार भर की पूर्ति होती है। दूसरा निजी जीवन- शारीरिक जीवन जिसके साथ आरोग्य, दीर्घ जीवन, प्रसन्नता, बलिष्ठता, सुन्दरता आदि विशेषताएँ जुड़ी हुई हैं। दोनों में से किसे महत्व दिया जाय। इसका उत्तर यही हो सकता है कि बाहर वालों की आँखों से देखना हो तो दौलत प्रधान और अपने अनुभव से पूछना हो तो आरोग्य का महत्व है। निरोग रहकर गरीबी स्वीकार की जा सकती है। दौलत से आरोग्य नहीं खरीदा जा सकता पर स्वस्थ आदमी मेहनत मजूरी करके भी सम्पन्नों की बिरादरी में बैठ सकता है।

जीवन का तीसरा पक्ष एक और है- आन्तरिक। आत्मिक। जिसे न दूसरों की आंखें देखती हैं और न अपनी। इसे केवल आत्मा अनुभव करती है। गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता से हर समय अन्तःकरण प्रसन्न रहता है। दूसरे इज्जत करते हैं। विश्वास करते हैं। प्रामाणिक मानते हैं। प्रेरणा ग्रहण करते हैं और सज्जनों में वरिष्ठों में गिनते हैं। ऐसों की मुक्त कण्ठ से सराहना करता है। समय आने पर सहयोग देने में भी पीछे नहीं रहते हैं। यह व्यक्तित्व वाला तीसरा जीवन है। इसके सही होने पर अपना अन्तःकरण सन्तुष्ट, प्रसन्न एवं पुलकित रहता है। आत्म गौरव की अनुभूति होती है। जो परिचित हैं वे भरपूर सम्मान और विश्वास करते हैं। इस स्थिति को अपनी और दूसरों की अनुभूति अनुभव करती है। अब तीनों जीवनों को अलग-अलग करके उनका मूल्याँकन किया जाय। तो प्रतीत होगा, दौलत दूसरों की आँखों को चौंधियाती है। दूसरा जीवन निरोगता युक्त हो सो सन्तोष होता है और चेहरा प्रसन्न रहता है। तीसरा सद्गुणों से- उच्च आदर्शों से ओत-प्रोत जीवन अपनी आत्मा की दृष्टि से वजनदार सिद्ध होता है। इसके बाद जो जितना परिचित एवं घनिष्ठ होता जाता है वह उसका मूल्याँकन करता है। जी खोलकर प्रशंसा करता है और समय आने पर उसके ऊपर अपने को निछावर भी कर देता है।

किसका जीवन सफल या असफल रहेगा। इसका सीधा उत्तर नहीं दिया जा सकता। दूसरों को चकाचौंध में डालने वाली और अपने अहंकार को बढ़ाने वाली दौलत है। यह जादू है जिससे दर्शकों को चकित किया जा सकता है। स्वास्थ्य सच्चा स्वार्थ है। जिसने स्वास्थ्य सिद्धि का सच्चा अर्थ समझा है उसे आरोग्य का महत्व समझना होगा और उसका मूल्य आहार बिहार के संयम तथा उचित परिश्रम के रूप में चुकाना होगा। यह शारीरिक स्वार्थ है। जब तक शरीर है तभी तक आरोग्य का मूल्य है। प्रकृति के नियमानुसार बचपन, जवानी, वृद्धावस्था और मरण का चक्र घूमता है। स्वास्थ्य शाश्वत नहीं है संयमी भी समयानुसार जराजीर्ण होते और मृत्यु के मुख में जाते हैं इसीलिए दूसरे शरीर जीवन को एक सीमा तक स्वास्थ्य सिद्धि तो कह सकते हैं, पर है वह भी अस्थिर। हैजा, हार्ड फेल, ज्वर जैसी बीमारियाँ पहलवानों पर भी चल दौड़ती हैं और देखते-देखते उनका भी कचूमर निकाल देती हैं।

