मन्त्र विद्या का असीम विस्तार है। उसके अनेकानेक शब्द गुच्छक हैं। अनेक शब्दों में मन्त्रों का विस्तार हुआ है। उनके जप तथा सिद्धि प्रक्रिया के अनेक योगाभ्यास कर्मकाण्ड भी हैं, पर उनके मूल में एक ही ध्वनि आती है किन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि उन सब का मूल ‘ॐकार’ ही है। किसी मन्त्र का उच्चारण या जप करना हो तो उनके आदि में ॐकार अवश्य लगाना चाहिए। इस प्रकार वह भी नाद ब्रह्म की साधना के अंतर्गत आ जाता है।
इस विराट् ब्रह्माण्ड में ॐकार की ध्वनि गुँजित है। सृष्टि के आदि में घड़ियाल में मोंगरी की चोट मारने पर उत्पन्न होने वाली झनझनाहट की तरह ॐकार नाद हुआ था। उसी के कारण ताप, प्रकाश और ध्वनि का आविर्भाव हुआ। तदुपरान्त अनेक सूक्ष्म शक्तियाँ गतिशील हुईं और उनकी हलचलों से विभिन्न शब्द होने लगे।
प्रकृति के रहस्यों, हलचलों एवं सम्भावनाओं को जानने के लिए नादयोग का अभ्यास किया जाता है। कर्ण कुहर बिन्द कर लेने पर कई प्रकार कर ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं। झींगुर बोलने, बादल गरजने, शंख बजने, वंशी निनाद होने जैसे कितने ही शब्द आरम्भ में सुनाई पड़ते हैं और नादयोग का अभ्यासी उन ध्वनियों के सहारे यह जानने की चेष्टा करता है कि अलग जगत में क्या हो रहा है और क्या होने जा रहा है। भूत, वर्तमान और भविष्य की कितनी रहस्यमयी जानकारियाँ नादब्रह्म की साधना की अवगत होती हैं।
नाद ब्रह्म की अन्तिम सीमा ॐकार ध्वनि की सुनाई पड़ती है। उसे उपनिषदकारों ने ‘उद्गीथ विद्या’ कहा है। मध्यकालीन सन्त सम्प्रदाय के लोग उसे सुरत योग कहते रहे हैं। गोरख सम्प्रदायों में इसी की प्रमुखता है। कबीर पंथ में भी साधना का लक्ष्य इसी को माना है और कहा है जब ॐकार ध्वनि स्पष्ट हो जाती है तो मन उसी में लय हो जाता है और समाधि जैसी स्थिति बन जाती है। यह सब नाद ब्रह्म के भेद हैं। शब्द योग की परिधि में स्वाध्याय और समस्त गद्य-पद्य रूप में होने वाली प्रक्रियाऐं सम्मिलित होती हैं।
शब्द ब्रह्म और नादब्रह्म यह दोनों ही सर्वव्यापी हैं। मनुष्य के कण-कण में समाये हुए हैं। इन्हें उजागर करना भगवत् प्राप्ति के लिए आवश्यक है।
शब्दयोग अर्थात्- ज्ञानयोग, वाणी का सदुपयोग। मार्ग पर चलने की शिक्षा देना। अपने आप में शब्दयोग का अभिवर्धन सद्ज्ञान की अधिकाधिक अभिवृद्धि तर्क, विवेक और अनुभव के द्वारा, स्वाध्याय सत्संग एवं चिन्तन मनन द्वारा सम्भव होती है। लोग कर्मकाण्ड मात्र से अध्यात्म लक्ष्य की प्राप्ति करना चाहते हैं। यह एकाँगी प्रयास सफल नहीं होता। उपासना क्रिया-कृत्यों का रहस्य ज्ञानपूर्वक समझना चाहिए और उन्हें करते समय तद्विषयक भावनाओं को प्रदीप्त करना चाहिए। अन्यथा कर्मण्ड का मात्र शरीर श्रम एवं वस्तुओं की उलट पुलट मात्र बन रह जायेगा और उनका वह प्रतिफल न मिलेगा जो शास्त्रकारों द्वारा बताया गया है। शब्दब्रह्म का तात्पर्य मन्त्र विद्या का ज्ञानपूर्वक सम्पन्न करने उनके साथ विचारणा एवं भावना का समावेश करने से है।
नादयोग का मोटा अर्थ गायन वादन- संगीत कीर्तन है। प्रवचन परामर्श के साथ इसका भी संयोग रहता है। यह सामान्य परिवारी है। कथा-कीर्तन इसी आधार पर सम्भव होते हैं और वे ज्ञानयोग की नादब्रह्म की आवश्यकता पूरी करते हैं।
अपनी कहना और दूसरे की सुनना, इसी प्रक्रिया से वार्तालाप का आदान-प्रदान होता है। शब्द ब्रह्म अपनी अपनी श्रद्धानुभूति को दूसरों के अन्तःकरण में प्रवेश कराया जाता है। यह एक पक्ष हुआ दान का। पर इसके लिए अपने पास सम्पदा का संचय भी होना चाहिए। यह प्रयोजन नादयोग के अभ्यास से पूरा होता है। उसके द्वारा हम परब्रह्म का संदेश सुनते हैं। इस अवधारणा के उपरान्त ही ज्ञानीजन अन्यान्यों को ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देने में समर्थ होते हैं।