अनंग देश के राजकुमार सुकर्णव वन प्रदेश में भ्रमण करते समय एक व्याध वनवासी के बाण का शिकार हो गया। साथ चल रहे अंगरक्षकों ने तत्काल व्याध का सिर काट दिया।
राजकुमार का मृत शरीर राजधानी पहुँचा तो सर्वत्र हाहाकार मच गया। राजा-रानी इतने शोकातुर हो गये कि उनने अन्न, जल त्याग दिया। निद्रा गंवा बैठे और कुछ ही दिनों में सूखकर काँटा हो गये। सभासदों ने समझाने बुझाने का बहुत प्रयत्न किया किंतु शोक किसी प्रकार घट नहीं रहा था। परम प्रिय राजकुमार के शोक में राजा का कलेजा डूबता रहता था।
राजा की स्थिति चिन्ताजनक होने से व्यवस्था लड़खड़ाने लगी और सुरक्षा का प्रश्न सामने आया।
राजा को उद्बोधन करने का उत्तरदायित्व ब्रह्मज्ञानी श्वेतार्द ने उठाया। उन्होंने राजा को स्वप्न से इस घटना से सम्बन्धित लोगों को बुलाकर कारण जानने और नये सिरे से दण्ड व्यवस्था करने का प्रस्ताव राजा के सामने रखा वे इसके लिए सहमत हो गये।
दिव्य प्रयत्नों से मृत व्याध की आत्मा बुलाई गई। उसने कहा- “मैं निर्दोष हूँ। हिरन समझकर मैंने तीर चलाया। राजकुमार की मौत ही घसीट कर मेरे तीर के मार्ग में ले आई। दोषी तो मौत है।
मृत्यु की आत्मा बुलाई गयी उसने कहा मेरा कोई दोष नहीं। कर्मफल के अनुसार सभी को मरना जीना और सुख-दुःख भुगतना पड़ता है।
कर्म देवता बुलाये गये। वे बोले शरीर से कर्म तो होता है पर वह तो जड़ है। जो होता है आत्मा की प्रेरणा से ही होता है। दोष आत्मा का है।
राजकुमार की आत्मा बुलाई गयी उसने कहा- “पूर्व जन्म में माँस भक्षण की इच्छा से एक मृग का वध हुआ। मृग को प्रतिशोध लेना था सो वह व्याध बनकर सामने आया और बदला चुकाया। दोष अन्तःकरण में उठने वाले संकल्प के ऊपर लदा। सच्चे अर्थों में इसी को दोषी पाया गया।
इस कथा को सुनकर राजा का विवेक जगा। उनने अनुभव किया, कि हर कोई अपने ही संकल्पों के फलितार्थों से जुड़ा है। सो इसी का समझा जाय, व्यर्थ का शोक-सन्ताप क्यों किया जाय।