जितनी गहराई में उतरते हैं उतनी ही बहुमूल्य वस्तुऐं पाते हैं। मोती पाने के लिए डुबकी लगानी पड़ती है और हीरा पाने के लिए खान खोदनी पड़ती है। तीसरा आध्यात्मिक जीवन गहराई का अन्तिम चरण है। वह ऐसा है जिसे पाने के उपरान्त उथली परतों वाले दो भी हस्तगत हो जाते हैं। ईमानदारी, जिम्मेदारी, समझदारी और बहादुरी का जीवन जीने वाले को अपेक्षाकृत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस दुनिया में धूर्तता बहुत है। लोग चालाकी बदमाशी के अभ्यस्त हैं। औरों को भी यही करते देखते हैं इसलिए आदर्शवादी पर सहसा विश्वास नहीं करते और उसे आधा मूर्ख समझते हैं या धूर्त। महानता वास्तविक है इस पर विश्वास करने के लिए बीसियों बार परीक्षा ली जाती है और यह कठिनाइयाँ ही परीक्षा होती है कि कोई आदर्शवाद को ईमानदारी से अपना रहा है। इस अवधि में व्यंग उपहास सहने पड़ते हैं। पर जब पूरी अवधि तक मनुष्य अविचल बना रहता है और तपाने तथा कसने के बाद भी खरा निकलता है तो उस सही सोने की इज्जत भी होती है और पूरी कीमत भी मिलती है।

अनैतिक जीवन आत्म प्रवंचना के कारण पग-पग पर आत्म प्रताड़ना सहन करता रहता है और खानपान रहन-सहन सही होने पर भी रुग्णता का शिकार बनता है। मूल कारण बना रहने पर दवा दारु भी काम नहीं करती। इसके विपरीत नीतिवान जीवन जीने वाला रूखा-सूखा खाकर भी निरोग रहता है। परोपकारी सेवाभावी लोग पुण्य प्रयोजनों से असाधारण श्रम करते रहते हैं, पर भावना की शुद्धता के कारण उन पर दुर्बलता हमला नहीं करती। आन्तरिक प्रसन्नता के कारण शरीर की जो क्षति होती है वह सहज ही पूरी होती रहती है। उनका शरीर बल ही नहीं मनोबल भी बढ़ता है। आदर्शवादिता मनुष्य की संकल्प शक्ति बढ़ाती है। उत्कृष्टता में अभिवृद्धि करती है। यह ऐसा बढ़िया टॉनिक है जिससे शारीरिक ही नहीं मानसिक स्वास्थ्य भी बढ़ता रहता है। शरीर बल और मनोबल में- मनोबल की प्रधानता है। मनोबल सम्पन्न परमार्थ जन स्वास्थ्य को गँवाते नहीं वरन् पौष्टिक आहार का- आराम विश्राम का सुयोग जुटाते रहने वालों की अपेक्षा कहीं अधिक निरोग और दीर्घजीवी रहते हैं। जिन्हें केवल स्वास्थ्य बुद्धि की स्वार्थ सिद्धि की चिन्ता है वे उसी सीमा तक सीमित रह जाते हैं।

दौलत की सम्पदा वाला हर घड़ी अहंकार में डूबा रहता है और बड़प्पन जताने के लिए पाखण्ड रचता रहता है। ढोंग बनाने, ठाट-बाट रचने, प्रदर्शन के ढोंग खड़े करने में प्रवंचना का सरंजाम जुटाना पड़ता है। इसमें ढेरों पैसा फिजूल खर्ची में नष्ट होता है। यह न करे तो अमीरी का विज्ञापन कैसे हो? ईमानदारी से आवश्यक खर्च के लिए पैसा जुटाना ही कठिन पड़ता है। जिन्हें नीतिपूर्वक जीवन जीना है उसे औसत भारतीय स्तर का निर्वाह व्यय चलाना होता है। इतना ही परिश्रमपूर्वक कमाया भी जा सकता है। जिसे बहुत धन चाहिए उसे अनुचित मार्गों का अवलम्बन करके इतना जमा करना पड़ेगा जिससे खर्च भी चलता रहे और अमीरी के प्रदर्शन में लगने वाली फिजूल खर्ची की पूर्ति भी होती रहे। ऐसे प्रशंसक किराये के होते हैं उन्हें चमचागिरी की फीस चुकानी पड़ती है। अन्यथा उन्हें बुराई करते बेईमान ठहराते भी क्या देर लगती है। सर्वसाधारण ही तुलना में जो अधिक संग्रह या खर्च करते हैं उनके सम्बन्ध में बेईमानी का आरोप लगाना कठिन नहीं है। भले ही उनने परिश्रम या ईमानदारी से कमाया हो।

अधिक कमाया हो तो उसे पड़ौसियों को ऊँचा उठाने में- समाज की सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने में- असमर्थों को सहारा देने के लिए उपभोग होना चाहिए। जिनमें इतनी उदारता होगी व संग्रह न कर सकेंगे। फिर फिजूल खर्ची में अमीरी के आडम्बर में तो वे खर्च कर ही न सकेंगे। इतने पर भी जिन्हें अपनी प्रशंसा सुननी है, बढ़ाई करानी है उन्हें चमचागिरी की फीस रिश्वती चुकानी ही पड़ेगी। अन्यथा एक भी आदमी बड़ाई करने वाला न मिलेगा।

