दूरदर्शिता एक बहुत बड़ा सौभाग्य

May 1985

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दृष्टि स्वच्छ न हो, उसमें विकृतियाँ घुस पड़ें तो लगभग अन्धेपन जैसी दुर्दशा होने लगती है। सर्वथा अन्धे वे हैं जिनके नेत्र गोलक तो यथास्थान होते हैं पर उनसे देख नहीं सकते। चारों ओर अंधेरा छाया रहना। गन्तव्य के सम्बन्ध में लड़की की खटखट, चहल-पहल या पूछताछ के सहारे अनुमान लगाते हैं और उसी के सहारे चलने की दिशा पकड़ते हैं। अनुमान लगाते रहते हैं। वह कभी ठीक होता है कभी गलत। गलत होने पर छोटे-बड़े जोखिमों का सामना करना पड़ता है। ठोकर लगने से काँटा चुभने तक, कुत्ते पर पैर पड़ जाने से लेकर गड्ढे में गिरने तक के संकटों का सामना करना पड़ता है। पूरी अन्धता न होने पर भी कई तरह की कठिनाइयाँ सामने रहती हैं। रतौंधी आने लगे तो रात्रि में कुछ भी नहीं दीखेगा। चौंधियाने पर तेज प्रकाश ऐसी ही मुसीबत पैदा करते हैं। कभी एक की जगह दो दीखते कभी अति निकट का दिखता है, दूर का नहीं। ऐसे लोगों को पढ़ना पड़े तो कागज आँखों से लगाकर ही कुछ पढ़ पाते हैं या मोटे आतिशी शीशे के सहारे कुछ पढ़ने में सफल होते हैं।

यहाँ चर्चा नेत्र गोलकों चर्मचक्षुओं की हो रही है। सर्वथा अंधों को दया का पात्र समझा जाता है और उनकी यथा संभव सहायता करके लोग पुण्य अर्जित करते हैं। विकृत दृष्टि वालों की और भी अधिक दुर्दशा होती है। प्रत्यक्षतः वह भले-चंगे लगते हैं पर अपनी कठिनाई आप ही समझते हैं। न वे अंधों की तरह दया के पात्र होते हैं और न नेत्र रहते हुए भी उनसे यथोचित काम ले पाते हैं।

प्रत्यक्ष नेत्रों की तरह दूसरे परोक्ष नेत्र हैं। उनकी आवश्यकता भी कम नहीं होती। उनके विकार भी कम दुःखदायी नहीं होते। समय के आगे की सोच सकना- कामों के भावी परिणामों का अनुमान लगा पाना इन परोक्ष नेत्रों का ही काम है। वे यदि विकार ग्रस्त हों तो चर्म चक्षुओं से राह देखने जितना ही काम हो पाता है। बाकी जो कुछ रह गया जो उसके सम्बन्ध में भटकाव ही भटकाव रहता है। इसका दुष्परिणाम भी कम नहीं पड़ता।

अभी जो कर रहे हैं उसका निकट भविष्य में या दूर भविष्य में क्या परिणाम होने वाला है। जो यह अनुमान नहीं लगा पाते वे भी आये दिन ठोकरें खाते हैं। थाली में भोजन रखा है। जायकेदार है। जीभ की लोलुपता कहती है कि खाते ही चला जाय। पेट भर गया है तो भी रुका न जाय। ऐसा करने वाले कम नहीं होते। दावतों में आमतौर से यही होता है। पकवानों का लोभ छोड़ते नहीं बनता। अधिक खा जाने पर पेट दर्द करने लगता है। दुखते पेट की तकलीफ मिटाने के लिए दवा-दारु की तलाश में भाग-दौड़ करनी पड़ती है। पैसा भी लगता है। जल्दी काम छोड़कर भी चारपाई पर लोट-पोट करनी पड़ती है। नींद नहीं आती। रात ऊंघते हुए बितानी पड़ती है। कोई पूछता है कि क्या हुआ? तो पकवानों को खराब घी का बना होने जैसे बहाने ढूंढ़ने पड़ते हैं।

यह एक दिन की बात हुई। चटोरपन की आदत पड़ जाय तो दावत न सही-पकवान न सही-घर की बनी चीजों में ही शकर या मिर्च मसाले की मात्रा अधिक डालकर उन्हें भी अधिक मात्रा में खाने लगने की आदत पड़ जाती है। एक दो दिन की बात हो चूरन चटनी से भी काम चले। रोज-रोज वही होना है तो धीरे-धीरे पेट ही खराब हो जाता है। अधिक खाया पचाने के लिए दो पेट तो लगाये नहीं जा सकते। उदर रोग पीछे पड़ जाता है और सड़न की जहरीली गैसें कई तरह की स्थायी बीमारियों को जन्म देती हैं। दूर का न दिखने पर जिस तरह ठोकर लगती है। पैर फिसल जाने से मोच आती है। यह मुसीबत उससे कम कष्टकारक नहीं है।

