अपनों से अपनी बात- ‘हीरक जयंती’ शानदार स्तर की मनाई जाय

May 1985

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महत्वपूर्ण प्रयासों के 25 वें वर्ष में रजत जयन्ती, पचासवें वर्ष में स्वर्ण जयन्ती, पचहत्तर वर्ष में हीरक जयन्ती और सौ वर्ष में शताब्दी मनाये जाने की परम्परा है। लोकाचार में विवाह के साठ वर्ष पूरे होने पर हीरक जयंती मनाते हैं पर गुरुदेव का गठबन्धन अपने गुरुदेव से हुए साठ वर्ष पूरे होने के कारण इस वर्ष को ही हीरक जयन्ती वर्ष माना जा रहा है। अन्यत्र यह आयोजन हर्षोत्सवों के रूप में मनाये जाते हैं, पर अपनी दिशा धारा ऐसी है जिसमें उत्साह उत्पादन करने वाले उन कार्यक्रमों की आवश्यकता है, जिससे लोकरंजन होता है और जन साधारण को तद्विषयक जानकारी मिलती है। उथले स्तर पर यह भी कुछ न कुछ उपयोगी ही पड़ता है पर जिस लक्ष्य की ओर अपनी यात्रा चल रही है उसमें व्यक्तिगत साहस, पौरुष और पराक्रम की आवश्यकता रहेगी। यदि हीरक जयन्ती वस्तुतः मनानी हो तो हम सबको आत्म-निरीक्षण और आत्म-निर्माण के प्रयत्न करने होंगे साथ ही लक्ष्य की दिशा में तीर की तरह सनसनाते हुए बढ़ना होगा। यह कार्य अनख आलस्य अपनाने और बेगार भुगतने की चिन्ह पूजा करने से बन पड़ता सम्भव नहीं।

गुरुदेव के स्थूल शरीर की शताब्दी नहीं मन सकती। यह हीरक जयन्ती उनके संदर्भ में अन्तिम उत्सव है। उनने स्वयं को बड़ी समस्या सुलझाने के लिए नियोजित कर दिया है। वायु प्रदूषण, वातावरण और सर्वभक्षी महायुद्ध की विभीषिकाऐं सामने हैं। व्यक्ति का चिन्तन और चरित्र अधोगामी हो रहा है। इस सबके फलस्वरूप भविष्य के भयंकर और अन्धकारमय हो जाने में कोई सन्देह नहीं रह जाता। ऐसे प्रवाह को उलटना-उलटकर उलटे को सीधा करना- असामान्य संकल्प है। 500 करोड़ मनुष्यों की नियति को तमिस्रा से आलोक की ओर घसीट ले जाना सामान्य कार्य नहीं है। असामान्य प्रयास असामान्य व्यक्तियों से ही बन पड़ते हैं। इस हेतु किसी अर्जुन का गाण्डीव संधान ही काम दे सकता है। व्यापक अन्धकार से निपटने की प्रतिज्ञा कोई सविता का अंशधर ही कर सकता है। ऐसी प्रतिज्ञा जिसे पूरी करने के लिए अपना अपने महान आधार का आस्तित्व बाजी पर लगा दिया गया है।

विनाश की सम्भावनाओं को हर धर्म के शास्त्रों और आप्त पुरुषों ने व्यक्त किया है। भविष्यदर्शी- सूक्ष्मचेता भी एक स्वर से यही कहते सुने जा रहे हैं। परिस्थितियोँ की प्रतिक्रिया का मूल्याँकन करने वाले महा-मनीषियों ने भी अगले दिनों विषम सम्भावनाओं की अभिव्यक्ति की है। यह सब निराधार नहीं है। इनके पीछे तथ्य है और वे तथ्य ऐसे हैं जिनने समस्त संसार को आशंकित और आतंकित कर रखा है। कोई भी इन्हें निरर्थक कल्पना नहीं मानता वरन् उन्हें प्रत्यक्ष देखता है।

