चिकित्सा पद्धतियाँ अनेकों प्रचलित हैं पर जैसा चमत्कार अध्यात्म चिकित्सा का देखा गया है उतना और किसी का नहीं।
स्विट्जरलैण्ड के डाक्टर वाल्टर हैस को नोबेल पुरस्कार उनकी अवचेतन मानसिक क्षमता सम्बन्धी खोजों के उपलब्ध में मिला था। अचेतन मन द्वारा शरीर की क्रिया-प्रक्रियाओं के संचालन सम्बन्धी जानकारी तो पहले से भी उपलब्ध थी। पर उन्होंने संकल्प बल द्वारा अवचेतन की क्षमता को उत्तेजित करके रोग निवारण के सम्बन्ध में प्रयोग करने की एक नई शैली का विकास किया है- नाम दिया है उसका श्रद्धा चिकित्सा (फेथ हीलिंग)।
इस प्रयोग में रोगी को अपने ध्यान और विश्वास का एकीकरण करना पड़ता है और रुग्ण अवयव पर शरीर की अन्तरंग शक्तियों का प्रहार एवं समाधान किये जाने पर मानसिक क्षमता को एकाग्र करने के लिए कहा जाता है। रक्त के श्वेत कण सशस्त्र घुड़सवारों की तरह रोग कीटाणुओं पर हमला करते हैं और उन्हें कुचल-मसलकर रख देते हैं। दूसरी कल्पना यह करनी पड़ती है कि शरीरगत विद्युत शक्ति-जीवनी शक्ति के रूप में प्रखर होती है और पीड़ित अवयव में क्षति हो चुकी है उसे संजीवनी बूटी की तरह पूर्ण करती है। इन पद्धति को किसी भी रोग में कोई भी पीड़ित प्रयोग कर सकता है। लाभ का अनुपात उस क्रम से चल पड़ेगा जितनी, संकल्प शक्ति निश्चयात्मक होगी और ध्यान में एकाग्रता एवं विश्वास भावना सम्मिलित रहेगी। इस प्रयोग से उनने कितने ही रोगियों को लाभान्वित किया है।
मनःचिकित्सक पेट्रिया नोरेस ने इस सिद्धान्त के आधार पर अपना एक अस्पताल ही विनिर्मित किया है। उसमें वे परामर्श देते हैं और इस विधि का अपने सामने अभ्यास कराते हैं। स्वयं उस कल्पना चित्र की रूपरेखा बताते जाते हैं और रोगी से कहते हैं कि वे पूरे विश्वास के साथ इस अनुभूति को कार्यान्वित करें। इस प्रक्रिया से श्रद्धालु स्तर के रोगी कठिन से कठिन रोगों से मुक्ति पा लेते हैं। कठिनाई उन्हें होती है जो श्रद्धा का महत्व नहीं समझते और मानसिक क्षमता का उपहास उड़ाते हैं।
इस सम्बन्ध में संसार में अन्यान्य मनःचिकित्सक अपने प्रयोगों में अधिकाधिक सफलता प्राप्त कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह पुरातन मैस्मरेजम हिप्नोटिज्म पद्धति का ही विकसित स्वरूप है। उस प्रक्रिया में चिकित्सक को अपने हस्त संचालक एवं नेत्रों को वेधक दृष्टि का चमत्कारी माहात्म्य समझाना पड़ता था। उन रोगियों के उदाहरण प्रस्तुत करने पड़ते थे जो इस पद्धति के आधार पर अच्छे हो चुके हैं। इस आधार पर वे रोगी में विश्वास उत्पन्न करते थे और विकसित विश्वास चिकित्सक के उपचार के सहयोग में एक समर्थ क्षमता उत्पन्न करता था। उसी आधार पर रोगी कष्ट मुक्त होते थे।
इससे पूर्व ‘क्रिश्चियन हीलिंग’ के नाम पर पादरी लोग महाप्रभु यीशु से प्रार्थना करने के लिए कहते थे और अभिमन्त्रित जल पिलाते थे। इस आधार पर रोगी बिना औषधि के भी अच्छे हो जाते थे। ईसाई धर्म के विस्तार में यह आधार एक अच्छी पद्धति सिद्ध हुआ था।
रोग के अस्पतालों में डाक्टरी चिकित्सा के साथ-साथ इस श्रद्धा चिकित्सा का उपयोग किया जाता है। डॉक्टर जब अपने उपचार कार्य को पूरा कर चूकते हैं तब उसके उपरान्त पादरी का आगमन होता है। उनका कहना होता है कि महाप्रभु यीशु ने अपने जीवन काल में अनेक असाध्य रोगियों को अच्छा किया था। उनका शरीर न रहने पर भी प्रार्थना करने वालों के पास उनकी आत्मा पहुँचती है और कष्ट मुक्ति में सहायता करती है।
देखा गया है कि जो रोगी इस पद्धति को भी अपनाते हैं, वे अपने साथियों की तुलना में जल्दी अच्छे होते हैं। प्रार्थना उनकी आशा को जगाती है कि उस उत्साह में उनकी जीवनी शक्ति अपेक्षाकृत अधिक काम करने लगती है। फलतः उन्हें दुहरा लाभ होता है।