संसार में बड़े गिने जाने वालों में धनवान, सामर्थ्यवान् और आत्मवान् तीन की ही गणना है। तीनों का महत्व एक से एक का अधिक है। लोगों की उलटी बुद्धि उलटा देखती है और सबसे बड़ा धनवान् उससे छोटा सामर्थ्यवान् सबसे छोटा आत्मवान् को गिनती है। इसीलिए लोग कहते हैं कि ईश्वर भक्ति या आदर्शपालन से क्या फायदा। जिनकी दूरदर्शी विवेक बुद्धि सावधान है वे ऐसा नहीं कह सकते है। वे आत्मवान् को सबसे बड़ा गिनते हैं फलतः यह मानते हैं कि उत्कृष्टता के परिपालन का प्रतिफल सबसे अधिक और सबसे महत्वपूर्ण है। संसार के महामानवों में आत्मवानों की ही गणना है। जो आत्मवान् है वह सबसे बड़ा है और वही सबसे अधिक लाभ में है।

बुद्ध, गाँधी, नेहरू, पटेल, शिवाजी, प्रताप, सुभाष, आदि आत्मवान् रहे हैं। नानक, कबीर, दादू, नामदेव, ज्ञानेश्वर आदि की गणना आत्मवानों में है। उनने जो भी काम हाथ में लिए उसमें सम्पत्ति की आवश्यकता पड़ी तो अधूरी नहीं रही। सहयोग अपेक्षित हुआ तो वह भी आसमान से बरसा। असीम श्रद्धा उन्हें प्राप्त हुई फलतः आरम्भ किये कामों के लिए सम्पदा और सामर्थ्य की कमी नहीं रही। यह उनके पास निज की उपार्जित नहीं थी तो क्यों? इनके विपुल भण्डार उनके पास खिंचते चले आये और जमा हो गये। स्वयं उपार्जन कर दें तो इनके लिए उन्हें कृत्य-कुकृत्य करने पड़ते। अहंकार और दुर्व्यसन पीछे पड़ते फलस्वरूप लोक श्रद्धा का अर्जन न सका होगा। सारा जीवन उन वैभवों के उपार्जन में ही चला जाता फिर वे उन महान कार्यों को करने के लिए क्षमता कहाँ से आती? जिन्हें करने के उपरान्त वे स्वयं धन्य बने और अपनी नाव में बिठा कर असंख्यों को पार गये।

धन बड़ा है पर बड़प्पन से बढ़कर नहीं। गाँधी और बुद्ध को पाकर देश कृत-कृत्य हो गया। ऐसी विभूतियों को कोई खरीदना चाहे तो वे लाख करोड़ में भी नहीं खरीदी जा सकतीं। धन से अपनी सुविधा बढ़ाई जा सकती है। सामर्थ्य से सुखी रहा जा सकता है और छोटे-मोटों पर रौब जमाया जा सकता है। किंतु इनके सहारे कोई महापुरुष नहीं बन सकता। देश, समय और वातावरण को उठाने बदलने में समर्थ नहीं हो सकता। जो जितना बड़ा काम है उसके लिए उतनी ही बड़ी शक्ति चाहिए। आत्म शक्ति सबसे बड़ी है। उसके पीछे-पीछे धन की, सामर्थ्य की, यश की, पुण्य की विभूतियाँ फिरती हैं। गाँधी जी को कोई निर्धन नहीं कहता। वजन से 96 पौण्ड थे तो भी उनकी शक्ति के सामने अंग्रेज सरकार काँप गई थी। बुद्ध ने जो धर्म चक्र प्रवर्तन अभियान चलाया था उसके लिए एक लाख सुयोग्य परिव्राजक उनके इशारों पर चलने और सब कुछ निछावर करने को तैयार हो गये थे। नालन्दा, तक्षशिला, श्रावस्ती, गया जैसे अनेक संस्थानों को चलाने के लिए निरन्तर प्रचुर परिमाण में धन की आवश्यकता पड़ती थी उसे पूरा करने के लिए अशोक जैसे एक नहीं अनेकों सहायक दौड़ पड़े थे। ऐसे उदाहरण बताते हैं कि आत्मवान् होने की सामर्थ्य कितनी बड़ी है। इसके लिए हमें अपनी पारखी बुद्धि जगाने की आवश्यकता है।


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