इन सम्भावनाओं को उद्यत देने की बात कहना सहज हो सकती है पर उसे कर दिखाना ऐसा कठिन कार्य है जिसकी तुलना में गोवर्धन उठाने, समुद्र लाँघने जैसी उपासनाऐं भी छोटी पड़ती हैं। यह रोकना एकाँगी बात हुई। दूसरा कार्य इसका पूरक “नव सृजन” रह जाता है। मात्र अशुभ का निराकरण हो और शुभ का संस्थापन न हो सके तो तो बात सर्वथा अधूरी रह जाती है। आसुरी उपद्रवों के निराकरण के साथ ही रामराज्य की स्थापना मिला देने से ही एक पूरी बात बनी थी। अपने लक्ष्य के भी यह दानों की पहलू हैं। सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जो इस प्रक्रिया को पूरा करने का मात्र साहस ही नहीं दिखाता वरन् उसे पूरा कर दिखाने का संकल्प पूर्वक आश्वासन भी देता है। उसे कितनी दूर दृष्टि अपनानी होगी और प्रतिज्ञा पूर्ति के लिए कितनी कठोर तपस्या करनी होगी। इसकी झाँकी भागीरथ और दधीचि जैसों के प्रयासों का स्वरूप दृष्टि के सामने रखकर ही अनुमान लगा सकना सम्भव हो सकता है।

इस हीरक जयन्ती वर्ष में सन् 1985 में गुरुदेव कितनी अधिक तत्परता और निष्ठा के साथ अपने आपको तपा रहे हैं, इसकी झाँकी उन्हें ही मिलती है जो उनके अत्यधिक संपर्क में हैं। गुरुदेव का 75 वाँ वर्ष उनकी अग्नि परीक्षा का वर्ष है। हर्षोत्सव में सम्मिलित होने या स्वागत सत्कार कराने का नहीं।

इन दिनों भी उनने प्रज्ञा परिजनों की उपेक्षा नहीं की है। न उनकी ओर से मुंह मोड़ा है, न उपेक्षा दिखाई है। उनकी ओर भी उनका उतना ही ध्यान है, जितना आकाश में उड़ती चिड़िया का अपने घोंसले के अण्डे बच्चों के प्रति होता है। क्योंकि वे उन्हें अपने अंग अवयवों का समुदाय मानते हैं। शरीर किसी गेंद का नाम नहीं है वरन् उसमें ज्ञानेन्द्रियों कर्मेंद्रियों का समुदाय ही नहीं, मस्तिष्क, पेट आदि अदृश्य अवयवों का भी एक बड़ा समूह होता है। जीवकोषों और ऊतकों, तन्तुओं के समुदाय से वह विनिर्मित होता है। इन सब घटकों की गणना की जाय तो वह लाखों करोड़ों में जा पहुँचती है। उन सबके बीच सघन सहयोग और अनुशासन होता है। यदि वह न रहे तो शरीर का सीरा जा बिखरने में देर न लगे। काया अपने घटकों का पोषण करती है और घटक मिल जुलकर काया का। यदि वे यह तब न करें तो जीवन का अन्त हुआ ही समझा जा सकता है। अस्तु यह भी तथ्य है कि गुरुदेव जिस समर्थता के आधार पर बलि के तीन लोकों का राज्य मापने जैसे वामन के कदम उठा रहे हैं उसका सुदृढ़ बनाये रहना भी आवश्यक है। इस आवश्यकता को यथावत् जुटाये रहने से उनका ध्यान रत्ती भर भी विरत नहीं होता है।