शारीरिक क्षेत्र में अचेतन मन की कार्य पद्धति क्या है? इसका आरम्भिक विवरण समझ लेने पर यह अगली बात सहज समझ में आ जाती है कि ओटो नामस नर्ब्स सिस्टम (स्वायत्त तन्त्रिका निकायकी सिंपथेटिक ब्राँच)। अनुकम्पी शाखा। किस प्रकार शरीर की स्वसंचालित प्रणाली का संचालन करती है। उदर तन्त्र को कन्ट्रोल करने वाली नेरिपाइन फ्राइन एक प्रेरक रसायन छोड़ती है। वह न्यूरोनों तक मस्तिष्कीय संदेश ले जाता है। इसी प्रकार तंत्रिका कोशिका तक उत्तेजना पहुँचती है और हारमोनों का प्रभाव अभीष्ट हलचलें उत्पन्न करता है।
इसके साथ ही हाइपोथैल्मस अपना काम करना आरम्भ कर देता है और अभीष्ट क्षेत्रों में आवश्यक हलचलें उत्पन्न करता है। इस कार्य में बायोफील्ड वैक (जैव प्रति संभरण) की एक विशेष भूमिका होती है। इसी अनैच्छिक क्रिया-पद्धति में जब रोग निवारण के लिए संलग्न करने हेतु इच्छ शक्ति का प्रयोग किया जाता है तो उसकी प्रतिक्रिया वैसी ही होती है जैसी उत्तेजन रसायनों के इन्जेक्शन लगाकर उत्पन्न की जाती है।
कल्पना सृष्टि के चमत्कार असाधारण हैं। ध्यान योग की समूची प्रक्रिया इसी आधार पर चलती है। कई योगी हृदय की धड़कन में, रक्त प्रवाह में असाधारण हेर-फेर कर लेते हैं। समाधि स्थिति में लगभग मरणासन्न स्थिति तक पहुँच जाते हैं। प्राणायामों में कई ऐसे हैं जो श्वास-प्रश्वास क्रिया एवं रक्तगत उत्तेजना को असाधारण रूप में बढ़ा लेते हैं। इस आँधी-तूफान में रोगों का विजातीय द्रव्य उड़कर कहीं से कहीं चला जाता है। इस प्रवाह में बहते हुए कष्टकारण-वायरेस-बहकर कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं और उनका समुदाय छिन्न-भिन्न होकर क्रिया-हीन होने लगता है। रोग निवारण के लिए यह स्थिति असाधारण रूप से उपयोगी मानी गई है।
यह सम्भावना कितनी वास्तविक है। इसे तत् सम्बन्धी उपकरण से भली प्रकार जाना और जाँचा जा सकता है। इस इमेजिंग पद्धति का प्रयोग वाशिंगटन विश्व विद्यालय के चिकित्सा विभाग द्वारा किया गया है। और कैन्सर सरीखे ढीठ रोगों में भी लाभदायक पाया गया है।
योगी ताँत्रिक अपने प्रयोगों में देवी देवताओं को माध्यम बनाते हैं और रोगी को विश्वास दिलाते हैं कि उन्हें किसी दिव्य शक्ति का अनुग्रह उपलब्ध हो रहा है। रोगी का विश्वास जितना गहरा और घनीभूत होता है उसी आधार पर उन्हें लाभ भी आश्चर्यजनक रीति से होने लगता है। भूत प्रेतों के आक्रमण से लेकर उसके निवारण तक की कार्य पद्धति में इसी विश्वास प्रक्रिया की महती भूमिका होती है। झाड़-फूँक और मारण मोहन, उच्चाटन का भारत में चिरकाल से प्रयोग होता रहा है। उस क्षेत्र में अभी भी इसे जादू चमत्कार या देवी देवता का आवेश अनुग्रह समझा जाता है। किंतु वास्तविकता यह है कि मस्तिष्कीय प्रवाहों की साधारण प्रक्रिया का उपयोग जब संकल्प शक्ति और एकाग्रता के आधार पर प्रयोग होता है यों वह विश्वास ही फलदायक बन जाता है। इसी तथ्य को अब वैज्ञानिक आधार पर प्रामाणित किया जा रहा है। यह अटकल न होकर यथार्थता है इसका प्रमाण उन रोगियों से मिलता है जो असाध्य या कष्टसाध्य समझे गये थे किंतु उपरोक्त ध्यान धारण के आधार पर अपने खोये हुए स्वास्थ्य को पुनः प्राप्त करके सौभाग्यशाली बने।
श्रद्धा कभी पूजा उपासना में या धार्मिक कर्मकाण्डों में प्रयुक्त होती थी और वह जितनी गहरी होती थी उतने ही चमत्कारी फलितार्थ प्रस्तुत करती थी। अब नवीन ध्यान प्रक्रिया में श्वेत रक्त कणों को देवता मानकर ध्यान द्वारा रोग निवारण के लिए जुटाया जाता है तो भी वैसा ही लाभ मिलता है। इस वैज्ञानिक आत्मोपचार को आश्चर्य नहीं स्वाभाविक माना जाना चाहिए।