उठती आयु में घर वालों का आग्रह मन लगाकर पढ़ने का होता है। फीस देते हैं किताबें खरीदते हैं। और जो पैसा चाहिए वह पास में न होने पर भी जहाँ-तहाँ से इन्तजाम करते हैं। पर उन दिनों आवारागर्दी का भूत चढ़ बैठता है। पढ़ने को मिला हुआ पैसा सिनेमा में, मटर गश्ती में उड़ा दिया जाता है। गैर हाजिरी के उलटे-सीधे बहाने बना दिये जाते हैं। न पढ़ने पर फेल होना निश्चित है। झेंप संकोच के कारण अगले वर्ष पड़ने को जी नहीं करता। एकाध वर्ष ऐसे ही गँवाने के बाद पढ़ाई समाप्त ही हो जाती है। घर के काम-काज की कड़ी मेहनत होती नहीं। नौकरी पर कम पढ़े को कोई रखे कहाँ? जहाँ-तहाँ ठोकरें खाते हैं। गलत मार्ग पर भटकते हैं। सारी जिन्दगी पछताते हैं। दूसरे साथी ऊँची पढ़ाई करके जब अफसर बन जाते हैं तब भाग्य को कोसते-कोसते दिन काटते हैं।

छोटी उम्र में विवाह कर लेने और संयम की नियम मर्यादाओं को छोड़ बैठने पर शरीर को उठती उम्र में ही खोखला बना लेते हैं। शरीर काम नहीं देता। बीमारियाँ जड़ जमाने लगती हैं। कई बच्चों के बाप बन जाते हैं। पत्नी भी कमजोरी बीमारी की शिकार बनी, कलपती रहती है। मित्र मण्डली जब खेलों में इनाम जीतकर लाती है तब अपनी कमर दर्द करती है और आये दिन जुकाम बना रहता है। इन लोगों को क्या कहा जाय? अदूरदर्शिता अपनाकर अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारते हैं। इनकी आंखें देखने से सही होने पर भी परखने पर अदूरदर्शिता की बीमारी से घिरा हुआ पाया जायेगा।

उद्योग धंधों में दिलचस्पी लेकर लोग व्यवसाय बुद्धि पैनी करते हैं। कमाने के, बचाने के तौर-तरीके सीखते हैं। जैसे लोगों में उठना-बैठना होता है, उसके तौर-तरीके समझ में आते हैं। फलतः पूँजी न होने पर भी, व्यवहारिक कुशलता के सहारे लोग व्यवसाय बुद्धि जगा लेते हैं। पैसे कमाते हैं और साथियों को भी सहारा देकर कहीं से कहीं आगे बढ़ा ले जाते हैं।

संगीतकार, कलाकार, साहित्यकार आदि विशेषताएँ कोई जन्मजात रूप से सीखकर नहीं आता। इसके लिए किसी को स्कूल कालेज में भी भर्ती नहीं होना पड़ता। अपनी पैनी अभिरुचि साधन और अवसर तलाशती रहती है। दस जगह ढूंढ़ खोज करने पर एक जगह सहयोग भी मिलने लगता है और अवसर भी। दूसरे लोग जब चमत्कारी प्रतिभा देखते हैं तो आश्चर्य से चकित रह जाते हैं। पूछते हैं यह सौभाग्य कैसे मिला? कोई ग्रह दशा को अनुकूलता भी बता सकते हैं। भाग्योदय, पूर्व जन्मों का पुण्य फल आदि कुछ भी कहा जा सकता है। पर बात वास्तव में इतनी भर होती है कि किसी काम की ओर सच्चे मन में लगन लगी। हर समय अवसर ढूंढ़ने का ध्यान रहा। निराशा हाथ लगने पर भी प्रयास छोड़ा नहीं। उतावली नहीं बरती, हिम्मत नहीं छोड़ी, खोजने वाले को देर सवेर में रास्ता मिल गया और वह उत्कर्ष हाथ लग गया जिसके लिए दूसरे लोग तरसते रहते हैं।

जीवन सम्पदा सबको प्रायः समान स्तर ही प्राप्त हुई है। जो इसका मूल्य समझते हैं वे इसके अध्ययन का श्रेष्ठतम उपाय सोचते हैं। जो सोचते हैं उसे खोजते हैं और जो खोजा उसे अपनाते हैं। ऐसे ही लोग महामानवों में गिने जाते हैं। ऐसी कार्य पद्धति अपनाते हैं जिसका अनुकरण करके असंख्यों व्यक्ति धन्य बनते हैं। यह वही लोग हैं जिनने दूर का देखा है। भविष्य को उज्ज्वल बनाने वाला खेत बोया है। जिसने बोया है उसने काटा है और कोठे भरकर मालामाल बना है।

दूसरे अदूरदर्शी हैं जो जीवन को कूड़े करकट की तरह समझते हैं। हीरा हाथ लगने पर भी उसे काँच समझते हैं और कौड़ी मोल बेच देते हैं। इन्हें अदूरदर्शी कहा जायेगा। जो भविष्य के लिए सुन्दर सपने नहीं देखता। भावी जीवन को शानदार बनाने के लिए जो कीमत चुकानी चाहिए उसे नहीं चुकाते। जिन्हें सिर्फ आज दिखता है और उससे हल्का फुल्का बिता देने की इच्छा रखते हैं। वे आते हैं, रोटी खाते हैं, दिन गुजारते हैं और ज्यों-त्यों करके सांसें पूरी कर लेते हैं।

अन्धा होना दुर्भाग्य है। अन्धे दया के पात्र समझे जाते हैं पर उन्हें क्या कहा जाय जिनके नेत्र गोलक तो वहीं हैं पर दूरदर्शी आंखें एक प्रकार से गड़बड़ा गई हैं। असल में नाक के पास वाली आँखों का उतना महत्व नहीं है ये तो पशु पक्षियों के भी होता है। मनुष्य की विशेष आंखें वे हैं जिनके सहारे वह दूरदर्शी कहलाता है और बुरी सम्भावना से बचकर उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करता है। ये आँखें जिसकी सही हैं समझना चाहिए वही सौभाग्यवान है।


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