यह ठीक है कि उनकी मौन एकान्त साधना के कारण हर किसी का मिलना-जुलना-भेंट परामर्श करना सम्भव नहीं रहा। पर इससे मनोविनोद में-नेत्र रंजन में-समय क्षेप में कमी आने के अतिरिक्त और कोई कमी नहीं हुई। इससे किसी की कुछ हानि नहीं हुई, न आगे होनी है। निकटवर्ती-साथी संगी लाभदायक होते हों दूर रहने वाले व्यर्थ सिद्ध होते हों, ऐसी भी कोई बात नहीं है। जुएं, खटमल, वस्त्र और बिस्तरों में चिपके रहते हैं। चूहे, दीमक, मच्छर, मक्खी, घर में ही घुसे रहते हैं। सर्प, बिच्छू, छिपकली भी घर आकर ही दर्शन देते रहते हैं पर उनसे किसी का कुछ बनता नहीं। सूर्य, चंद्र दूर हैं, पवन अदृश्य है, तो भी उनकी उपयोगिता कम नहीं। गुरुदेव के प्रत्यक्ष सान्निध्य संपर्क में कटौती हो जाने से किसी को भी न उपेक्षा का अनुभव करना चाहिए न घाटे का। माता अपने पेट में रहने वाले बच्चे को जब अपना रक्त माँस देकर पोषण करती रह सकती है तो अपने-अपने स्थानों पर रहते हुए भी परिजनों को ऐसा अनुभव नहीं होना चाहिए कि विलगाव का व्यवधान उपस्थित हो गया। सच तो यह है कि सूक्ष्म क्षमता ही अदृश्य होते हुए भी दृश्य पदार्थों की तुलना में कहीं अधिक समर्थ और सहयोगी हो सकती है। इन दिनों उन्हें अपना घनिष्ठ माने वालों में से प्रत्येक को यह अनुभूति होनी चाहिए कि वे हमारे बहिरंग से दूर दिखते हुए भी अन्तरंग के साथ अत्यधिक घनिष्ठता के साथ लिपट गये हैं। न केवल लिपट गये हैं वरन् कुछ कहते भी हैं। यह कथन झकझोरने और कचोटने जैसे स्तर का भी हो सकता है।

हिमालय अवस्थित मार्गदर्शक सत्ता गुरुदेव के साथ सूक्ष्म शरीर से ही अपने अनुग्रह, आलोक, साहस और साधनों की कमी न पड़ने देने का पूरा-पूरा ध्यान रखती रही है। समीपता और नेत्र रंजन का अभाव दिखने पर भी उन्हें इस कारण किसी प्रकार का घाटा नहीं रहता। इसके विपरीत कितने ही कर्मचारियों और तथाकथित मित्र भक्तों से उन्हें समय-समय पर भारी आघात लगते रहे हैं। इस सब पर दृष्टिपात करने के किसी को यह अनुभव नहीं करना चाहिए कि उनकी उपेक्षा हुई या कथनोपकथन से प्राप्त हो सकने वाले लाभों में कटौती हो गई। वस्तुस्थिति ठीक उलटी है। घर रहने वाला आलसी जितना उपयोगी हो सकता है उसकी तुलना में दूर देश जाकर कुछ उपार्जन करने वाला और परिवार पोषण के लिए भेजते रहने वाला अधिक उपयोगी एवं सम्मानास्पद सिद्ध होता है। अभी भी उन्होंने संपर्क निर्देश हेतु जो माध्यम अपनाया है, वह समय की आवश्यकता के कारण ही हो सकता है, अगले दिनों उसकी भी आवश्यकता न रहे। गुरुदेव की वर्तमान साधना के सम्बन्ध में प्रत्येक विचारशील परिजन को दृष्टि से सोचना चाहिए। दर्शन करने या कराने में अनुग्रह होने की बात सोचना बाल विनोद के अतिरिक्त वस्तुतः और कुछ है नहीं। उनको देखने के स्थान पर उनकी कही पर चलना कहीं अधिक महत्वपूर्ण एवं चमत्कारी है, इसे परिजन इन दिनों अनुभव करते रह सकते हैं।

इस हीरक जयन्ती वर्ष में- गुरुदेव की तत्परता, तन्मयता, व्यवस्था एवं तपश्चर्या का स्तर बहुत अधिक बढ़ गया है इसलिए हर परिजन से उनकी घनिष्ठता और भी अधिक सघन हो गयी है। दर्शन नहीं हो रहे हैं इसका तात्पर्य यह नहीं हैं “कि वे अपने को कटा हुआ समझें या अपने कर्त्तव्य उत्तरदायित्वों की इसलिए उपेक्षा करें कि उनकी प्रत्यक्ष मनुहार नहीं की गई। उनके कान में अलग से कुछ नहीं कहा गया, उन्हें कुछ अतिरिक्त काम नहीं सौंपा गया। निवेदन एवं निर्देशन को अब अन्तर में टटोल कर खोजना चाहिए और उसे आत्मा की पुकार में घुला हुआ अनुभव करना चाहिए।

स्मरण रहे कि जैसे पौधों को जड़ों का रस ही नहीं ऊपर में हवा और धूप भी चाहिए। उनके द्वारा हमें कुछ मिले, इस इच्छा में कुछ अनौचित्य नहीं है। पर फल फूल प्राप्त करने के लिए पौधे में खाद-पानी की व्यवस्था भी तो करनी होगी। एक हाथ से ताली नहीं बजती, एक पहिये की गाड़ी नहीं चलती। आदान-प्रदान के सिद्धान्त को हमें कसकर गाँठ बाँध लेना चाहिए। गुरुदेव और उनका परिवार मिलकर एक इकाई बनते हैं। इस संयोग सुयोग से ही उनकी समग्र क्षमता बनती है। अन्यथा वे एकाकी रह जाते हैं और जिस प्रकार साथी बैल के बैठ जाने पर पूरी गाड़ी का वजन एक बैल को ही खींचना पड़ता है वैसा ही उनके सम्बन्ध में घटित होता है।

हिमालय क्षेत्र की बरसने वाली अनुकम्पा उस कल्प-वृक्ष के लिए ऊपर से बरसने वाली पवन और धूप के सदृश है। पर जिस पात्रता के आधार पर वे यह अनुग्रह प्राप्त करते हैं वह उनकी नन्हीं-नन्हीं और सुदूर क्षेत्र तक जमीन के भीतर फैली हुई जड़ों से ही उत्पन्न होती है। यदि जड़े जमीन रहने और विज्ञापित ने होने के कारण अपने कार्य को महत्वहीन समझें तो अनर्थ हो जायेगा। पेड़ का तना सूखेगा और पत्ते झड़ जायेंगे। इस स्थिति में एक हाथ से चप्पू थामकर नाव खींचने वाले मल्लाह पर जितना दबाव पड़ता है उतना ही गुरुदेव पर भी पड़ेगा। काम तो एक हाथ का-एक पैर का आदमी भी किसी प्रकार करता है, पर उसका कार्य कितना कठिन और कितना धीमा होता है इसे सभी जानते हैं। हम सब गुरुदेव की उठाई जिम्मेदारी में ग्वाल-बालों की तरह-रीछ-वानरों की तरह साझीदार रहें तो ही शान और शोभा है। हाथ सिकोड़ लेने पर भी नाव तो किनारे लगेगी पर उसे श्रेय से वंचित रहना पड़ेगा जो अर्जुन और हनुमान को सहज ही उपलब्ध हो गया होगा।

लाभ और हानि का गणित हमें नये आध्यात्मिक सिद्धान्तों के आधार पर सीखना होगा। भौतिक जगत में किसी भी प्रकार उपलब्धियां हस्तगत कर लेने का चातुर्य भी सफल होता है, पर अध्यात्म जगत में बोने और काटने के अतिरिक्त और कोई विद्या काम नहीं करती। इस क्षेत्र में गहरे तालाब ही बादलों की अनुकम्पा का लाभ लेते हैं। तालाब यदि अपनी मिट्टी बाहर फेंकने की उदारता न अपनायें तो उन्हें भी समतल भूमि की तरह प्रचण्ड वर्षा होने पर भी नाम मात्र को नमी हाथ लगेगी। गुरुदेव के 75 वर्ष को 75 पन्ने की पुस्तक समझा जा सकता है। इसे यदि ध्यानपूर्वक पढ़ा जाय तो उनकी विभूतियों को ‘‘बोया-काटा” के आधार पर खरीदा गया ही समझा जा सकता है। हम सभी खरीदने का सिद्धांत अपनायें। खजाना खोदने, लाटरी भुनाने या याचना से दौलत बटोरने की बात न सोंचे। वह भ्रम मात्र है।

सच्चा स्वार्थ परमार्थ ही है। इस तथ्य को गुरुदेव के जीवन संदर्भ में प्रस्तुत 75 पृष्ठो में से कुरेद कर भली-भाँति समझा जा सकता है। उन्हें इतनी महानता की उपलब्धि परमार्थ प्रयोजनों में अपने को खपा देने के कारण ही हस्तगत हुई हैं। उनके घर कुटुम्ब के लोग- और सहपाठी गण उसी स्थान पर रहे जिसमें उनके पूर्वज किसी प्रकार निर्वाह करते चले आ रहे थे। पर गुरुदेव जमीन से उछलकर आसमान तक छा गये और अंतर्ग्रही यानों की तरह रहस्य भरे अन्तरिक्ष में द्रुतगति से परिभ्रमण करने लगे। यही उनकी विरासत है। यही वसीयत जो भी उनके आत्मीय होने का अनुभव करते हैं उन्हें अनुकरण की बात सोचनी चाहिए। वन्दन स्तवन से कुछ बनता नहीं है। विनिर्मित राजमार्ग पर चलने का साहस चले का साहस जुटाया जाना चाहिए। धीमे या द्रुतगति से चलना उसी मार्ग पर चाहिए जो उन्होंने कथनी से नहीं करनी के सहारे सीधी, सरल और सुनिश्चित स्तर का विनिर्मित किया है।

रजत जयन्ती, स्वर्ण जयन्ती गुरुदेव की नहीं मनाई गई। शताब्दी मनाये जाने की कोई सम्भावना नहीं। क्योंकि उनके लिए अन्यत्र दूसरे भी बड़े काम प्रतीक्षा कर रहे हैं। ट्रान्सफर होने पर भी “रिलीव” होने में कुछ समय लग जाता है। इतना ही कार्यकाल उनके स्थूल शरीर का शेष है। इसके उपरान्त वे अपने पाँच साथियों समेत इस विश्व ब्रह्माण्ड की अधिक उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाने में अपनी क्रियाशीलता नियोजित करेंगे। वे कब तक हमारे बीच हैं इस सम्बन्ध में कुछ भी निश्चित रूप से कहना कठिन है। उनकी उपस्थिति में मात्र हीरक जयन्ती ही मन रही है। इस अदृश्य समारोह में किसने कितना उत्साह प्रकट किया, कितनी आत्मीयता और भाव श्रद्धा का परिचय दिया। इसका अवसर इसी बार है। नितान्त इन्हीं दिनों दिशा मिलने और चिन्तन करने में बहुत समय चला गया। इसी धुरी पर घूमते रहने से रहा बचा समय भी चला जायेगा। अब कुछ करने की बात है। यही इस अवसर पर प्रस्तुत श्रद्धाँजलि का स्वरूप हो सकता है। गुरुदेव ने अपने मार्गदर्शक के निर्देशन पर न अनावश्यक सोच-विचार किया है न अपनी इच्छा से योजनाऐं बनाई हैं। अनुशासन का निर्वाह भर किया है। यह प्रक्रिया अपनाकर उनने जो खोया है उससे हजार गुना पाया है। अध्यात्म तत्वज्ञान का यही गणित है। इसे अपनाया जाना चाहिए और उसी आधार पर कदम उठाने का साहस जुटा जाना चाहिए। हीरक जयंती पर किसकी श्रद्धांजलि अभिव्यक्ति, कितनी बड़ी एवं मूल्यवान रही इसका मूल्याँकन इस आधार पर किया जायेगा कि किसने अपने कदम निवेदन एवं निर्देशन को सुनने, समझने एवं क्रियान्वित करने के लिए उठाये। उनके लिए कितना साहस एकत्रित किया और कितना आदर्श उपस्थित किया, जिसका दूसरे अनुकरण कर सकें। जिससे अपने को आत्मिक तृप्ति, तुष्टि एवं शान्ति का लाभ मिल सके, कहने लायक सफलताऐं विभूतियाँ बिना बुलाये ही चरण चूम सकें।

हीरक जयन्ती धूमधाम से मनाये जाने का उत्साह सर्वत्र है। पर उसे ओछे एवं खर्चीले प्रदर्शन के रूप में नहीं, हर परिजन को अपने व्यक्तित्व एवं कर्तव्य में उत्कृष्टता का अधिकाधिक समावेश करते हुए प्रस्तुत करना चाहिए।


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